तब नींव के कान खड़े हो जाते हैं
किसी हादसे की धमक से,
मिट्टी की गहराइयों में दूर तक
काँप-करक जाती है धरती,
जब
किसी औरत का क़द
पीपल-सा
घर की छत फोड़
मुण्डेर से छलाँग लगा लेना चाहता है
अन्तरिक्ष में

तब चौकस-चौबन्द हो उठते हैं
बुर्ज, मीनार, क़िले, कंगूरे
झाड़ी जाने लगती है धूल
उलटे जाने लगते हैं पन्ने
शास्त्रों-पुराणों विधि-विधानों
प्रमाणों-उदाहरणों के चलने लगते हैं
आरे
सान पर चढ़ते हैं रंदे-बसूले
रीति-रिवाजों, मर्यादाओं, परम्पराओं और वर्जनाओं के
खूँटे
ठोके जाने लगते हैं मज़बूती से
जब
औरत सूरज को अँजुरी-अँजुरी पीने को
अपनी टहनियाँ, फूल-पत्तियाँ
दरवाज़ों-खिड़कियों और चाहरदीवारी से
सरकाने लगती है
बाहर…!