‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ सुजाता को अस्मिता-विमर्श की संश्लिष्ट धारा की प्रतिनिधि के रूप में सामने लाती है। वह गहन शोध द्वारा इतिहास के विस्मृत पन्नों से दमित अभिव्यक्तियों की निशानदेही करती हैं और समकालीन सृजन की बारीक परख भी। वह सबसे पहले हिन्दी कविता की मुख्यधारा की जड़ता को उजागर करती हैं, फिर लोक और परम्परा में स्त्री-कविता के निशान ढूँढते हुए उसे नाकाफ़ी पारम्परिक कैननों में रखे जाने पर सवाल उठाती हैं और उसे परखने की स्त्रीवादी आलोचना दृष्टि प्रस्तावित करती हैं। यह किताब एक ज़रूरी हस्तक्षेप की तरह है जो हिन्दी आलोचना में एक ज़रूरी कैनन स्त्रीवाद को जोड़ती हुई उसे विमर्श के केन्द्र में ले आती है। किताब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है, प्रस्तुत है एक अंश—

आख़िरी अध्याय स्त्री-लेखन को दे दो, मंच पर एकाध कुर्सी महिला को दे दो, सनसनी तलाशो, सबसे ज़बरदस्त यह कि उस विमर्श को अपने हक़ में अप्रोप्रिएट कर लो जैसे कि अच्छा स्त्री-लेखन क्या हो और कैसा हो, या स्त्रीवादी लेखन कैसा होना चाहिए, उसके जज बन जाओ। बिना स्त्रीवाद की किसी समझ के, बिना स्त्री-लेखन की समझ के सूचियाँ बनीं, टिप्पणियाँ की गईं। कहा गया कि अच्छा लेखन तो अच्छा लेखन है, इसमें स्त्री-पुरुष क्या! और बेहतरीन लेखन वह है जिसमें यह न पता लगे कि किसी स्त्री ने लिखा है, तो स्त्री-रचनाकारों ने भी इस मत को बिना किसी प्रतिवाद के अपना लिया। इस विषय में मृणाल पाण्डे लिखती हैं—

“यदि आप महिला हैं, और लिखती हैं, तब तो आपकी रचना को समीक्षकों की कसौटी पर कसे जाने के लिए ख़ुद को या तो उनके द्वारा स्थापित अर्थ के दायरे में नारीवादी या फिर नारीवाद विरोधी साबित करना पड़ेगा… यदि नारीवादियों को समीक्षकों की समझ कई मायनों में अपर्याप्त लगती हो या फिर समकालीन जीवन और समाज का ताना-बाना उनको अभूतपूर्व उलझाव और अनसुलझे विरोधाभासों से भरा दिखायी दे रहा हो, तो भी समीक्षकों की सराहना पाने के लिए ज़रूरी है कि कथावस्तु को विशेष खाँचों में ही तोड़-मरोड़कर फिट किया जाए और अगर कथावस्तु नये मुहावरे की माँग कर रही हो, तो भी रचना को एक पहाड़े की तरह स्पष्ट और रहस्य से हीन बनाकर उसे पुरानी भाषा में ही दोहराया जाता रहे। महिला-लेखन को अधिकतर समीक्षक मुख्यधारा के लेखन का एक किंचित दरिद्र बिरादर ही समझते हैं।”

