शहर से दूर पटरियों के पास
कीकर-बबूलों के बीच में डेरे हैं उनके
यह एक सर्दियों की शाम थी जब हम मिले उनसे

जीव-जिनावर लौट रहे थे अपने-अपने दड़बों में
बच्चे खेल रहे थे आँगन में पिल्लों के साथ
बच्चियाँ बना रही थीं चूल्हे पर रोटी-साग
नीम की गीली लकड़ियाँ थीं
धुआँ दे रही थीं और जल रही थीं
तिड़कती हुई आवाज़ के साथ

कढ़ाई में रोटी सिक रही थी
जिसमें सब्ज़ी बनी थी कुछ देर पहले
हवा में फैली थी उसकी चिरपरी गंध

मैंने पूछा कि तवे क्यों नहीं लेते काम
वे बोलीं— “हम तो घुमन्तु हैं, साब!
कौन दस-दस बर्तन रखे पास!”
फिर पारसी भाषा में बात कर हँसने लगीं

होली-दिवाली आते हैं हम गाँव
फिर लगा जाते हैं कच्चे-पक्के डेरों के ताले
साल-छह महीने में सम्भालते हैं घर-बार
कोई मर भी जाता है तो नुक्ता दिवाली पे करते हैं
ताकि सब लोग आ सकें, शामिल हो सकें!

मैंने पूछा—पढ़ते क्यों नहीं तुम लोग?
पढ़कर भी नौकरी लगती नहीं है
बीए, एमए की हैं डेरे के कुछ बच्चों ने
पर कोई मतबल नहीं!
सो हम तो घूमते रहते हैं सालों-साल
आसाम, महाराष्ट्र, कश्मीर, नेपाल
अरुणाचल, पश्चिमी बंगाल भी जाते हैं
पन्द्रह दिन का परमिट बनवाते हैं
फुटपाथ पर सो जाते हैं
पुलिस परेशान भी करती है
पर क्या करें! यहाँ भी तो कोई धंधा नहीं है!

दो लोग तो उधर ही मर गया हमारा गुजरात में
साँप खा गया था उनको
फिर भी पेट की ख़ातिर बाहर जाना पड़ता है
घूमना ही हो गया अब तो हमारा सुभाव!

लॉकडाउन में गुवाहटी में फँस गए थे
आख़िरी ट्रेन भी निकल गई
बसें भी हो गई थीं बन्द
ट्रक में बैठे थे जयपुर आने के लिए
लाठीचार्ज कर दिया पुलिस ने
गोद में सो रहे बच्चे के पड़ गई लाठी उतरती-सी
दस महीने का ही था, मर गया!
जेसीबी से गढ्ढा खोदके गढ़वा दिया पुलिस ने
बच्चे के फूफा की मौजूदगी में
बाप क्वारन्टाइन था, छुट्टी नहीं मिली उसको

हमारे दादा-परदादा बैलों का सांटा-बेचा करते थे
वे गुजरात जाते थे, बैल ख़रीदते थे
और देश-भर मेलों में बेचते थे
इस मशीनी युग में बैलों को कौन पूछता है!
अब हम दिल्ली सदर बाज़ार से बैलून ख़रीदते हैं
और लालबत्ती, चौराहों पे बेचते हैं!

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विजय राही
विजय राही पेशे से सरकारी शिक्षक है। कुछ कविताएँ हंस, मधुमती, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, डेली न्यूज, राष्ट्रदूत में प्रकाशित। सम्मान- दैनिक भास्कर युवा प्रतिभा खोज प्रोत्साहन पुरस्कार-2018, क़लमकार द्वितीय राष्ट्रीय पुरस्कार (कविता श्रेणी)-2019

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