मैं अपने को खाते हुए देखना चाहता हूँ
किस जानवर या परिन्दे की तरह खाता हूँ मैं
मिट्ठू जैसे हरी मिर्च कुतरता है
या बन्दर गड़ाता है भुट्टे पर दाँत
या साँड़ जैसे मुँह मारता है छबड़े पर
मैं अपने को सोए हुए देखना चाहता हूँ
माँद में रीछ की तरह
मछली पानी में सोती होती जैसे
मैं धुँध में सोया हुआ हूँ
हँस रहा हूँ नींद में
मैं सपने में पतंग उड़ाते बच्चे की तरह सोया
अपने को देखना चाहता हूँ
मैं अपने को गिरते हुए देखना चाहता हूँ
जैसे खाई में गिरती है आवाज़
जैसे पंख धरती पर
जैसे सेंटर फ़ॉरवर्ड गिर जाता है हॉकी समेत
ऐन गोल के सामने
मैं गिरकर दुनिया-भर से माफ़ी माँगने की तरह
अपने को गिरते हुए देखना चाहता हूँ
मैं अपने को लड़ते हुए देखना चाहता हूँ
नेक और कमज़ोर आदमी जिस तरह एक दिन
चाक़ू खुपस ही देता है फ़रेबी मालिक के सीने में
जैसे बेटा माँ से लड़ता है
और छिपकर ज़ार-ज़ार आँसू बहाता है
जैसे अपनी प्रियतम से लड़ते हैं
और फिर से लड़ते हैं प्रेम बनाने के लिए
मैं अपने को साँप से लड़ते नेवले की तरह
लड़ते हुए देखना चाहता हूँ
मैं अपने को डूबते हुए देखना चाहता हूँ
पानी की सतह के ऊपर बचे सिर्फ़ अपने दोनों हाथों के
इशारों से तट पर बैठे मज़े में सुनना चाहता हूँ
मुझे मत बचाओ
कोई मुझे मत बचाओ
आते हुए अपने को देखना सम्भव नहीं था
मैं अपने को जाते हुए देखना चाहता हूँ
जैसे कोई सुई की आँख से देखे कबूतर की अन्तिम उड़ान
और कहे अब नहीं है अदृश्य हो गया कबूतर
पर हाँ दिखायी दे रही है उड़ान
मैं अपनी इस बची उड़ान की छाया को देखते हुए
अपने को देखना चाहता हूँ।
***
चन्द्रकान्त देवताले की कविता 'एक सपना यह भी'