मनुष्य होने की परम्परा है कि वह किसी कंधे पर सिर रख देता है
और अपनी पीठ पर टिकने देता है कोई दूसरी पीठ
ऐसा होता आया है, बावजूद इसके
कि कई चीज़ें इस बात को हमेशा कठिन बनाती रही हैं
और कई बार आदमी होने की शुरुआत
एक आधी-अधूरी दीवार हो जाने से, पतंगा, ग्वारपाठा
या एक पोखर बन जाने से भी होती है
या जब सब रफ़्तार में हों तब पीछे छूट जाना भी एक शुरुआत है
बशर्ते मनुष्यता में तुम्हारा विश्वास बाक़ी रह गया हो
नमस्कार, हाथ मिलाना, मुस्कराना,
कहना कि मैं आपके क्या काम आ सकता हूँ—
ये अभिनय की सहज भंगिमाएँ हैं और इनसे अब
किसी को कोई ख़ुशी नहीं मिलती
शब्दों के मानी इस तरह भी ख़त्म किए जाते हैं
तब अपने को और अपनी भाषा को बचाने के लिए
हो सकता है तुम्हें उस आदमी के पास जाना पड़े
जो इस वक़्त नमक भी नहीं ख़रीद पा रहा है
या घर की ही उस स्त्री के पास
जो दिन-रात काम करती है
और जिसे आज भी मज़दूरी नहीं मिलती
बाज़ार में तो तुम्हारी छाया भी नज़र नहीं आ सकती
उसे दूसरी तरफ़ से आती रोशनी दबोच लेती है
वसंत में तुम्हारी पत्तियाँ नहीं झरतीं
एक दिन तुम्हारी मुश्किल यह हो सकती है
कि तुम नश्वर नहीं रहे
तुम्हें यह देखने के लिए जीवित रहना पड़ सकता है
कि सिर्फ़ अपनी जान बचाने की ख़ातिर
तुम कितनी तरह का जीवन जी सकते हो
जब लोगों को रोटी भी नसीब नहीं
और इसी वजह से साठ-सत्तर रुपए रोज़ पर तुम एक आदमी को
और सौ-डेढ़-सौ रुपए रोज़ पर एक पूरे परिवार को ग़ुलाम बनाते हो
और फिर रात की अगवानी में कुछ मदहोशी में सोचते हो
कभी-कभी घोषणा भी करते हो—
मैं अपनी मेहनत और क़ाबलियत से ही यहाँ तक पहुँचा हूँ।
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साभार: किताब: अमीरी रेखा | लेखक: कुमार अम्बुज | प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन
कुमार अम्बुज की कविता 'एक स्त्री पर कीजिए विश्वास'