पृथ्वी के अन्दर के सार में से
फूटकर निकलती हुई
एक भाषा है बीज के अँकुराने की।

तिनके बटोर-बटोरकर
टहनियों के बीच
घोंसला बुने जाने की भी एक भाषा है।

तुम्हारे पास और भी बहुत-सी भाषाएँ हैं—
अण्डे सेने की
आकाश में उड़ जाने की
खेत से चोंच-भर लाने की।

तुम्हारे पास
कोख में कविता को गरमाने की भाषा भी है।

तुम बीज की भाषा बोलीं
मैं उग आया
तुमने घोंसले की भाषा में कुछ कहा
और मैं वृक्ष हो गया।
तुम अण्डे सेने की भाषा में गुनगुनाती रहीं
और मैं आकार ग्रहण करता रहा।

तुम्हारे आकाश में उड़ते ही
मैं खेत हो गया।
तुमने चोंच भरी होने का गीत गाया
और मैं नन्हीं चोंच खोले
घोंसले में चिचियाने लगा।

तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा कि मैं
तुम्हारी कोख में गरमाती
कविता में भाषा बोल रहा हूँ।

शरद बिल्लोरे की कविता 'ये पहाड़ वसीयत हैं'

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