स्त्रीवाद के भीतर अकादमिक-समाजशास्त्रीय जगत में जितने शोध हुए, उनकी जानकारी कमोबेश सभी पढ़े-लिखे लोगों में होगी। नहीं है तो होनी चाहिए। कई सालों से हिन्दी में यह आरोप लगाया जाता रहा है कि महिला-लेखन पर पश्चिमी तर्ज़ के नारीवाद का बेहद गहरा असर है। मज़ेदार है कि आधुनिक युग में आलोचना की सभी दृष्टियों पर पश्चिमी चिन्तन का प्रभाव है, लेकिन यह आरोप स्त्रीवाद पर ही लगता है। यों तो यह तर्क हास्यास्पद ही है फिर भी बता दें कि स्त्रीवाद अपने तरीक़े से अपने यहाँ विकसित हुआ है। यह जितना ग्लोबल है, उतना ही लोकल भी। दक्षिण एशियाई देशों ने अपने यहाँ पितृसत्ता के स्थानीय संस्करणों को पहचाना और आलोचना की है। वैसे भी, क्या ज्ञान के लिए भी यह देखा जाता है कि कहाँ से आना चाहिए और कहाँ से नहीं? क्या दुनिया-भर में ज्ञान-विज्ञान की विकास प्रक्रियाओं में लेन-देन कोई बुरी बात है? इस नासमझी पर मृणाल पाण्डे को कहना पड़ता है—

“दरअसल नारीवाद को लेकर हमारे यहाँ के आँसत पुरुष-पाठकों (जिनमें समीक्षक भी आते हैं) में एक ख़ास तरह का अधैर्य है। वे न तो उसके अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भों और न ही उसके भारत में जड़ पकड़ने की ऐतिहासिक वजहों में जाना चाहते हैं; भारतीय समाज और साहित्य में विकसित हो रहे उसके विशुद्ध देशी आयामों और फलादेशों की सहृदय पड़ताल करने के भी वे ख़ास इच्छुक नहीं हैं।

सच पूछिए तो हमारे ज़्यादातर समीक्षकों में नारीवाद की जो एक ठलुआ, रसहीन, संकीर्ण और अधकचरी समझ व्याप्त है, वह पूर्ववर्ती शृंगारिक रुझान के सिक्के का ही दूसरा पहलू है। इसके चलते महिला-लेखन की पड़ताल और स्थापित मानदंड इतने रूढ़िवादी ढंग से इस्तेमाल हो रहे हैं कि समीक्षा के अनुशासन को मानकर चलने की इच्छुक अधिसंख्य लेखिकाओं की बौद्धिक बाढ़ मारी गई है, पुरस्कृत वे भले ही हुई हों।

आज अवयस्क समीक्षा की मेंड़ से हटकर यदि कुछ लेखिकाएँ जूझ रही हैं तो अच्छा कर रही हैं।”

यह आसान काम है भी नहीं। पितृसत्ता एक ऐसी गुप्त प्रणाली है जिससे अपरिचित होने की वजह से हम उसका विरोध भी नहीं कर पाते। सब कुछ सहज बनकर सामने आता है और स्त्रीवाद सहज और स्वाभाविक जेंडर व्यवहारों की हिमायत के बावजूद एक बाहरी या अस्वाभाविक बात लगती है। जबकि है इसका ठीक उलटा। जब स्त्रियों ने एक नयी धमक और स्त्री-विमर्श की पृष्ठभूमि के साथ लिखना शुरू किया तो साहित्य में छिपी महीन पितृसत्तात्मक ताक़तों ने अपने पुराने खेल ख़ूब खेले। स्त्री-लेखन में यह स्त्रीवादी स्वर जब असहज करने लगा तो एक शीतयुद्ध ही उसके ख़िलाफ़ छेड़ दिया गया मानो। युद्ध का बिगुल साहित्य के क्षेत्र में भी और आलोचना के क्षेत्र में भी बजा दिया गया। अपने एक लेख में इसे समझाने के लिए रोहिणी अग्रवाल तीन उदाहरण देती हैं। पहला, निर्मल वर्मा नवोदित लेखिका सारा राय के कहानी-संग्रह ‘अबाबील की उड़ान’ को इसलिए महत्त्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि उसमें महिला-लेखन जैसा कुछ नहीं है। दूसरा, प्रख्यात आलोचक निर्मला जैन का, जिन्होंने ‘कलिकथा वाया बाईपास’ की आलोचना करते हुए इस बात पर गहरा संतोष व्यक्त किया है कि इस उपन्यास की चर्चा महिला लेखन के दायरे के भीतर रखकर नहीं, ‘उपन्यास’ के रूप में की जा रही है। तीसरा उदाहरण है मूर्धन्य आलोचक नामवर सिंह का जिनका मानना है कि महिला लेखन (और दलित भी) में सम्पूर्ण समाज की अभिव्यक्ति नहीं होती। दरअसल इस तरह के लेखन छोटे समुदायों के हितों को ध्यान में रखकर किए जाते हैं… ऐसा साहित्य अर्द्ध-साहित्य को प्रतिबिम्बित करता है। यह लेखन तात्कालिक प्रतिक्रिया का परिणाम है, जबकि साहित्य का मूल स्वरूप मानव को मुक्ति प्रदान करनेवाला है। खंड-खंड में मुक्ति साहित्य का लक्ष्य नहीं है।”

