बहुत देख लिया
नून-तेल, आटा-दाल
बटलोई-कड़छुलवाली
रसोईघर की खिड़की से
बादल का छूटता
कोना
यह सोफ़ा कुर्सियाँ मेज़ पलंग फूलदान
उधर धर दो
कैलेण्डर में सुबह-शाम बंधे
गलियारे में पूरब-पश्चिम क़ैद
उस कोने में वह स्नान कोठरी
घिरा बरामदा इधर हटाकर
तारों का क़द छूती
पहाड़ों की ये चोटियाँ
इस खिड़की पर गिरते
झरने की धारा
यहाँ टिका दो!
चन्द्र ज्योत्स्ना पीकर उफनाया
समुद्र टँगेगा
हवाओं में धुलती-बदलती ऋतुएँ
जंगलों की बनघास की सुगन्ध
आकाशगंगा में नहाए
ग्रह-उपग्रह नक्षत्र नीहारिकाएँ
करवट बदलने को करतीं विवश
ये इस तरह रख दो
इस आले और उस तख़्ते पर
बीच दहलीज़
पश्चिम के दरवाजे़ और पूरब के चौरे पर
तुम्हारी व्यवस्था में
अपनी धरती पर बिछाना है मुझे
उत्तरी ध्रुव तक फैला
नीले झूमर-सा झिलमिलाता
आकाश…!