वैसे तो मुझे स्टेशन जाकर लोगों को विदा देने का चलन नापसंद है, पर इस बार मुझे स्टेशन जाना पड़ा और मित्रों को विदा देनी पड़ी। इसके कई कारण थे। पहला तो यही कि वे मित्र थे। और, मित्रों के सामने सिद्धांत का प्रश्न उठाना ही बेकार होता है। दूसरे, वे आज निश्चय ही पहले दर्जे में सफ़र करने वाले थे, जिसके सामने खड़े होकर रूमाल हिलाना मुझे निहायत दिलचस्प हरकत जान पड़ती है।

इसलिए मैं स्टेशन पहुँचा। मित्र के और भी बहुत-से मित्र स्टेशन पर पहुँचे हुए थे। उनके विभाग के सब कर्मचारी भी वहीं मौजूद थे। प्लेटफ़ॉर्म पर अच्छी-ख़ासी रौनक़ थी। चारों ओर उत्साह फूटा-सा पड़ रहा था। अपने दफ़्तर में मित्र जैसे ठीक समय से पहुँचते थे, वैसे ही गाड़ी भी ठीक समय पर आ गई थी। अब उन्होंने स्वामिभक्त मातहतों के हाथों गले में मालाएँ पहनीं, सबसे हाथ मिलाया, सबसे दो-चार रस्मी बातें कहीं और फ़र्स्ट क्लास के डिब्बे के इतने नज़दीक खड़े हो गए कि गाड़ी छूटने का ख़तरा न रहे।

गाड़ी छूटने वाली थी। लोगों ने सिग्नल की ओर देखा। वह गिर चुका था।

अब चूँकि कुछ और करना बाक़ी न था इसलिए उन्होंने उन लोगों में से एक आदमी से बातें करनी शुरू कीं जो ऊपरी मन से हर काम के आदमी को दावत के लिए बुलाते हैं और जिनकी दावतों को हर आदमी ऊपरी मन से हँसकर टाल दिया करता है। हमारे मित्र भी उनकी दावत टाल चुके थे। इसलिए वे कहने लगे, “इस बार आऊँगा तो आपके यहाँ रुकूँगा।”

वे हँसने लगे। कहने लगे, “आप ही का घर है। आने की सूचना भेज दीजिएगा। मोटर लेकर स्टेशन आ जाएँगे।” तब मित्र ने कहा कि मोटर की क्या ज़रूरत है। तब वे बोले कि वाह साहब, मोटर आप ही की है, इसमें तकल्लुफ़ की क्या ज़रूरत है। तब मित्र बोले कि तकल्लुफ़ घर वालों से तो किया नहीं जाता। तब वे बोले—जाइए साहब, ऐसा ही घर वाला मानते तो आप बिना एक शाम हमारे ग़रीबख़ाने पर रूखा-सूखा खाए यों ही न निकल जाते। तब मित्र ने कहा कि ऐसी क्या बात है; आप ही का खाता हूँ। तब वे हें-हें करने लगे। तभी गाड़ी ने सीटी दे दी और लोग आशापूर्वक सिग्नल की ओर झाँकने लगे।

मैंने इस बातचीत में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी क्योंकि मित्र को हमेशा मेरे ही यहाँ आकर रुकना था और हम दोनों इस बात को जानते थे।

ठीक वैसे ही जैसे मित्र दफ़्तर में आते तो समय से थे पर जाने में हमेशा कुछ देर कर देते थे, वैसे ही समय हो जाने पर भी गाड़ी ने सीटी तो दे दी पर चली नहीं। इसलिए फिर रुक-रुककर इन विषयों पर बातें होने लगीं कि मित्र को पहुँचते ही सबको चिठ्ठी लिखनी चाहिए और उस शहर में अमरूद अच्छे मिलते हैं और साहब, आइएगा तो अमरूद ज़रूर लाइएगा। तब पुराने नौकर ने बताया कि नाश्तेदान को बिस्तर के पीछे रख दिया है। तभी पुराने हेड क्लर्क बोले कि बिस्तर का सिरहाना उधर के बजाय इधर होता तो अच्छा होता क्योंकि उधर कोयला उड़कर आएगा। तब हेड क्लर्क बोले कि नहीं, कोयला उधर नहीं आएगा बल्कि उधर से सीनरी अच्छी दिखेगी। तभी कैशियर बाबू आ गए। उन्होंने मित्र को दस रुपए की रेज़गारी दे दी। तब मित्र ने खुलेआम उनके कंधे को थपथपाया और खुले गले से उन्हें धन्यवाद दिया।

