कोई सौ सवा सौ वर्ष पहले इस देश के प्रायः प्रत्येक प्रांत में जंगली हिंसक जीवों का बड़ा आधिक्य था। भेड़िये, रीछ, लकड़बग्घे आदि की तो बात ही नहीं; शेर, बाघ और हाथी तक घने जंगलों में घूमा करते थे, और कभी-कभी बस्तियों के भीतर तक आकर उत्पात मचाते थे। पर अब यह बात नहीं। अब तो शेर, बाघ और हाथी उन्हीं जगहों में कुछ रह गए हैं जहाँ घोर जंगल हैं और दूर-दूर तक फैले हुए हैं। इनकी संख्या भी बहुत ही कम रह गई है। भय है यदि इन जीवों का नाश इसी गति से होता गया, जिस गति से कि इस समय हो रहा है, तो शायद किसी दिन इनका समूल ही क्षय हो जाएगा। भेड़ियों, रीछों तथा अन्य छोटे-छोटे हिंसक जानवरों के विषय में यह बात चरितार्थ नहीं। कारण यह है कि एक तो उनकी संख्या अधिक है, दूसरे वे छोटे-छोटे जंगलों, नदी-नालों के कछारों तथा और भी कुछ जगहों में रह सकते हैं। और, देहातियों के पास बन्दूकें न होने से उनका नाश भी बहुत ही कम होता है। तथापि वे भी कम ही होते चले जा रहे हैं, क्योंकि सरकार ने उनको मारनेवालों के लिए इनाम मुक़र्रर कर दिए हैं।

जिस समय रेल और तार का अस्तित्व न था तथा सड़कें भी कम थीं उस समय रीछ और भेड़िये प्रायः सभी कहीं बहुत अधिक संख्या में पाए जाते थे। रीछ तो उतने न थे, पर भेड़िये बहुत अधिक थे। वे कुत्तों, बकरियों, भेड़ों और गाय-भैंसों के बच्चों पर दिन-दहाड़े छापा मारते और उन्हें उठा ले जाते थे। यहाँ तक कि देहात में यदा कदा वे छोटे-छोटे लड़कों और लड़कियों को भी उठा ले जाते और उन्हें मार खाते थे। इस प्रकार की दुर्घटनायें अब भी कभी-कभी हो जाती हैं। भेड़ियों के सम्बन्ध में एक बड़ी ही विचित्र बात सुनी जाती है। सुनी क्या जाती है उसके सच होने के कितने ही प्रमाण भी मिले और पुस्तकों तक में लिखे जा चुके हैं। वह यह कि भेड़िये जिन बच्चों को उठा ले जाते हैं उन्हें वे कभी-कभी मारते नहीं, किन्तु अपनी माँद में पालते हैं। कोई सौ वर्ष पहले इस देश में भ्रमण करने वाले कई अंग्रेज़ अफसरों ने इन घटनाओं का आँखों देखा वर्णन अपनी पुस्तकों में किया है।

जिस समय अवध प्रांत में लखनऊ के नवाब-वज़ीरों का राज्य था उस समय स्लीमन नाम के एक साहब लखनऊ में रेजिडेंट थे। उन्होंने अपने समय में इस सूबे की देहात में दूर-दूर तक दौरा किया था। अपने इस भ्रमण में देखी गई अनेक आश्चर्यजनक बातों का बड़ा ही मनोरंजक वर्णन उन्होंने अपनी एक पुस्तक में किया है। यह पुस्तक प्रकाशित हुए बहुत समय हुआ। पर शायद बड़े-बड़े पुस्तकालयों में यह अब तक उपलब्ध हो। इस पुस्तक में स्लीमन साहब ने कुछ ऐसे लड़कों का हाल लिखा है जो भेड़ियों की माँद में पले थे और जिन्हें उन्होंने खुद देखा था। मुझे याद पड़ता है कि इस तरह के लड़कों के सम्बन्ध में दो एक बड़े ही मनोरंजक लेख किसी मासिक पुस्तक में बहुत पहले प्रकाशित हो चुके हैं।

