अपराधी-सा
जब उन्हें पकड़ा गया
वो हमेशा की तरह अपने कामों में व्यस्त थे,
लहूलुहान जंगल और नदी के ज़ख़्मों पर मलहम लगा
फूलों को सुरक्षित करने के लिए
बाड़ बनाने के तरीक़े सिखा रहे थे
उन्होंने लिखी थीं
उजाले की कविताएँ
जो सियाह समय में फँसे मानव को ढाँढ़स देतीं
या तेज़ धूप में
नीम के दरख़्त की सी छाँव बनती
गिरने न देतीं
उनकी कविताएँ
क्रूरता के ख़िलाफ़ खड़े आदमी के पक्ष में बोलतीं
प्यार को ज़िन्दा रखने के लिए
खाद-पानी जुटातीं
तो कभी बच्चे को सुलाने के लिए
लोरी-सा गुनगुनातीं
बच्चे बेधड़क
अपनी फ़रमाइशों का पिटारा ले
चले आते उनके पास,
वो अपनी कविताओं से
सजा देते उनके लिए सतरंगा इंद्रधनुष
और जेबों में उनकी भर देते मूँगफली
उनकी कविताएँ
पुरस्कार बटोरते कवियों की कविताई से सर्वथा भिन्न
क्रांति का अमृत चखतीं,
मुक्ति के गीत गातीं,
और अन्ततः
क़ैदख़ानों में डाल दी जातीं
लाख कोशिशों के बाद भी
न कवि क़ैद होता
न उसकी कविता
स्याह ऊँची
क़ैदख़ानों की दीवारों को लाँघ
उजाले की कविता
फैल जाती आसमान से धरती तक
निर्बाध, स्वतंत्र—
कविता के साथ
लोग अपने प्यारे कवि को भी मुक्त देखते
तुम भी देखो
बुज़ुर्ग क्रांतिकारी कवि
गिरफ़्तार नहीं
युवा कवियों की कविता में आज़ाद है
आँधी बन खड़ा है तुम्हारे सामने
अब भी रच रहा है
कविता
कितनों को करोगे गिरफ़्तार
बनाओगे कितनी जेलें
उफ़्फ़… तुम कितने डरे हुए हो—
लिखने, बोलने, पूछने से
मुक्ति के गीतों से
हमारी निडरता से।
वरवर राव की कविता 'कवि'