एक देश है! गणतंत्र है! समस्याओं को इस देश में झाड़-फूँक, टोना-टोटका से हल किया जाता है! गणतंत्र जब कुछ चरमराने लगता है, तो गुनिया बताते हैं कि राष्ट्रपति की बग्घी के कील-काँटे में कुछ गड़बड़ आ गई है। राष्ट्रपति की बग्घी की मरम्मत कर दी जाती है और गणतंत्र ठीक चलने लगता है। सारी समस्याएँ मुहावरों और अपीलों से सुलझ जाती हैं। साम्प्रदायिकता की समस्या को इस नारे से हल कर लिया गया—हिंदू-मुस्लिम, भाई-भाई!

एक दिन कुछ लोग प्रधानमंत्री के पास यह शिकायत करने गए कि चीज़ों की क़ीमतें बहुत बढ़ गई हैं। प्रधानमंत्री उस समय गाय के गोबर से कुछ प्रयोग कर रहे थे, वे स्वमूत्र और गाय के गोबर से देश की समस्याओं को हल करने में लगे थे। उन्होंने लोगों की बात सुनी, चिढ़कर कहा—आप लोगों को क़ीमतों की पड़ी है! देख नहीं रहे हो, मैं कितने बड़े काम में लगा हूँ। मैं गोबर में से नैतिक शक्ति पैदा कर रहा हूँ। जैसे गोबर गैस वैसे ‘गोबर नैतिकता’। इस नैतिकता के प्रकट होते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। तीस साल के कांग्रेसी शासन ने देश की नैतिकता ख़त्म कर दी है। एक मुँहफट आदमी ने कहा—इन तीस में से बाइस साल आप भी कांग्रेस के मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री रहे हैं, तो तीन-चौथाई नैतिकता तो आपने ही ख़त्म की होगी! प्रधानमंत्री ने ग़ुस्से से कहा—बको मत, तुम क़ीमतें घटवाने आए हो न! मैं व्यापारियों से अपील कर दूँगा। एक ने कहा—साहब, कुछ प्रशासकीय क़दम नहीं उठाएँगे? दूसरे ने कहा—साहब, कुछ अर्थशास्त्र के भी नियम होते हैं। प्रधानमंत्री ने कहा—मेरा विश्वास न अर्थशास्त्र में है, न प्रशासकीय कार्यवाही में, यह गांधी का देश है, यहाँ हृदय परिवर्तन से काम होता है। मैं अपील से उनके दिलों में लोभ की जगह त्याग फ़िट कर दूँगा। मैं सर्जरी भी जानता हूँ।

रेडियो से प्रधानमंत्री ने व्यापारियों से अपील कर दी—व्यापारियों को नैतिकता का पालन करना चाहिए। उन्हें अपने हृदय में मानवीयता को जगाना चाहिए। इस देश में बहुत ग़रीब लोग हैं। उन पर दया करनी चाहिए।

अपील से जादू हो गया। दूसरे दिन शहर के बड़े बाज़ार में बड़े-बड़े बैनर लगे थे—व्यापारी नैतिकता का पालन करेंगे। मानवता हमारा सिद्धांत है। क़ीमतें एकदम घटा दी गई हैं। जगह-जगह व्यापारी नारे लगा रहे थे—नैतिकता! मानवीयता! वे इतने ज़ोर से और आक्रामक ढंग से ये नारे लगा रहे थे कि लगता था, चिल्ला रहे हैं—हरामज़ादे! सूअर के बच्चे!

गल्ले की दुकान पर तख़्ती लगी थी—गेहूँ सौ रुपए क्विण्टल! ग्राहक ने आँखें मल, फिर पढ़ा। फिर आँखें मलीं फिर पढ़ा। वह आँखें मलता जाता। उसकी आँखें सूज गईं, तब उसे भरोसा हुआ कि यही लिखा है। उसने दुकानदार से कहा—क्या गेहूँ सौ रुपए क्विण्टल कर दिया? परसों तक दो सौ रुपए था। सेठ ने कहा—हाँ, अब सौ रुपए के भाव देंगे। ग्राहक ने कहा—ऐसा ग़ज़ब मत कीजिए। आपके बच्चे भूखे मर जाएँगे। सेठ ने कहा—चाहे जो हो जाए, मैं अपना और परिवार का बलिदान कर दूँगा, पर क़ीमत नहीं बढ़ाऊँगा। नैतिकता, मानवीयता का तक़ाज़ा है। ग्राहक गिड़गिड़ाने लगा—सेठजी, मेरी लाज रख लो। दो सौ पर ही दो। मैं पत्नी से दो सौ के हिसाब से लेकर आया हूँ, सौ के भाव से ले जाऊँगा, तो वह समझेगी कि मैंने पैसे उड़ा दिए और गेहूँ चुराकर लाया हूँ। सेठ ने कहा—मैं किसी भी तरह सौ से ऊपर नहीं बढ़ाऊँगा। लेना हो तो लो, वरना भूखों मरो।

दूसरा ग्राहक आया। वह अक्खड़ था। उसने कहा—ऐ सेठ, यह क्या अंधेर मचा रखा है, भाव बढ़ाओ वरना ठीक कर दिए जाओगे। सेठ ने जवाब दिया—मैं धमकी से डरने वाला नहीं हूँ। तुम मुझे काट डालो; पर मैं भाव नहीं बढ़ाऊँगा। नैतिकता, मानवीयता भी कोई चीज़ है।

एक ग़रीब आदमी झोला लिए दुकान के सामने खड़ा था। दुकानदार आया और उसे गले लगाने लगा। ग़रीब आदमी डर से चिल्लाया—अरे, मार डाला! बचाओ! बचाओ! सेठ ने कहा—तू इतना डरता क्यों है? ग़रीब ने कहा—तुम मुझे दबोच जो रहे हो! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? सेठ ने कहा—अरे भाई, मैं तो तुझसे प्यार कर रहा हूँ। प्रधानमंत्री ने मानवीयता की अपील की है न!

एक दुकान पर ढेर सारे चाय के पैकेट रखे थे। दुकान के सामने लगी भीड़ चिल्ला रही थी—चाय को छिपाओ। हमें इतनी खुली चाय देखने की आदत नहीं है। हमारी आँखें ख़राब हो जाएँगी। उधर से सेठ चिल्लाया—मैं नैतिकता में विश्वास करता हूँ। चाय खुली बेचूँगा और सस्ती बेचूँगा। काला बाज़ार बंद हो गया है।

एक मध्यमवर्गीय आदमी बाज़ार से निकला। एक दुकानदार ने उसका हाथ पकड़ लिया। उस आदमी ने कहा—सेठजी, इस तरह बाज़ार में बेइज़्ज़त क्यों करते हो! मैंने कह तो दिया कि दस तारीख़ को आपकी उधारी चुका दूँगा। सेठ ने कहा—अरे भैया, पैसे कौन माँगता है? जब मर्ज़ी हो, दे देना। चलो, दुकान पर चलो। कुछ शक्कर लेते जाओ। दो रुपए किलो।

हरिशंकर परसाई का व्यंग्य 'भोलाराम का जीव'

Book by Harishankar Parsai:

हरिशंकर परसाई
हरिशंकर परसाई (22 अगस्त, 1924 - 10 अगस्त, 1995) हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंगकार थे। उनका जन्म जमानी, होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में हुआ था। वे हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के–फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा।