‘Angrezi Shikshika’, a poem by Prem Prakash

मेरी अंग्रेज़ी मेरे ख़िलाफ़ जा रही है
मुझे जो हिन्दी याद नहीं
वो अब याद आ रही है
मैं अंग्रेज़ी की लिखावट में
नहीं लिख सकती अपना गाँव
यादों में तरोताज़ा सहेलियों की चुहल
शादी से पहले अलग बुलाकर कही
भाभी की वो गुदगुदा देने वाली बात

हिन्दी वैसी है
जैसे मैं बाँधती हूँ अपने केश
एक ही हेयर बैंड को दोहरा-तिहरा कर
मेरी साड़ी भी मेरी हिन्दी की तरह है
साड़ी कोई हो मुझे सिंदूरी लगती है
जब भी देखा छूकर पहनकर

मैंने अंग्रेज़ी शौक से पढ़ी है
अच्छे अंक आए हैं इसमें
हिन्दी में बिंदी गलत नहीं लगनी चाहिए
स्कूल में यह सीख नाकाम रही
आज अपनी बेटी को दुलारते हुए
स्कूल की पोशाक पहनाते हुए
ख़ूब आयी याद
झूलते हलंत और बिंदी की बात

हिन्दी मुझे अपने छोटे से शहर के जंगल में
निर्भीक साइकल पर घूमने की हिम्मत देती है
जहाँ जानवर भी करते हैं हिन्दी में बात
जहाँ नो एंट्री जैसा कोई डरावना साइनबोर्ड नहीं
न ही किसी हाथ में एसिड की बोतल है

मैं अंग्रेज़ी की शिक्षिका हूँ
साफ-सुथरी अंग्रेज़ी पर पूरे अंक देती हूँ बच्चों को
पर मेरा स्त्री मन
मेरी सोच मेरा रहन
सब हिन्दी वर्णमाला है
इससे क़ीमती मेरे पास बहुत कुछ है
पर इससे ज़रूरी कुछ भी नहीं
क्योंकि अंग्रेज़ी में मुझे संझा-बाती नहीं आती
मैं नहीं गा सकती अंग्रेज़ी में आरती!

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