छोटे समुदाय! क्या स्त्रियाँ अल्पसंख्यक है? कितनी आबादी होगी धरती पर स्त्री की? किस जाति, धर्म, वर्ग, नस्ल में नहीं है स्त्री और दुनिया के किस कोने में नहीं है? आपके घर में नहीं हैं माँ-बहन? हिन्दी आलोचना स्त्री-लेखन और स्त्रीवाद को कितना अ-गम्भीर मानती है, इसके उदाहरण प्रचुरता से मिलेंगे। कोई कमी नहीं है। एक उदाहरण देती हूँ। रामशरण जोशी के पास स्त्री-लेखन और स्त्रीवाद पर बात करने की योग्यता क्या है मैं नहीं जानती, लेकिन यह ज़रूर लगता है कि ऐसे विषयों पर जब आपका अच्छा पठन न हो तो लेख लिखने से इनकार कर देना चाहिए। यह अधिक सम्मानजनक है बजाय इसके कि बाद में हम उसका अध्ययन करें और हमें यह कहना पड़े कि इनका पठन बेहद कम है और इनके पास स्त्री लेखन को देखने के स्वस्थ नज़रिए का नितांत अभाव है। वह स्त्री-लेखन पर बात करते हुए यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने तीस साल पहले एक लेख मुद्रा भाई (मुद्राराक्षस) का, एक अरविन्द जैन का और राजेन्द्र यादव के कुछ ‘हंस’ वाले विमर्श पढ़े थे। यह मैं नहीं कह रही, ख़ुद उनका वाक्य है— ‘कुल मिलाकर मेरा यही सन्दर्भ संसार है।’ इतने से सन्दर्भ-संसार के आधार पर उनके पूरे लेख में जो फ़ैसले आए हैं, उनकी एक बानगी देखिए—

    1. यह सिर्फ़ महिला विमर्श है न कि स्त्री-विमर्श!
    2. यह महिलाओं की दैहिक मुक्ति के इर्द-गिर्द घूमता हुआ दिखायी देता है।
    3. हिन्दी में स्त्री-विमर्श का दायरा बेहद सिकुड़ा हुआ है।
    4. हिन्दी में स्त्री-विमर्श सतहीकरण से पीड़ित है।
    5. विमर्श करते हुए ग़ैर-पारम्परिक अप्रोच भी अपनायी जानी चाहिए !
    6. अरविन्द जैन के अलावा किसी दूसरे ने स्त्री क़ानून और संविधान के विमर्श को आगे नहीं बढ़ाया। (पृ. 35, 36, 37)

ऐसे ही और भी तमाम फ़तवे हैं। पढ़ा जाने लायक़ लेख है। (इन बिन्दुओं में जहाँ विस्मयादिबोधक चिह्न मेरे हैं) यह भी सोचिए कि इतने फ़तवे देने के लिए इन्होंने स्त्रीवाद कितना पढ़ा होगा? उसका उत्तर वे आगे ख़ुद देते हैं कि ऊपर लिखित तीन लेखों के अलावा सीमोन, निवेदिता मेनन, किश्वर नाहिद, मधु किश्वर, वीना दास, रानी जेठमलानी, उषा राय, नन्दिता हक्सर… पढ़ा नहीं है, इन जैसों के नाम कानों से टकराए ज़रूर हैं

