हालांकि मैं ये तहरीर लिखते वक़्त जानता हूँ कि मुझे भी कभी न कभी इस फन्दे में पाँव रखना पड़ सकता है और वो भी अपनी ख़ुशी से, किसी ज़ोर-ज़बरदस्ती से नहीं। मेरे कुछ दोस्त मुझे मश्वरा देते हैं कि तसनीफ़! तुम्हारे सर पर जो यौन आकर्षण का भूत सवार है तो अगर तुम शादी कर लो तब शायद ये मसला हल हो जाए। लेकिन मैंने पलटकर उनसे कभी नहीं कहा कि तुम्हारे सर पर जो इतनी आर्थिक और सामाजिक मजबूरियाँ फेरे लगाती हैं, उनकी वजह से तुम अपने पार्टनर को तलाक़ क्यों नहीं दे रहे? मेरे सोचने समझने के ज़ाविये मुमकिन है कि सामाजिक उसूलों से बहुत ज़्यादा लग्गा न खाते हों, मगर इतना तो मैं भी समझता हूँ कि शादी की बुनियादी वजह इंसान की कामुक इच्छाओं का इलाज ढूँढने के सिवा और कुछ नहीं। अब ये अलग बात है कि हम उसमें घर-गृहस्थी का सुख, औलाद की किलकारियों और दूसरे बहुत से अहम मुआमले झोंक कर उसे ज़बरदस्ती एक बेहतर और ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी अमल क़रार दे दें। मेरे एक बहुत ही पढ़े लिखे दोस्त हैं तारिक़ अहमद सिद्दीक़ी। उनका मानना है कि इंसान अगर शादी नहीं करेगा तो एक निराज की सी सूरत ए हाल पैदा हो जायेगी। लोग मुँह ज़ोर वासनाओं का शिकार होकर हर दूसरी औरत पर टूट पड़ेंगे और मर्द और औरत के दरमियान मौजूद पवित्र रिश्तों के बाँध भी टूट सकते हैं। मुझे याद है कि जब मैंने शादी के बारे में फ़ेसबुक पर एक मुख़्तसर-सा नोट लिखा तो उन्होंने इस मुआमले पर मज़बूत दलीलों के साथ एक वैचारिक बहस का आग़ाज़ किया था। अफ़सोस कि हम उस बहस को जारी न रख सके, लेकिन शायद बात यहाँ से दोबारा शुरू की जा सके।
अव्वल तो मैं नहीं समझता कि वासना के आधार पर बनने वाले रिश्ते किसी तरह का निराज पैदा कर सकते हैं या उसके लिए हम इंसानों को मौक़ा परोसते हैं। जहाँ तक बात ज़बरदस्ती बनाए गए शारीरिक रिश्ते की है तो मेरा मानना है कि ये काम हमारी सोसाइटी में शादी के बाद भी होता है और लगातार होता है। मुझे क़रीब एक पैंतालीस वर्षीय औरत ने बताया था कि उसने पिछले दस वर्षों से अपने शौहर के साथ किसी भी तरह का शारीरिक सम्बन्ध तोड़ रक्खा है और इसकी वजह ये है उसका पति उसे शारीरिक प्रताड़नाएँ देता था, वो एक इज़्ज़तदार घराने की औरत है, उनकी औलादें हैं और दूर से देखने पर ये घराना एक बहुत कामयाब और ख़ुशहाल ख़ानदान नज़र आता है। आप इसे एक आश्चर्यजनक हालत क़रार देकर नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते, ये एक गम्भीर मसला है। गम्भीर इस वजह से कि हमने जिन मुआमलों को सामने रखकर शादी को इंसानी ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा बना दिया है, उसने बहुत-सी समस्याएँ पैदा कर दी हैं। फ़र्ज़ कीजिये कोई शख़्स शादी करना चाहता है, मगर उसे अपनी पसन्द और मिज़ाज की लड़की सोसाइटी में नहीं मिल रही है, माँ बाप और मिलने