औरत, औरत होती है,
उसका न कोई धर्म
न कोई जात होती है,
वह सुबह से शाम खटती है,
घर में मर्द से पिटती है
सड़क पर शोहदों से छिड़ती है।

औरत एक बिरादरी है
वह स्वयं सर्वहारा है
स्त्री वर्ग-लिंग के कारण
दबायी और सतायी जाती है।

एक-सी प्रसव पीड़ा झेलती है।
उनके हृदय में एक-सा वात्सल्य
ममता-स्रोत फूटते हैं,
औरत तो औरत है
सबके सुख-दुःख एक हैं।

औरत, औरत होने में
जुदा-जुदा फ़र्क़ नहीं क्या?
एक भंगी तो दूसरी बामणी
एक डोम तो दूसरी ठकुरानी
दोनों सुबह से शाम खटती हैं
बेशक, एक दिन भर खेत में
दूसरी घर की चहारदीवारी में
शाम को एक सोती है बिस्तर पे
तो दूसरी काँटों पर।

छेड़ी जाती हैं दोनों ही बेशक
एक कार में, सिनेमा हॉल और सड़कों पर
दूसरी खेतों, मोहल्लों में, खदानों में

सब औरतें सर्वहारा हैं संस्कृति में?
एक सतायी जाती है स्त्री होने के कारण,
दूसरी सतायी जाती है स्त्री और दलित होने पर
एक तड़पती है सम्मान के लिए
दूसरी तिरस्कृत है भूख और अपमान से।

प्रसव-पीड़ा झेलते फिर भी एक-सी
जन्मती है एक नाले के किनारे
दूसरी अस्पताल में,
एक पायलट है
तो दूसरी शिक्षा से वंचित है,
एक सत्ताहीन है,
दूसरी निर्वस्त्र घुमायी जाती है।

औरत नहीं मात्र एक जज़्बात
हर समाज का हिस्सा,
बँटी वह भी जातियों में
धर्म की अनुयायी है

औरत, औरत में भी अन्तर है।

रजनी तिलक की कविता 'प्यार'

Book by Rajni Tilak:

Previous articleसन्दिग्ध
Next articleलापता पूरी स्त्री

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here