तुम मुझे हरी चुमकार से घेरकर
अपनी व्यवस्था की नाँद में
जिस भाषा के भूसे की सानी डाल गए हो—
एक खूँटे से बँधा हुआ
अपनी नाथ को चाटता हुआ
लम्बी पूँछ से पीठ पर
तुम्हारे पैने की चोट झाड़ता हुआ
खा रहा हूँ।

देखो हलधर,
मुझे इस बात की चिन्ता नहीं कि
तुम मुझे अपने खेत जोतने को
नाँधते हो
कभी बाएँ, कभी दाएँ से मुझे हाँकते हो
बहरहाल बड़ा मरकहा सवाल है
क्योंकि मुझे पता है
मेरा बल हर हालत में
तुम्हारी बदनियती में जुता है

तुम्हारे पास ज़मीन है
हल है, पैना है और मुझे
तुम्हारे ईंधन के लिए हगना है
पॉंव के जूते के लिए मरना है
खेत में खाद के लिए
मेरी हड्डियों को पिसना है

मैं कोई फ़साद नहीं कर रहा हूँ
हलधर भैया
सिर्फ़ अपनी जमात की बात कर रहा हूँ जिनको
विधाता ने सींग भी दिया है
और कन्धे में धरती चीथ डालने की क़ूवत
मगर अब इतना तो साफ़ कहो
तुम मेरी बिरादरी के ख़िलाफ़ हो

मेरी गूँगी मेहनत से तुमने
एक भाषा उगायी है
खरी खोटी मोट पातर बोलियाँ मैंने सुनीं
कविता तुमने खायी है
इस नाँद में तुम्हारे समय का स्वाद
खा रहा हूँ
जिसकी बाँहें पगुराता हुआ
अपनी तकलीफ़ों से जबान लड़ा रहा हूँ

मुझे खेद है
जब मेरी माँ के थन का दूध
तुम्हारी किशोर कमोरियों में
फेनाया हुआ तुम्हारे बच्चों की
हँसी में बह रहा था
अपने दूधमुँहे दाँत के नीचे
सूखा तृण दाबे
क्या मैं कुछ कह रहा था?
मेरी इच्छाओं को बद्धी कर
मेरे हर अंगुल शरीर को
अपनी मुट्ठियों में नाप कर
मेरे हर विरोध को नाथ दिया था।
कितना कमज़ोर पड़ जाता है
सच का पशुबल भी
फ़रेब से भाँजी हुई पगही में
मेरी सींग को फुलरे पहिना
अपनी गाड़ी खिंचवाना
एक ऐसी राजनीति है
जिसे मेरे कन्धे समझते हैं।

मुझे ख़बर है तुम्हारी भाषा का
जो तुम्हारी ख़बरें ढोती हैं—
उस रात अपनी सरिया के अन्धेरे में
नीचे पड़े ओछरे को सूँघता
मेरी नाक को छू गया
किसी रंगीन पत्रिका का फटा पन्ना
जिस पर छपा था
बाटा के जूतों का इश्तहार
जिसकी कविता पहनकर तुम्हारा बेटा
रोज़ जाता है बाज़ार।
मैं किन-किन दुकानों में बिका हूँ
उससे ख़बरदार होकर भी तो
मैं सरकार नहीं हूँ कि
अपने चमड़े का सिक्का चला दूँ।

मैंने बहुत सोचा है
तुम्हारे सूतने के वक़्त
खेत के बीच मूतता हुआ
मुँह लगे खोंचा को कि अब
मैं सिर्फ़ स्मृतियाँ पगुरा सकता हूँ
नया कुछ नहीं खा सकता
धरती से उगा हर हरा अक्षर
भैंस बराबर लगता है
जहाँ मेरी गैया
मेरे सूखे अण्डकोष को निहारती है
अपनी पूँछ के नीचे चाट हुंकारती है
जब मेरा श्रम चुकने के बाद
मेरा बुढ़ापा तुम्हारा जुआ
उठाने के लिए उठ नहीं सकता है
तब कसाई के गण्डास के नीचे के
अलावा वह और कहीं
मर नहीं सकता है।

कैसे समझाऊँ अपनी बात
मेरी भाषा तुम समझते नहीं
तुम अपनी भाषा मुझे खिलाते हो
तुम आदमी हो, इंसान हो
मनुष्य हो, मैं जानवर हूँ
इसलिए मजबूर हूँ कि
तुम्हारा मज़दूर हूँ
तुम अक़्लमन्द हो
हाकिम हुक्काम हो
मैं ग़र्ज़मन्द हूँ, नौकर-चाकर हूँ
बेशऊर हूँ
तुम्हारे पास बहुत सारे
आध्यात्मिक दर्द हैं
जो तुम्हारी निरंकार कविताओं के
पेट में पचते हैं
मेरे पास तो बस एक पेट का दर्द है
जिसके लिए ताउम्र मेरे कन्धे खटते हैं।

मानबहादुर सिंह की कविता 'चापलूस'

Book by Maan Bahadur Singh: