बे-ख़याल बैठा हूँ इस लरज़ती रात में। जैसे अभी-अभी एक तारा टूटकर अकेला हुआ है। आसमान में छमकते हैं बचे हुए लहरदार तारे – जो अनगिनत अकेले हैं।
इस शीतलहर अब और नहीं निहार सकता आसमान मैं। खिड़की बंद कर कमरे में बल्ब जलाना चाहता हूँ। तीन साल पहले कही कोई बात बल्ब के भीतर झिलमिलाने लगती है। आवाज़ से अधिक आवाज़ रोशनी की है।
अभी-अभी मित्र ने भेजी है एक अंडरप्लाट, जिसे पढ़ते हुए बेचैनी है कि दृश्य में कोई उठान नहीं दिखती। दृश्य की बेचैनी शायद खिड़की के बाहर छूट गई है।
मैं बिस्तर पर लेट गया हूँ और लेटा ही रहूँगा- बेनियाज़। कोई हाथ होने थे यहाँ, जिन्हें जोड़ मैं घटा लेता खिड़की तक का फ़ासला।
मुझे लगता है कि खिड़की खोलूँगा अबकी तो बाहर आसमान नहीं होगा और एक बेतरतीब बारिश के बीच मैं अपनी निगाहें मूँद बे-ख़याल रहूँगा।
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