पर इस सबसे न तो कुछ होना था, न हुआ। लोग महीना-भर से जानते थे कि मित्र को जाना है। इसलिए मतलब की सभी बातें पहले ही अकेले में ख़त्म हो चुकी थीं और सबके सामने वे सभी बातें की जा चुकी थीं जो सबके सामने कही जाती हैं। सामान रखा जा चुका था, टिकट ख़रीदा ही जा चुका था। मालाएँ डाली ही जा चुकी थीं। हाथ या गले या दोनों मिल ही चुके थे और गाड़ी चलने का नाम तक न लेती थी। थियेटर में जब हीरो पर वार करने के लिए विलेन ख़ंजर तानकर तिरछा खड़ा हो जाता है, उस वक़्त परदे की डो‌री अटक जाए तो सोचिए क्या होगा? कुछ वैसी ही हालत थी। परदा नहीं गिर रहा था।

चूँकि मेरे पास करने को कोई बात नहीं रह गई थी इसलिए मैं मित्र से कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया और किसी ऐसे आदमी की तलाश करने लगा जो बराबर बात कर सकता हो। जो ऐसा आदमी नज़र में आया, उसे मित्र की ओर ठेल भी दिया। उसने अपनी हमेशा वाली मुस्कान दिखाते हुए कहा, “आपके जाने से यहाँ का क्लब सूना हो जाएगा।”

मित्र ने हँसकर इस तारीफ़ से इंकार किया।

उसने कहा, “पहले ब्राउन साहब के ज़माने में टेनिस इसी तरह चली थी, पर अब देखिए क्या होता है।”

मित्र बोले, “होता क्या है? आप चलाइए।”

तभी वे एकदम नाराज़ हो गए। तुनककर बोले, “मैं क्या चला सकता हूँ जनाब, मुझे तो ये लड़के क्लब का सेक्रेटरी ही नहीं होने देना चाहते। अब कोई टिकियाचोर सेक्रेटरी हो तभी टेनिस चलेगी। मुझे तो ये निकालने पर आमादा हैं।”

बोलते-बोलते वे अकड़कर खड़े हो गए। मित्र ने हँसकर इस विषय को टाला। उसके बाद इनकी बातों का भी दिवाला पिट गया और बात आई-गई हो गई। पर गाड़ी नहीं चली।

मित्र कुछ देर तक बेचैनी से सिग्नल की ओर देखते रहे। कुछ लोग प्लेटफ़ॉर्म पर इधर-उधर टहलकर पान सिगरेट के इंतज़ाम में लग गए। कुछ को अंतरराष्ट्रीय समस्याओं ने इस क़दर बेज़ार किया कि वे पास के बुकस्टॉल पर अख़बार उलटने लगे। कुछ के मन में कला, कौशल और ग्रामोद्योगों के प्रति एकदम से प्रेम उत्पन्न हो गया। वे पास की एक दुकान पर जाकर हैंडिक्राफ़्ट के कुछ नमूने देखने लगे। तब एक पुराना स्थानीय नौकर मित्र के हाथ लग गया। उसे देखते ही अचानक मित्र के मन में समाज की समाजवादी व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा हो गया। वे हँसकर उसकी प्रशंसा करने लगे। तब वह रोकर अपनी पारिवारिक विपत्तियाँ सुनाने लगा। अब मित्र बड़े करुणाजनक भाव से उसकी बातें सुनने लगे। तब कुछ टिकट-चेकर तेज़ी से आए और सामने से निकल गए। मित्र ने उनकी ओर देखा, पर जब तक वे कुछ बात करने की बात तय करें कि वे आगे निकल गए। तब तक एक लम्बा-सा गार्ड सीटी बजाता हुआ निकला। हेड क्लर्क ने कहा, “सुनिए साहब”, पर यह उसने अनसुना कर दिया और सीटी बजाता हुआ आगे बढ़ गया। पर गाड़ी फिर भी नहीं चली।