जुलने वालों का तक़ाज़ा, वासना की घुटन का हमला, घर-गृहस्थी की ख़्वाहिश, अपना परिवार बनाने की इच्छा और पत्नी की सेवा का सुख भोगने के लिए वो शख़्स किसी ऐसी लड़की से शादी कर लेता है, जो उसके लिए बिल्कुल मुनासिब नहीं थी। पहली बात तो ये कि लड़की उसका मिज़ाज समझने में एक बरस लगा देगी और एक बरस बाद जब उसे अहसास होगा कि उसके शौहर की पसन्द और ना-पसन्द क्या है तो उसे अपनी बची हुई पूरी ज़िन्दगी अपने पति और उसके परिवार के उसूलों और ख़्वाहिशों के मुताबिक़ गुज़ारने का ख़ुद में हौसला पैदा करना पड़ेगा। मेरे ख़याल में इंसानी किरदार को ज़बरदस्ती बदलने की ये कोशिश एक ज़ुल्म है, ऐसा ज़ुल्म, जिसपर हम कभी न ध्यान देते और न बात करते हैं और अगर इसके नतीजे में हमें कोई औरत चिड़चिड़ी, मुँहफट या ज़बान-दराज़ बनती नज़र आती है तो हम उसे ताने देते हैं कि वो एक लायक़ बहू या बीवी नहीं है, अपने पति को अँगूठे के नीचे दबाकर रखना चाहती है और उसे समाज में अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता।
ये समस्या इस क़दर अजीब ओ ग़रीब है कि इसके मनोवैज्ञानिक कारणों पर विचार किये बिना हम इनका विरोध कर ही नहीं सकते। आम तौर पर हमें लगेगा कि सब ठीक है। हर चीज़ अपने हिसाब से चल रही है। शौहर सुबह दफ़्तर जाता है, बीवी बर्तन माँजती है, नाश्ता बनाती और बच्चे सम्भालती है, बाज़ार जाती है या दूसरी ज़िम्मेदारियों को ख़ूबी से हँसते-खेलते गुज़ार देती है। ये एक ऐसा सिलसिला है जिसमें अपने आपको कामयाब साबित करने के लिए कई औरतों ने पूरी पूरी ज़िन्दगियाँ एक धोखे में ही गुज़ार दी हैं। उनको लगता है कि वो एक मिसाली बीवी बनेंगीं, एक ऐसी बहू, जिसकी लोग तारीफ़ करें, सास जिसकी आरती उतारे और पति जिसकी आदतों पर लट्टू हो जाए। अगर आप मुझसे ये कहें कि वो लाखों करोड़ों औरतें जिन्होंने सिर्फ़ बच्चे पैदा करके, उनकी परवरिश करने के बाद उन्हें लायक़ इंसान बना दिया हो, इस काम को करने के अलावा कुछ और करने के लायक़ नहीं थीं तो यक़ीन जानिए हमें इंसानी निज़ाम में औरत के वजूद और फ़ायदे पर सवालिया निशान लगाना पड़ेगा। अगर औरत सिर्फ़ इन्ही कामों के लिए है कि वो मर्द को लायक़-फायक़ बना सके, उसका साथ दे सके या उसके पीछे खड़ी रह सके, महफ़िलों, किताबों और भाषणों में उसका ज़िक्र कायनात की तस्वीर में रंग भरने के तअल्लुक़ से ही किया जाता रहे तो ये एक सरासर बेहूदा और बेवक़ूफ़ाना बात है, जिसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का हर औरत को मुकम्मल हक़ हासिल है।
