कविता संग्रह: ‘जीवन के दिन’ – प्रभात
टिप्पणी: अमर दलपुरा
मनुष्य के पास न कोई दिशासूचक यन्त्र था अपने जीवन के प्रारम्भ में, न भूगोलवेत्ता था, न ही इतिहासविद। वह धरती की गोद में इतना धीरे चलता है जितना कवि। कविता लिखते समय कवि इस बात को महसूस करता है जैसे वह हज़ारों वर्ष तक जिएगा-
मैं इतना धीरे चलना चाहता हूँ जीवन में
जितना धीरे चलते हैं गडरिए बीहड़ में
कवि अलग-अलग नक़्शों पर चलते हुए धरती के लिए ‘देश’ या ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग नहीं करता। उसे मनुष्यता के बीच सीमाएँ रास नहीं आती हैं। उसने धरती की सतह पर और आसमान के नीचे चलते हुए जीवन को देखा है। चरवाहे इस अर्थ में धरती पर कवियों के अग्रज थे। वे लिपि और भाषा के अभाव में कविता को लिखित दस्तावेज़ नहीं बना सके, फिर भी वे समूह में, अकेलेपन में जीवन के गीत गाते रहे। वे देवताओं की स्तुति में लोकगीत गाकर पूजा विधान पूर्ण करते। मनुष्य आदिमरूप में चरवाहा था और चरवाहे लोकगायक के रूप में धरती के प्रथम कवि हैं। उसी तरह कविता के रूप में लोकगीत जीवन की प्रथम प्रस्तुति है। वेद क्या है?
“वेद गडरिए के कण्ठ से निकले हुए गीत हैं!”
जर्मन इतिहासविद मैक्समूलर को कृष्ण कल्पित अपने कविता संग्रह ‘हिन्दनामा’ में दर्ज करते हैं, प्रभात जीवन के दिन में-
हम तो देखते ही हैं अपने दिन
जीवन भी अपने दिन दिखाता है
‘जीवन के दिन’ कवि का दूसरा कविता संग्रह है। हाल में राजकमल समूह से प्रकाशित हुआ है। पहला कविता संग्रह ‘अपनों में नहीं रह पाने के गीत’ साहित्य अकादमी देहली से छपा था। हिन्दी कविता के लिए इस कविता संग्रह के भाव और चित्र अनछुए थे। अब तक बाल साहित्य और कहानियों की लगभग पच्चीस किताब लिख चुके हैं, जो कई भाषाओं में अनुवादित हो चुकी हैं। सुपरिचित कवि प्रभात ने ‘मुख्यधारा की कविता से केवल लिपि को चुना, बाक़ी सब अपना है’ – मदन मीना ‘जीवन के दिन’ कविता संग्रह की भूमिका में लिखते हैं। उनका मानना है कि प्रभात की कविता की समीक्षा के लिए परम्परागत औज़ार नाकाफ़ी साबित होते हैं। उनकी कविता की समीक्षा दरअसल जीवन की समीक्षा है।
प्रभात की कवि की सम्वेदनात्मक भूमि माड़ है, राजस्थान का वह क्षेत्र जो पहाड़, बीहड़, सूखी नदियाँ, प्यासे तालाब, ढोर-डांगर, खेतों में काम करते स्त्री-पुरुष, आसमान नीचे उड़ते पक्षी, खेतों में सारस का जोड़ा और लोकगीतों की विभिन्न शैलियाँ से समृद्ध है। गीतात्मक शैली में लिखा ‘बंजारा नमक लाया’ इस ओर संकेत करता है कि उदार बाज़ारवाद के दिनों में कहीं न कहीं जीवन इतना संघर्षमय है कि उन्हें नमक जैसी चीज़ पर लिखा गीत अपनी ज़रूरत महसूस होता है। इस गीत की ख़ूबसूरती है कि इसमें एक तरफ़ तो नमक के इतने सुन्दर बिम्ब मिलते हैं और दूसरी तरफ़ उसी नमक के लिए ज़िन्दगी की जद्दोजहद पूरी जटिलता के साथ उपस्थित है। वे जीवन को देखते ही नहीं, बल्कि जीते हैं। उनकी कविता की प्रत्येक पंक्ति पाठक से पुनर्पाठ की उम्मीद करती है। ये जीवन से पलायन की कविता नहीं है, बल्कि जीवन में सुख-दुःख, आशा-निराशा, प्रेम-पाप जैसे विरोधी भाव एक साथ जीने की कविता है। समकालीन हिन्दी कविता में मात्रात्मक रूप से कवियों और कविता संग्रह की कमी नहीं है, हम कविता में जीवन को सतही और कभी-कभी हिंसात्मक रूप में देखते हैं, लेकिन प्रभात जीवन की रचना करते हैं। ‘जीवन के दिन’ कविता संग्रह की कविताओं में जीवन से प्रेम का स्वर है-
साधारण पेड़ है ये
जो सूखते हुए जीते हैं
मेरे इलाक़े के ग़रीब हैं ये
जो कि प्रेम में पड़े हुए हैं
कविता में साधारण लोगों के जीवन के चित्र प्रभात की क़लम ने जिस ख़ूबसूरत रंग से भरे हैं, वह अन्यत्र कम ही मिलता है। वह रंग मटमैला है। जीवन-मृत्यु का रंग है। सुख-दुःख को एक साथ जीने का रंग है। चित्र धूल में लिपटे हुए हैं, जो भारतीय जनमानस के बिम्ब हैं। माटी में गड़े हुए अनगढ़ भाटे एक दिन लोकदेवता बन जाते हैं। गाँव की औरतें बच्चे को लेकर आती हैं। अन्य लोग फ़रियाद करते हैं। वे देवता को मनाते हैं। दर्द ठीक नहीं होता, पर वे देवता से चेतावनी के स्वर में कहते हैं तू तेरे घर मैं मेरे घर।
लोक उनकी कविता की शक्ति है। ‘लोकगायिकाएँ’, ‘लोकगायक’, ‘लोकदेवता’, ‘लोकगीत’ कविताओं के शीर्षक हैं। दूसरी कविताओं में जीवन की सघन अनुभूति है। इसलिए दुःख अकेलेपन की उपज नहीं है, न ही वह महानगरीय बोध है। किसान, मज़दूर, स्त्री, पेड़ और सूखा तालाब आदि चित्रों में सामूहिक रुदन है। कवि का कहना है कि फिर वे जीवन को तरह-तरह से समृद्ध करते हैं। हमारा समाज प्रेम करने की सहूलियत नहीं देता, बल्कि प्रेम जैसे पवित्र भाव को समाज पाप से भी अधिक घृणा की दृष्टि से देखता है। ‘जीवन के दिन’ कविता संग्रह धरती की सतह पर चलते मनुष्य, बहती हवा, पशुओं के झुण्ड, किसान और खेतों के जीवन की कविता है।