अस्तु। पुरानी बातें तो गईं। अब इस तरह की एक नई घटना का वर्णन स्टेट्समैन आदि अखबारों में, अभी कुछ ही समय पूर्व प्रकाशित हुआ है। कलकत्ते में एक कॉलेज है। नाम उसका है बिशप्स कॉलेज। बिशप, अर्थात बड़े पादरी, एच. पेकनहम-वाल्श, उसमें अध्यापक या अधिकारि-पदारूढ़ हैं। उन्होंने ऐसी दो लड़कियों का हाल प्रकाशित कराया है जो भेड़ियों की माँद में पली थीं और उन्हीं की माँद से निकाली गई हैं। अब आप अगली बातें पादरी साहब ही के मुख से सुनिए-

पश्चिमी बंगाल में मिदनापुर नाम का एक शहर है। वह अपने नाम के ज़िले का सदर मुक़ाम है। वहाँ एक अनाथालय है। पादरी सिंह और उनकी स्त्री उसकी देखभाल करती हैं।

पादरी सिंह को कभी-कभी मिदनापुर के देहात में भी जाना पड़ता है। एक बार दौरा करते समय उनसे कुछ देहातियों ने कहा कि वहाँ कुछ दूर पर एक ऐसी जगह है जहाँ भूत-प्रेत रहते हैं। इस कारण वे लोग उस तरफ जाने की हिम्मत नहीं करते। उन्होंने यह भी कहा कि दीमक या चीटों की एक बाँबी के पास एक बड़ा सा बिल है। उसी में उन्होंने भूतों को घुसते प्रत्यक्ष देखा है। इस पर सिंह महाशय ने कहा कि ज़रा वह जगह हमें भी दिखाओ। यह बात उन लोगों ने मान ली और अपने साथ ले जाकर उन्होंने वह बिल सिंह महाशय को दिखा दिया। परन्तु वहाँ कोई भूत न दिखाई दिया। तब पादरी साहब के कहने से 16 आदमियों ने उस बिल को खोदना शुरू किया। कुछ देर बाद उससे दो भेड़िये निकले और बड़ी तेज़ी से भाग गए। खुदाई जारी रखी गई। कुछ देर तक और खोदने पर एक मादा भेड़िया भीतर से निकली और बिल के मुँह पर आकर गुर्राने और दाँत दिखाने लगी। उसने वहाँ से हटना न चाहा; जहाँ खड़ी थी वहीं डटी खड़ी रही। लाचार होकर सिंह महाशय ने उसे अपनी बन्दूक का निशाना बनाया। फिर खुदाई शुरू की गई। जब माँद की तह तक खोदने वाले पहुँच गए तब उन्होंने देखा कि वहाँ भेड़िये के दो बच्चे और दो ही लड़कियाँ एक दूसरे पर पड़ी हैं। आदमियों को देखते ही लड़कियाँ सजग हो गईं। एक की उम्र कोई 2 और दूसरी की कोई 8 वर्ष की थी। उन्होंने भयानक चीत्कार की और जंगली जानवरों की जैसी चेष्टा करके वहाँ से हाथ-पैर के बल भाग निकलीं। वे इस तेज़ी से दौड़ीं कि जो लोग वहाँ उपस्थित थे, उनमें से कोई भी उन्हें पकड़ न सका। भागकर वे एक झाड़ी के भीतर घुस गईं। बड़ी मुश्किलों से वे किसी तरह पकड़ी गईं। देखने पर मालूम हुआ कि हाथ-पैर के बल ज़मीन पर चलने और मिट्टी कुरेदने के कारण उनके नाखून नुकीले हो गये हैं।