ये तो हुई वो बुनियादी बात जिसमें शादी एक औरत पर जो नकारात्मक असर डालती है, उसके ऐतमाद और उसके दिमाग़ पर जो चोट करती है, उसका बखान। अब मैं आगे चलता हूँ। शादी के फ़ायदे क्या हैं? शादी का सिर्फ़ एक फ़ायदा है और वो ये कि आपके सेक्स की समस्या का समाधान आपकी बग़ल में हर रात मौजूद रह सकता है। ज़ाहिर सी बात है कि मर्द या औरत दोनों तरह के सेक्स वर्कर्ज़ के लिए ख़र्च की जाने वाली रक़म का बंद ओ बस्त हर शख़्स नहीं कर सकता। लेकिन, ये सिर्फ़ एक फ़ायदा है और वो भी कुछ वर्षों के लिए। मैंने बहुत से शादी शुदा जोड़ों से ये बात की है और उनमें से अस्सी प्रतिशत ने इसे माना है कि शादी के दो साल बाद ही सेक्स का चार्म या एक्साइटमेंट बहुत हद तक कम हो जाता है। कुछ मुआमलों में मुमकिन है ये अवधि कुछ आगे पीछे हो जाए, लेकिन ऐसा होता ज़रूर है। लोग कहते हैं कि जीवन सिर्फ़ सेक्स में नहीं है। इंसान को दुनिया में और भी काम हैं, और भी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करनी हैं। तो सवाल ये है कि इस समस्या का कोई परमानेंट इलाज क्यों ढूँढा जाए, जबकि वो परमानेंट इलाज दो बरस के फ़ायदे के साथ हज़ारों तरह की लानतें भी अपने साथ लाता हो। शादी की पहली परेशानी तो ये है कि आज भी हमारे यहाँ बहुत से मर्द अपनी ख़ुशी से बहुत से बच्चे पैदा कर लेते हैं, औरतों की ऊँ, आँ को वैसे भी कौन गबरू ख़ातिर में लाता है। हर साल सर्दी एक नया तोहफ़ा दे जाती है और इंसान या ख़ास तौर पर औरत उसके चक्कर में बिलकुल अध-मरी और बे-जान हुई जाती है। लेकिन इसकी फ़िक्र किसी को नहीं है। बहुत से धर्म पैदा होने वाली औलादों को रोकने के साइंटिफ़िक तरीक़ों को बुरा अमल समझते हैं और ये सिर्फ़ इसलिए है क्यूंकि इंसान जितनी औलाद पैदा करेगा, उतना परेशान होगा और जितना परेशान होगा, उसे आत्मिक और मानसिक सुकून के लिए ख़ुदा या भगवान् के दर की ख़ाक छाननी पड़ेगी, जबकि इसका इलाज ख़ुद इंसान के हाथ में है। वो पैदा होने वाले बच्चों को कंडोम की मदद से रोक सकता है (मैं मानता हूँ कि कंडोम के न फटने की गारेंटी कोई कंपनी नहीं लेती, लेकिन कंडोम बहुत कम फटता है और अगर ऐसा न होता तो बहुत बड़ी बड़ी सेक्स इंडस्ट्रीज़ इसके बल बूते पर अपना काम काज आगे न बढ़ा रही होतीं) इसके अलावा भी बहुत से तरीक़े हैं, जिनमें से अब कई तरीक़े पढ़े लिखे या न्यूक्लिअर परिवारों में अपनाये भी जाते हैं।
शादी की दूसरी बड़ी लानत उसके साथ पैदा होने वाले ख़र्चे हैं। हालांकि आप ऐसे लोगों को हर रोज़ अपनी सोसाइटी में देखते होंगे जो दूसरों को बे-वजह ख़र्चों के कारण बुरा समझते होंगे। श्रद्धा और सबूरी के फ़ायदे गिनाते गिनाते उनकी दाढ़ियों के बाल तक सफ़ेद हो जाते हैं, लेकिन दाढ़ी वाला आदमी या बुर्क़ा पहनी हुई औरत ख़ुद भी हमेशा यही चाहेंगे कि उनके बेटे या बेटी की शादी इज़्ज़त से हो। अब इस इज़्ज़त का मुआमला ये है कि कम से कम आज की महंगाई के दौर में आप इनविटेशन कार्ड छापेंगे, हॉल लेंगे या शामियाना लगवाएंगे, खाना खिलवाएंगे, गाड़ियों में रुख़सती करवाएंगे और न जाने क्या क्या कुछ। फिर उसके साथ अगर आप लड़की के माँ बाप हैं तो आपको अच्छे ख़ासे दहेज का सामान देना होगा और लड़के के माँ बाप हैं तो उसकी पढ़ाई लिखाई, रहन सहन, तमाम ख़र्चों की नुमाइश करनी होगी। शादी इस तरह से हमारे यहाँ एक इंडस्ट्री बन गई है। अख़बार, टीवी, वेबसाइट्स, मोबाइल आप्लिकेशंज़, एजंसियाँ और इसी का कारोबार करने वाली औरतें। ये सब के सब आपके घरों में तब तक धरना दिए बैठे रहते हैं, जब तक आपकी कहीं शादी करवा के आपको किसी ठोर ठिकाने से न लगा दें।