बिना पढ़े सिर्फ़ देख-सुनकर स्त्री-लेखन की समझ बनाना, अपनी पसन्द-नापसन्द के आधार पर स्त्रीवाद पर निर्णय देना ज़िम्मेदार और वरिष्ठ लेखकों से भी हो जाता रहा है, इसमें कोई हैरानी नहीं है। कोई ख़ास फ़र्क़ तो नहीं पड़ता इससे स्त्रीवादी रचनाकारों को लेकिन ऐसे निबन्ध पढ़ने वाले दो-चार विद्यार्थी, युवा पाठक ज़रूर एक अधकचरी समझ बना लेते होंगे। धुंध इससे छँटती नहीं है, और गहरी हो जाती है। वह आगे लिखते हैं—

“दरअसल महाश्वेता देवी, अहिल्या रांगणेकर, वृंदा करात, अरुणा राय, मेधा पाटकर, श्रीलता स्वामीनाथन जैसी औरतें मुझे विचार व कर्म के धरातल पर अधिक आकर्षित करती रही हैं, और मेरे अन्दर के मर्दपन को ललकारती भी रही हैं। क्योंकि इसका कर्म-फ़लक व्यवस्था-विमर्श को जन्म देता है, स्त्री-विमर्श उसमें अन्तर्धारा के रूप में ज़रूर उपस्थित रहता है। महाश्वेता देवी जैसी औरतें, औरत और मर्द, दोनों की ही दुनिया को समान रूप से बदलने के लिए समर्पित हैं। अतः अलग से स्त्रीवादी चिन्तकों व एक्टिविस्टों की आवश्यकता क्या है?”

चलिए, निपटा दिया सारा स्त्री-लेखन और लगे हाथ स्त्री मुक्ति आन्दोलन भी। कौन समझाए कि स्त्रीवाद और स्त्री मुक्ति आन्दोलन एक ही चीज़ नहीं हैं, लेकिन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। स्त्रीवादी सिद्धांतकार एक्टिविस्ट भी रहे हैं, लेकिन एक्टिविज़्म में जुड़े लोग स्त्रीवादी ही हों, यह कोई ज़रूरी नहीं है। हिन्दी का पुरुष लेखक भी अगर कर्म के धरातल पर उतरेगा तो हमें उतना ही आकर्षित करेगा लेकिन मज़ेदार यही है कि इससे पुरुष लेखकों, चिन्तकों का महत्त्व एकदम नहीं घटता कि वे सिर्फ़ लिख रहे हैं। हम तो नहीं कहते कि जब अनुपम मिश्र या रामशरण जोशी हैं तो फिर अलग से समाज की चिन्ता में लिखनेवाले लेखकों की क्या ज़रूरत है?

राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ को स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के लिए एक खुला मंच बनाया और दलित व स्त्रियों को अप्रतिबन्धित लेखन के लिए प्रोत्साहित किया। स्त्री-लेखन को पुरुष लेंस से जज नहीं किया उन्होंने लेकिन स्त्रीवाद की बौद्धिक, वैचारिक, राजनीतिक ज़मीन को मज़बूती से सामने रखे बिना यौन-विमर्श के कुछ नुक़सान हैं। ‘हंस’ पत्रिका के इस स्टैंड पर भी आगे बात करेंगे, पहले एक और प्रवृत्ति पर चर्चा कर लें। स्त्री-मुक्ति की मशाल पुरुष अपने हाथ में रखना चाहते हैं। ऐसा नहीं कि पुरुष स्त्रीवादी हो नहीं सकते। लेकिन बिना किसी समझदारी के कम से कम सम्पादन के काम से बचना चाहिए। जैसे, एक मर्दवादी से (मर्द नहीं, मर्दवादी) स्त्री मुक्ति के लेखों का सम्पादन करवाना थोड़ा ख़तरनाक है। सोचिए, अगर सम्पादक को स्त्री मुक्ति आन्दोलन से दिक़्क़त हो, उसे लगे कि स्त्री-लेखन असल में साहित्य में आरक्षण की माँग है तो, इस भोंथरी समझ के साथ स्त्री विशेषांक के सम्पादन का मतलब क्या है? ‘स्त्री मुक्ति का सपना’ जैसे लेखों के संकलन का सम्पादन करनेवाले तीन पुरुषों में से एक, सहायक सम्पादक कमला प्रसाद सम्पादकीय में लिखते हैं—

“स्त्री-विमर्श भारतीय भाषाओं तथा विश्व की सभी भाषाओं में इस समय परिचर्चाओं में रेखांकित है। आन्दोलन के रूप में जब कोई उभार आता है तो वह आरक्षण की माँग करने लगता है। आरक्षण एक हद तक इलाज होता है। आरक्षण को एकमात्र इलाज बना दिए जाने से आन्दोलन में शामिल लोगों का अनुरूपन किए जाने का ख़तरा उपस्थित होता है। पचास वर्षों की राजनीति में आरक्षण के जो परिणाम सामने आए हैं, उससे आख़िरी आदमी का भला अपेक्षा के अनुरूप नहीं हुआ। आरक्षण लाभ मिलने पर लोग उच्च वर्ग में शामिल होने लगते हैं। इसके तनावों का अलग रसायन है।”

चलिए आप ही सम्भालिए स्त्री मुक्ति की कमान लेकिन पहले अपने भीतर के स्त्री-द्वेष से तो मुक्ति पाइए! अगर कमला प्रसाद लिखते कि स्त्री-आन्दोलन साहित्य में अपना हिस्सा माँग रहा है तो कितनी ख़ूबसूरत बात होती। लेकिन स्त्री-लेखन को अभी एक तरफ़ रखिए। आरक्षण पर बात करते हैं। उनका मतलब है कि आरक्षण ‘प्रिविलेज’ हैं, जायज़ हिस्सा यानी हक़ माँगना नहीं। दूसरा, वह आरक्षित को अयोग्य और प्रतिभाहीन मानते हैं जिसकी वजह से आरक्षण के ख़राब नतीजे सामने आते हैं। तीसरा, वह कम से कम यह मानते हैं कि वे स्वयं साहित्य के सवर्ण यानी अनारक्षित (unreserved) वर्ग से हैं जिसे यह वहम है कि साहित्य की सत्ता अब तक उसके पास रही है और उसमें प्रवेश के योग्य-अयोग्य कौन है, इसका फ़ैसला करने का हक़ उसी के पास है। ऐसी आलोचनाएँ लिखते हुए आलोचक भूल जाता है कि भाषा अगर लोहे की दीवार है तो भाषा जाली का पर्दा भी है। अपनी संकीर्णताओं को भाषा में छिपाना क़तई सम्भव नहीं है। स्त्री-लेखन साहित्य में अपनी जगह लेने आया है, किसी और की नहीं। जो आक्रान्त हैं, उन्हें यह आरक्षण की माँग लग सकती है। लेकिन यह उतना ही सहज है जैसे घर की किसी महिला का रसोई से निकलकर सोफ़े पर आकर बैठना और चाय पर चर्चा में भाग लेते हुए अपनी बात कहना। अगर घर के लोगों को यह लगे कि रसोई ही उसकी जगह थी और सोफ़े पर बैठने की इच्छा आरक्षण माँगना है, तो उसका कुछ किया नहीं जा सकता। स्त्री मुक्ति आन्दोलनों को नकारने के साथ-साथ विचारधारा को भी नकार दिया गया। एक विचारधारा जो आन्दोलन भी है, दर्शन भी है, राजनीति भी, उसे तात्कालिक प्रतिक्रिया का परिणाम बता दिया जाना कम समझ या कहें पूर्वग्रहग्रस्त समझ का नतीजा है। यहाँ यह याद दिला देना समीचीन होगा कि आरक्षण को लेकर आम सवर्ण समझ से अलग राजनीतिक आरक्षण वंचित वर्ग को प्रतिनिधित्व देने का सकारात्मक दख़ल है, न कि कोई ग़रीबी हटाओ योजना।