कुछ को पारिस्थिति पर दया आयी और वे मित्र के पास सिमट आए। पर घूम-घूमकर कई लोगों ने कई छोटे-छोटे गुट बना लिए और कला के लिए जैसे कला—वैसे बात के लिए बातें चल निकलीं। एक साहब की निगाह मित्र की फूल-मालाओं पर गई। उनको उसी से प्रेरणा मिली। बोले, “गेंदे के फूल भी क्या कमाल पैदा करते हैं, असली फूल-मालाएँ तो गेंदे के फूलों की ही बनती हैं।”

बातचीत की सड़ियल मोटर एक बार जब धक्का खाकर स्टार्ट हो गई तो उसकी फटफटाहट का फिर क्या पूछ्ना! दूसरे महाशय, ने कहा, “इंडिया में अभी तो जैसे हम बैलगाड़ी के लेवल से ऊपर नहीं उठे, वैसे ही फूलों के मामले में गेंदे से ऊपर नहीं उभर पाए। गाड़ियों में बैलगाड़ी, मिठाइयों में पेड़ा, फूलों में गेंदा, लीजिए जनाब, यही है आपका इंडियन कल्चर!”

इसके जवाब में एक-दूसरे साहब ने भीड़ के दूसरे कोने से चीख़कर कहा, “अँग्रेज़ चला गया पर अपनी औलाद छोड़ गया।”

इधर से उन्होंने कहा, “जी हाँ, आप जैसा हिंदुस्तानी रह गया पर दिमाग़ बह गया।”

इतना कहकर, जवाब में आनेवाली बात का वार बचाने के लिए वे फिर मित्र की ओर मुख़ातिब हुए और कहने लगे, “बताइए साहब, गुलाब की वो-वो वैरायटी निकाली है कि…।”

तभी गार्ड ने फिर सीटी दी और वे चौंककर इंजिन की ओर देखने लगे। इंजिन एक नए ढंग से सी-सी करने लगा था। कुछ सेकंड तक यह आवाज़ चलती रही, पर उसके बाद फिर पहले वाली हालत पर आ गई, ठीक वैसे ही, जैसे दफ़्तर छोड़ने के पहले मित्र कभी-कभी कुर्सी से उठकर भी कोई नया काग़ज़ देखते ही फिर से बैठ जाते थे। तब उस पुष्प प्रेमी ने अपना व्याख्यान फिर से शुरू किया, “हाँ साहब, तो अंग्रेज़ों ने गुलाब की वो-वो वैरायटी निकाली है कि कमाल हासिल है! सन बर्स्ट, पिंक पर्ल, लेडी हैलिंग्टन, ब्लैक प्रिंस, वाह, कमाल हासिल है! और अपने यहाँ? यहाँ तो जनाब वही पुराना टुइयाँ गुलाब लीजिए और ख़ुशबू का नगाड़ा बजाइए।”

बात यहीं पर थी कि इस बार गार्ड ने सीटी दी। बहस थम गई। पर कुछ देर गाड़ी में कोई हरकत नहीं हुई। इसलिए वे दूसरे महाशय भी भीड़ को फाड़कर सामने आ गए। अकड़कर बोले, “हाँ साहब, ज़रा फिर से तो चालू कीजिए वही पहले का दिमाग़ वाला मज़मून। मेरा तो भई, दिमाग़ हिंदुस्तानी ही है, पर आइए, आपके दिमाग़ को भी देख लें।”

तब मित्र महोदय बड़े ज़ोर से हँसे और बोले, “हातिम भाई और सक्सेना साहब में यह हमेशा ही चला करता है। याद रहेंगे, साहब, ये झगड़े भी याद रहेंगे।”

