‘Bas Bache Rahe Hum’, a poem by Vineeta Parmar
लगभग इसी समय
ढूँढ रहे थे लुप्त इतिहास
मर चुकी सभ्यता की निशानियाँ
हाण्डी, चावल, चूड़ी-कंगन
पढ़ रहे थे चित्रलिपि।
कपड़े के टुकड़ों में
छाप की संस्कृति,
स्नानागारों में छुपी यात्रा
अतीत के चलचित्र में,
बचा रहे थे कोई गाथा।
उसके समानांतर ही कुछ लोग तलाश रहे थे
हवा-पानी का दूसरा रास्ता
धरती पर खोज रहे थे एक अलग धरती
तैयार कर रहे थे अपने जैसे मानव
अपने मन में ही राज़ी
अपने मन की ही बचा रहे।
फिर आज बचा लेना
फ़ैशन और चलन में है
हर कोई अपने बूते भर बचा रहा
कोई अपने को बचा रहा
कोई सपने को
कोई खा रहा, खिला रहा
फिर भी है बचा रहा।
शिल्पों और कलाओं से
बढ़ई, कुम्हार, लुहार, माली
रंगरेज़ की ये जीविका नहीं
बचा रहे अपने कौशल को
जैसे कविताओं से बचा रहा
ख़ुद को एक कवि।
बचाने की दौड़ में
वीर्य जमा कर
बचा रहे अपना वंश, मूल, जाति।
यह बचाना महज़ एक दिखावा है
जैसे सोना दह रहा और कोयला बच रहा।
हाँ यूँ तो इस बचाने में कुछ बचता नहीं
ख़ुद के अलावा,
बचाने में हम बचा रहे
अपने कार्य और निर्माण को,
स्पर्श और मुस्कुराहट को।
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