इस बार उन्हें नहीं था मोह
स्वर्ण-मृग का
फिर भी खींची गई थीं लक्ष्मण रेखाएँ
वे पढ़ीं, आगे बढ़ीं
लक्ष्मण रेखाएँ लाँघकर
रावण से जा भिड़ीं
गूँजते आए थे स्वर
नेपथ्य से निरर्थक
पुकारते हुए उन्हें
बाँझ, रांड, फ़लानी, ढिकानी…
इस बार सुनायी दिया एक स्वर
फड़फड़ाता कड़क
ओह, उसे नेत्री माना था उन्होंने!
“क्यों हो इतना बजबजाती
फ़र्श पर जा पड़ोगी खनखनाती
अठन्नी, चवन्नी-सी
बाज़ार में कोई पूछ नहीं तुम्हारी
जाओ अपनी गुल्लकों में
रहती आओ चुहिया-सी
दुबकी सहमी खंदकों में…”
हतप्रभ उस व्यक्ति विशेष पर
पहले पहल उनकी आँखें भर आयीं
फिर आँसू पोंछ वे खिलखिलायीं
इस तरह झड़कारकर धूल
हँस पड़ना अगले ही पल
सीखा था उन्होंने
पुष्परूपी अवरोधों से ठोकर खाकर
अठन्नी से बेहतर उन्होंने
चवन्नी कहलाना स्वीकार किया
अब वे मिलती हैं परस्पर और हैं पूछतीं—
“हम इकन्नी घोषित होने कब जा रही हैं?”
इन दिनों वे मशग़ूल हैं जानने में
मुद्रा की लघु, अति-लघु मात्राओं के नाम
जो प्रचलित रही होंगी जीवनकाल में
उनकी दादी-परदादी, नानी-परनानी के
और मुद्रा की उन मात्राओं के लिए
जीवन भर खटती रही होंगी उनकी पूर्वजाएँ
अठन्नी, चवन्नी, दुअन्नी, इकन्नी, कौड़ी….
उद्देश्य की पवित्रता की क़ीमत आँकने का
यह व्युत्क्रमानुपात का युग है
और वे गिरती हुई परिभाषाओं के बहाने
उड़ती जाना जानती हैं।
देवेश पथ सारिया की कविता 'साइकिल सवार'