बेरौनक़ रहता है अब वो चेहरा अक्सर
ईश्वर की अक़ीदत में हो जाते थे सुर्ख़ जिसके गाल कभी

एक अजीब भय में तब्दील होने लगती हैं उसकी सभी निराशाएँ

पर रोज़मर्रा के उलाहने न होते
चूल्हे-चौके के बीच पसरा ये अनमनापन न होता
तो कठिन होता चुप्पी के पाश से निकल पाना कभी
उस स्त्री के लिए
नमकदानी देखकर ही सिहर उठती थी जिसकी देह
मुड़कर देखना नहीं चाहती वह
अतीत के विघटन को
भूल जाना चाहती है सब

उसे डर है ईश्वर उसे भी बदल देगा एक भुरभुरे नमक के पहाड़ में
जिसे ढह जाना है
इतनी ठोस नहीं है न वो!

उम्मीद कितनी महँगी चीज़ है
नमक कितना सस्ता

और उससे भी सस्ती वह स्त्री
जिसके मुड़कर देखने-भर पर
नमक के पहाड़ में बदल देता है उसे
सृष्टि का सबसे ताक़तवर राजा
एक ज़रा-सी नाफ़रमानी पर

अटूट है स्त्री की कामनाओं और उसके भीतर के भय का गठजोड़
एक-दूसरे को कभी मुक्त नहीं होने देते ये कभी…

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