जो गति स्त्री लेखन की नब्बे के दशक से बनी, उसे देखते हुए यह लगने लगा कि स्त्री-लेखन को अन्ततः जगह देनी ही पड़ेगी तो कम से कम उसके मानक सवर्ण मर्द ही तय करें! स्त्रीवादी लेखन की छाप से मुक्त लेखन को प्रोत्साहित करें! स्त्रीवाद से निपटने का यही सही तरीक़ा है। यह चाल बख़ूबी समझते हुए, रोहिणी अग्रवाल लिखती हैं—

“‘महिला-लेखन’ मायने पुरुषों के व्यापकतर-बृहत्तर सरोकारों से दूर महिलाओं द्वारा किया (ज़्यादातर) स्त्रैण लेखन और (बहुत कम) सार्थक स्त्रीवादी लेखन। यानी नौ दिन चले अढ़ाई कोस। ‘कलिकथा वाया बाईपास’ इसलिए हाथोंहाथ लपका गया क्योंकि वह महिला कथाकार की लेखनी से ग़ैर-महिला विषय पर आया। अद्भुत! बेशक अंधी नज़र से इतिहास को देखने का उपक्रम है यह उपन्यास, लेकिन लीक से हटकर कुछ किया तो सही! न हो कथ्य की गहराई, शिल्प का ग्लैमर तो जानलेवा है। कैसा ‘गुडीगुडी’ लेखन! न मर्द की ज़्यादतियों का बखान, न औरतों की प्रतिशोधात्मक स्ट्रॅटेजी का बयाँ। पुरुष पाठक-आलोचक पढ़ने का ‘दुस्साहस’ करें तो यों न लगे कि कोड़े खा-खाकर अधमरा हुआ जा रहा है।”

अक्सर तो स्त्रीवाद पर ऐसे टिप्पणीकार भी क़लम चला देते हैं जिन्हें यह तक नहीं पता होता कि स्त्री-मुक्ति आन्दोलन का पहला चरण कब शुरू हुआ और दूसरा कब! समझ सकते हैं कि अब से सौ बरस पहले स्त्री-लेखन को नजरअन्दाज़ करने का स्तर क्या रहा होगा! इस किताब के खंड-दो में इस पर विस्तार से बात करेंगे। फ़िलहाल यह समझना बेहद ज़रूरी है कि स्त्रीवादी आलोचना दृष्टि पर काम करने के लिए हम पहले ही काफ़ी देर कर चुके हैं। मृणाल पाण्डे कहती हैं—

“नब्बे के दशक तक महिला-लेखन और नारीवादी दर्शन के अन्तर्सम्बन्धों को लेकर कोई बहुत मौलिक चिन्तन हमारे यहाँ की समीक्षा में नहीं हुआ। स्त्रियों से जुड़े वैचारिक संघर्ष से राष्ट्रीय सन्दर्भों को जोड़ने की बजाय महिला-लेखन विशेषांकों के समीक्षकों में समाज के शोषित सर्वहारा वर्गों के सन्दर्भ में विकसित पुरानी भाषा तथा विचारों के आधार पर ही लेखन का वर्गीकरण करने और उसे उद्धृत करने की प्रवृत्ति प्रधान बनी हुई है।”

