‘Barish Aur Maa’, Hindi Kavita by Vijay Rahi
जब बारिश होती है
सब कुछ रुक जाता है
सिर्फ़ बारिश होती है
रुक जाता है बच्चों का रोना
चले जाते हैं वो अपनी ज़िद भूलकर गलियों में
और बारिश में नहाते हैं देर शाम तक
रुक जाता है
खेत में काम करता किसान
ठीक करता हुआ मेड़
पसीने और बारिश की बूँदे मिलकर
नाचती हैं खेत में
लौट आती हैं गाय-भैंसे मैदानों से
भेड़-बकरियाँ आ जाती पेड़ों तले
भर जाते हैं जब तालाब-खेड़
भैंसे तैरती हुई उतर जाती हैं, गहराई तक
रुक जाते हैं राहगीर
जहाँ भी मिल जाती है दुबने की ठौर
पृथ्वी ठहर जाती है अपने अक्ष पर
और बारिश का उत्सव देखती है
जब बारिश होती है
उस समय भी
यदि नहीं रुकता है कोई
तो वह सिर्फ़ माँ है!
बारिश शुरू होने से पहले ही
बढ़ जाती है अचानक उसके पैरों की गति
एकबारगी में देख लेती है
वह दूरतलक सब कुछ
कहीं कुछ रह ना गया हो घर से बाहर
बारिश का क्या पता
पता नहीं कब रुके?
वो चाहती है घर में रख दे एक-दो दिन का बलीता
कपड़े-लत्ते सूख रहे हैं जो पिछले दिनों से
लेती है वह उनकी की भी सुध
इकट्ठा कर ला डालती है अलगणी पर
फिर कुछ याद करके भागती है अचानक बाहर
मूँज की खाट उठाकर लाती है पाटोल में
यहाँ तक कि पोते के खिलौने भी नहीं भूलती
आँगन के चूल्हे को ढकती है तिरपाल से
फिर रखती है उस पर उल्टी परात
खटिया के पागे से बाँधती है भैंस की पड़िया
ढकोली के नीचे दे देती है नन्हे बकरेट
वह नहीं भूलती झाड़ू को भी
लाकर रखती है कोने में करीने से
सारे बच्चे जो मगन हैं खेल में
जिनको कोई ख़बर नहीं बरसात की
माँ उनको देती है हेला जोर से
“घर आ जाओ! नहीं तो तुम्हारी माँ आई!”
यानि सब कुछ सौर-सकेलकर
ला पटकती है माँ घर के भीतर
और फिर देती है बारिश को मीठा आमंत्रण
“ले! अब ख़ूब बरस म्हारी भाभी!”
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