शादी की तीसरी लानत इंसान का अपनी बिरादरी, परिवार के मन-पसंद लोगों, आर्थिक फ़ायदा हासिल के मुआमले तक सीमित हो जाना है। मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूँ जो बहुत देख कर, समझ कर शादी करते हैं कि कहाँ उनका भविष्य ज़्यादा बेहतर होगा। किसके साथ वो अपनी ज़िन्दगी की आर्थिक समस्याओं को हल करने में जल्दी सफल हो सकेंगे। ऐसे लोगों के लिए शादी फ़ायदे और नुक़सान का ऐसा सौदा है, जिसे वो चाह कर भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते और अगर आप अपने चारों ओर नज़र डालेंगे तो बहुत सी शादियाँ इन्ही शर्तों पर तय पाते हुए देखेंगे। अब ऐसी शादियों में मोहब्बत का ‘म’ भी शामिल होगा या हो सकता है, मुझे इसपर भरपूर शक है।
एक और परेशानी जो शादी ने पैदा की है, वो है तलाक़ और हरामी की शब्दावली की इजाद। जब आप शादी करेंगे तो ज़ाहिर है कि समाज ने जिस तरह के उसूल बना दिए हैं उन्ही को सामने रख कर करेंगे। कभी इज़्ज़त, कभी शोहरत, कभी पैसा और कभी सिर्फ़ और सिर्फ़ सेक्स को नज़र में रख कर की जाने वाली शादी कितने दिन तक अपने पाँव पर सीधी खड़ी रह सकती है। एक दिन जब इंसान जागता है तो उसे महसूस होता है कि उसने ख़ुद के साथ ग़लत किया है, और इसका नतीजा तलाक़ की शकल में निकलता है। फिर तलाक़-शुदा मर्द या औरत (मर्द कम, औरत ज़्यादा) के साथ एक मसला और खड़ा हो जाता है और वो ये कि उन्हें एक तरफ़ दूसरी बार यही काम करने में एक भय सा महसूस होता है, इसके अलावा समाज में उन्हें एक इम्पर्फेक्ट और घुन लगे हुए इंसान की सी हैसियत हासिल हो जाती है। दूसरी तरफ़ शादी को एक प्रामणित और इज़्ज़तदार इंसानी प्रथा के तौर पर क़ुबूल किये जाने का ये नुक़सान हुआ है कि आज़ाद शारीरिक रिश्तों से पैदा होने वाले बच्चों को हम ‘हरामी’ और ‘ना-जायज़’ के नाम से पुकारने लगते हैं। अजीब बात ये है कि जब दो लोग अपनी ख़ुशी, मोहब्बत और रज़ामंदी के साथ बग़ैर शादी के सेक्स करते हैं तो उनके बच्चे नाजायज़ हो जाते हैं और शादी के बाद चाहे वो कितनी ही बे दिली, मानसिक घुटन में ये अमल अंजाम दें, उनके बच्चे जायज़ कहलाते हैं। हालांकि हमारी नैतिकता के तय किये हुए ये उसूल सरासर खोखले और बेवकूफ़ाना हैं और अब हमें इनसे पीछा छुड़ाना चाहिए।