सच तो यह है कि इस मौलिक चिन्तन का आज 2020 तक भी अभाव है। अगर स्त्रीवाद की स्थिति यह है तो समझ सकते हैं कि स्त्रीवादी आलोचना दृष्टि को साहित्य से कितना पृथक समझा जाता होगा। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है, जिसकी ओर एलेन शोवाल्टर इशारा करती हैं कि स्त्रीवादी आलोचना के पास एक स्पष्ट सैद्धान्तिकी न होने की वजह से भी उस पर हमले करना आसान हो जाता है। स्त्रीवादी आलोचकों की भी सहमति इस बात पर नहीं बन पाती कि उन्हें किसका समर्थन करना है और किसकी सफ़ाई देनी है।

लेकिन, स्त्रीवादी आलोचकों में सहमति न बन पाने की कोई समस्या अपने यहाँ नहीं है क्योंकि स्त्रीवादी आलोचक ही नहीं हैं। इसलिए भी हिन्दी में स्त्रीवाद पर सीधा हमला किए जाने की नौबत बहुत कम आती है, क्योंकि उसे ख़ारिज करके भी काम चल जाता है।

कम से कम हिन्दी में ऐसा कोई संघर्ष नहीं दिखायी देता जिसे स्त्रीवादी कहा जा सके। दलित संगठन ज़रूर बने और दलित स्त्रीवाद के मुद्दे पर भी कुछ एकता दिखायी देगी लेकिन हिन्दी के स्त्री-लेखन का स्त्रीवादी संगठनों से कोई जुड़ाव होने का प्रमाण नहीं है। आज़ादी के समय महिलाओं ने लेखनी भी चलायी और आन्दोलन में, एक्टिविज़्म में भी रहीं। लेकिन बाद में जिस तरह उर्वशी बुटालिया, महाश्वेता देवी, कमला भसीन, निवेदिता मेनन जैसे स्त्रीवादी लेखन और एक्टिविज़्म करते रहे, ऐसे नाम हिन्दी के पास नहीं हैं। यहाँ तक कि स्त्री-रचनाकार अस्मिता के मुद्दों पर कोई लेखिका संगठन नहीं बना पाए हैं। जलेस है, प्रलेस है, जसम है लेकिन स्त्रीवाद को अभी इन्तज़ार करना होगा कि हिन्दी में उसके नाम पर कोई एकता देखने को मिले। हमारे नारीवादी लेखन में आत्मालोचन न के बराबर है तो नारीवादी आलोचना है ही नहीं। मर्दों की भाषा में मर्दों का सा ही लिखना स्त्री-लेखन की अपनी पहचान और बुलन्द आवाज़ नहीं बनने देगा। अरुण प्रकाश यह सही लिखते हैं कि सेक्स का वर्णन भी स्त्री का पुरुष से भिन्न होगा, लेकिन इस भाषा से मेरी कोई सहमति नहीं कि वह मर्दों की ही भाषा में ‘औरत उघाड़ू वर्णन’ लिखेगी तो वह मर्दों का ही मनोरंजन करेगा, स्त्री के लिए उसमें क्या होगा? मर्दवादी आलोचना की भाषा स्त्री के पक्ष में खड़ी होने की कोशिश करे तो असावधानी में उसका मक़सद ध्वस्त हो सकता है। ऐसे कथनों की जाँच करने के लिए भी तो स्त्रीवादी आलोचना का होना ज़रूरी है।

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सुजाता के उपन्यास 'एक बटा दो' से उद्धरण
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सुजाता
लेखिका, कवयित्री व आलोचक। स्त्रीवादी ब्लॉग 'चोखेर बाली' के लिए चर्चित। किताबें: एक बटा दो (उपन्यास), आलोचना का स्त्री पक्ष: पद्धति, परम्परा और पाठ (आलोचना), स्त्री निर्मिति, अनंतिम मौन के बीच (कविता)।

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