इस तरह यह बात भी ख़त्म हुई, झगड़े को मजबूरन मैदान छोड़ना पड़ा। उधर सिग्नल गिरा हुआ था। इंजिन फिर से ‘सी-सी’ करने लगा था। पर गाड़ी अंगद के पाँव-सी अपनी जगह टिकी थी।

भीड़ के पिछले हिस्से में दर्शन-शास्त्र के एक प्रोफ़ेसर धीरे-धीरे किसी मित्र को समझा रहे थे, “जनाब, ज़िन्दगी में तीन बटे चार तो दबाव है, कोएर्शन को बोलबाला है, बाक़ी एक बटे चार अपनी तबीयत की ज़िन्दगी है। देखिए न, मेरा काम तो एक तख़्त से चल जाता है, फिर भी दूसरों के लिए ड्राइंग-रूम में सोफ़े डालने पड़ते हैं। तन ढाँकने को एक धोती बहुत काफ़ी है, पर देखिए, बाहर जाने के लिए यह सूट पहनना पड़ता है। यही कोएर्शन है। यही ज़िन्दगी है। स्वाद ख़राब होने पर भी दूध छोड़कर कॉफ़ी पीता हूँ, जासूसी उपन्यास पढ़ने का मन करता है पर कांट और हीगेल पढ़ता हूँ, और जनाब गठिया का मरीज़ हूँ, पर मित्रों के लिए स्टेशन आकर घंटों खड़ा रहता हूँ।”

वे और उनके श्रोता—दोनों रहस्यपूर्ण ढंग से हँसने लगे और फिर मुझे अपने नज़दीक खड़ा पाकर ज़ोर से खुलकर हँसने लगे ताकि मुझे उनकी निश्छलता पर संदेह न हो सके।

गाड़ी फिर भी नहीं चली।

अब भीड़ तितर-बितर होने लगी थी और मित्र के मुँह पर एक ऐसी दयनीय मुस्कान आ गई थी जो अपने लड़कों से झूठ बोलते समय, अपनी बीवी से चुराकर सिनेमा देखते समय या वोट माँगने में भविष्य के वादे करते समय हमारे मुँह पर आ जाती होगी। लगता था कि वे मुस्कुराना तो चाहते हैं पर किसी से आँख नहीं मिलाना चाहते।

तभी अचानक गार्ड ने सीटी दी। झंडी हिलायी। इंजिन का भोंपू बजा और गाड़ी चलने को हुई। लोगों ने मित्र से उत्साहपूर्वक हाथ मिलाए। फिर मित्र ही डिब्बे में पहुँचकर लोगों से हाथ मिलाने लगे। कुछ लोग रूमाल हिलाने लगे। मैं इसी दृश्य के लिए बैचैन हो रहा था। मैंने भी रूमाल निकालना चाहा, पर रूमाल सदा की भाँति घर पर ही छूट गया था। मैं हाथ हिलाने लगा।

एक साहब वज़न लेनेवाली मशीन पर बड़ी देर से अपना वज़न ले रहे थे और दूसरों का वज़न लेना देख रहे थे। गार्ड की सीटी सुनते ही वे दौड़कर आए और भीड़ को चीरते हुए मित्र तक पहुँचे। गाड़ी के चलते-चलते उन्होंने उत्साह से हाथ मिलाया। फिर गाड़ी को निश्चित रूप से चलती हुई पाकर हसरत से साथ बोले, “काश कि यह गाड़ी यहीं रह जाती।”

Book by Srilal Shukla:

श्रीलाल शुक्ल
श्रीलाल शुक्ल (31 दिसम्बर 1925 - 28 अक्टूबर 2011) हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार थे। वह समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये विख्यात थे। स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत दर परत उघाड़ने वाले उपन्यास 'राग दरबारी' (1968) के लिये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके इस उपन्यास पर एक दूरदर्शन-धारावाहिक का निर्माण भी हुआ। श्री शुक्ल को भारत सरकार ने 2008 में पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया है।