कितनी सुलझी तो होती है औरतें

कभी देखा है तुमने बाहर भीड़ भाड़,
सफर वाले इलाके में लड़ते हुए उसे
सवाल जवाब का सिलसिला भी नहीं जानती
नहीं आता कैसे किसी अनजान से पूछे
उसका हाल, बेहाल कोई तीसरा सवाल

बस मौन सफ़र में हक़ से पैर चढ़ा कर
बैठ जाती है ट्रैन के पूरे सीट पर
जहाँ वैसे चार लोग बैठ जाते
अब बैठ पाते है सिर्फ़ तीन।
कुछ देर सख्त होकर
लपक कर भर लेती है गोद में
एक सामने किसी दूसरे औरत के बच्चे को
फिर सीखाने लगती है उस नए लड़की को
माँ बनने के तरीके जो कल ही माँ बनी है

बहुत कुछ बता तो देती है
जैसे नमक के कम होने पर भी
घर में बनाई जा सकती है
स्वादानुसार सब्जियाँ।
उनके आँसू मोटे होते हैं
जिसमें कैद है समंदर के जितना नमक

वो बिना मतलब ही बताती है
सफ़र में चुपके से पेटीकोट को
कस कर बांधना
दिख रहे उजली पट्टी को
घूरते मर्द से बचाना
इतना सब और फिर स्त्री को
बताना स्त्री होकर रहना।

मातृत्व इतना है बेटा जवान हो गया है
छाती से दूध सदियों पहले सूख चूका है
पर नई माँ के रोते हुए नए बच्चे को
रोता देखकर लगा लेती है
अपनी छाती से
फिर हज़ार इलज़ाम मढ़ जाती है
फैशन, सिनेमा और जाने किन किन पर
बताती है कहानी अपनी अभागी बेटी की।

उन्हें नहीं पड़ता फ़र्क किसी के मोटे पतले
होने का ज़रा सा भी कहीं से भी
उसे परवाह होती है किसी के शुगर के
बढ़ने पर खूब ज़्यादा।
उसके पर्स से गायब हो चुकी होती है
हौसले, उड़ानें, नसीब, उम्मीद व
चूड़ी, लिपस्टिक, गहना और काजल
बस बचा पाती है एक फेयर लवली की ट्यूब
दुनिया के सामने झुलसने वाले चेहरे को
छुपाने के लिए।

कितनी सुलझी तो होती है औरतें!

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