फिर आप मुझसे पूछेंगे कि ये तो हैं समस्याएँ, लेकिन क्या मेरे पास इनका कोई हल मौजूद है जो सोसाइटी को असंतुलित होने से बचाने और इंसान की कामुक इच्छाओं को कामयाबी और इज़्ज़त के साथ क़ुबूल करवाने का रास्ता निकाल सके। अव्वल तो हमें शादी के मुआमले पर ग़ौर करना चाहिए। मैं ये नहीं कहता कि शादी को बिलकुल ख़त्म कर दिया जाए। लेकिन शादी सिर्फ़ ऐसे दो लोगों की रज़ामंदी के साथ होनी चाहिए, जो एक दूसरे के साथ बग़ैर किसी दबाव या लालच के, एक साथ सारी ज़िन्दगी गुज़ारना चाहते हों। ऐसे रिश्तों में तलाक़ का एलिमेंट मुमकिन है कम हो और अगर न भी हो, तो तलाक़ को कोई बेहतर नाम दिया जाए और नई सामाजिक नैतिकता में उसे इंसान की मर्ज़ी और दो लोगों का आपसी फ़ैसला समझ कर उसकी इज़्ज़त की जाए। जो लोग ओपन रिलेशनशिप बनाना चाहते हों उनके बीच ये एग्रीमेंट हो कि वो एक दूसरे की सामाजिक, आर्थिक ज़िम्मेदारियाँ नहीं उठाएंगे और अगर ऐसा करेंगे तो सिर्फ़ अपनी ख़ुशी से, ये कोई परमानेंट ऑब्लिगेशन नहीं होगी। जहाँ तक बच्चों का सवाल है तो इसमें मर्द और औरत जिसकी भी ख़्वाहिश से बच्चा पैदा होगा, उसी पर बच्चे की बुनियादी ज़िम्मेदारी भी होगी ताकि वो ख़ुद को किसी लायक़ बना कर ही बच्चा पैदा करे। समाज में बच्चों के पैदा करने से रोकने वाले अहानिकारक रास्तों को प्रमोट किया जाए और उन्हें बालिग़ होते ही बच्चों के सिलेबस का हिस्सा बनाया जाए।
औरत को इस तरह आत्मनिर्भर होने के ज़्यादा मौक़े मिलेंगे। इतनी सारी शादियों की एजेंसीज़ खोल कर बैठने वालों को इस कारोबार की तरफ़ लगाया जा सकता है कि वो उन बच्चों की परवरिश करें, जिनकी ज़िम्मेदारी उठाने वाले किसी व्यक्ति की मौत हो गई हो और वो अभी अपनी ज़िम्मेदारी उठाने के क़ाबिल न हों। ये सारे काम गवर्नमेंट की निगरानी में हों और उनका विवरण किसी ऐसी संस्था की निगरानी में किसी वेबसाइट पर पेश किया जाए, जिसके मेम्बर ऐसे लोग हों जो इन मुआमलों की गहरी समझ रखते हों और समाज में एक साफ़ छवि भी रखते हों। ज़ाहिर है कि ये एक अस्थायी ज़िम्मेदारी है इसलिए उन लोगों में पत्रकार, लेखक, साइंटिस्ट, इंजीनियर, पॉलिटिशियन सभी प्रकार के लोगों को नियुक्त किया जा सकता है।
शादी के बग़ैर मिलने वाली सेक्स की इजाज़त आते ही सोसाइटी में शारीरिक रिश्तों के तअल्लुक़ से मौजूद एक तरह की ज़बरदस्ती का अहसास ख़त्म होगा। लोग इसपर ज़्यादा खुल कर बात कर सकेंगे। जब कोई समाज ये मानता होगा कि औरत भी ओपन रिलेशनशिप बना सकती है और उसके फ़ैसले की इज़्ज़त भी करता होगा तो किसी भी औरत को अपने रेप की रिपोर्ट करवाने में शर्म और झिझक महसूस न हुआ करेगी और लोगों के नज़दीक रेप की जाने वाली औरत की हैसियत एक घुन लगे हुए गेहूं के दाने जैसी नहीं होगी। मैं जानता हूँ कि इस मसले पर मेरी ये तहरीर एक शुरुआत है, जिस पर और विचार होना चाहिए। और दूसरी बहुत सी कमियों के साथ मेरे इस लेख और सुझावों पर भी आलोचना होनी चाहिए, ताकि हम एक सकारात्मक और सोचने समझने वाले समाज की दहलीज़ में क़दम रखने के लायक़ बन सकें।