मिदनापुर ही में नहीं, देहात में सर्वत्र ही किसानों की स्त्रियाँ अपने बच्चों को अपने झोपड़ों में सुलाकर खेत पर काम करने चली जाती हैं। कुछ स्त्रियाँ तो उन्हें अपने साथ भी ले जाती हैं और खेत की मेंड़ या खेत ही में उन्हें सुलाकर काम करने लगती हैं। ऐसी जगहों में यदि भेड़ियों का आधिक्य हुआ तो वे यदा-कदा उन बच्चों को उठा ले जाते और मार खाते हैं। किसानों की स्त्रियाँ लड़कियों के विषय में और भी बे-परवाही करती हैं, क्योंकि उनकी शादी आदि में खर्च बहुत पड़ता है। उससे कोई-कोई कुटुम्ब बहुत कर्जदार हो जाता है। परन्तु इतनी निर्दय माता शायद ही कोई होगी जो अपने बच्चे को भेड़ियों का शिकार बनाने के लिए उसे खेत पर छोड़ दे। कुछ भी हो, ये दोनों लड़कियाँ भेड़ियों ही के द्वारा उठाई जाकर माँद में पहुंची थीं। इसमें संदेह नहीं। जान पड़ता है कि लड़कियों के बदन पर पहनाया गया कपड़ा दाँत से पकड़कर भेड़िया उसे उठा ले गया होगा। पहली लड़की ले जाने के पाँच-छः वर्ष बाद मादा भेड़िया दूसरी लड़की उठा ले गई होगी। उसने देखा होगा कि पहली लड़की उसके बच्चों की तरह जल्द नहीं बड़ी हो गई, वह छोटी ही बनी रही और अधिकतर माँद के भीतर ही रहती रही। इससे उसे ख़ुशी हुई होगी और मिलने पर दूसरी लड़की को भी वह उठा ले गई होगी। परन्तु यह हिंसक जंतु बच्चों को मारकर खा जाने के बदले उन्हें पालता क्यों है, इसका कारण अभी तक ज्ञात नहीं हो सका।

सिंह महाशय ने इन दोनों लड़कियों को देहातियों के सुपुर्द कर दिया और कहा कि हम गाड़ी लेकर पीछे से आवेंगे और इन्हें ले जाएंगे। देहातियों ने लड़कियों को एक बाड़ा बनाकर उसके भीतर रख दिया। मिस्टर सिंह लौटे तो उन्होंने देखा कि लड़कियों के बदन पर सर्वत्र फोड़े से हो रहे हैं और ये बहुत ही कमज़ोर दशा में हैं। पास पहुँचने पर उन्होंने विशेष उछल-कूद न की। वे भागी भी नहीं। सिंह महाशय उन्हें गाड़ी पर रखकर अपने अनाथालय में ले आये। वहाँ उनकी स्त्री ने उनको खिलाने-पिलाने और रखने का भार अपने ऊपर लिया। पर छोटी लड़की को अतीसार हो गया और वह मर गई। बड़ी लड़की धीरे-धीरे चंगी हो गई। इस समय बड़ी लड़की कद में अपनी उम्र की लड़कियों के बराबर ही है।

अनाथालय में आने पर देखा गया कि लड़कियों की आँखों की पुतलियाँ या ढेले उसी तरह घूमते हैं जिस तरह कि जानवरों की आँखों के घूमते हैं। वे बैठती भी उसी तरह हैं जिस तरह जानवर बैठते हैं। कच्चा माँस उन्हें बहुत प्रिय था। कोई चीज़ खाने या पीने के पहले वे उसे सूंघ लेती थीं। माँस यदि कहीं दूर भी रक्खा होता तो गंध से वे जान लेती थीं कि वह कहाँ पर है और झट वहीं पहुँच जाती थीं। माँस देखने पर उनकी लार टपकने लगती थी और जबड़े हिलने लगते थे। वे दाँत भी पीसने लगती थीं और एक अजीब तरह का शब्द करती थीं। अनाथालय के बच्चों की संगति उन्हें पसंद न थी। हाँ, कुत्तों, बिल्लियों और मुर्गियों के साथ रहना उन्हें अधिक पसंद था। कपड़ों से वे नफरत करती थीं। पहनाने से वे उन्हें फाड़ डालती थीं। रात को वे एक दूसरी पर लदकर, कुत्ते के बच्चों की तरह, सो जाती थीं। सोने के पहले बड़ी लड़की बाहर से घासफूस उठा लाती। उसी को बिछाकर दोनों एक दूसरी पर पड़ रहती थीं।

छोटी लड़की तो मर गई। बड़ी लड़की इस समय 14 वर्ष की है। अब वह कपड़े पहनने लगी है। पहले खूब कसकर तंग कपड़े उसे पहनाये जाते थे जिससे वह उन्हें फाड़ न डाले। धीरे-धीरे कपड़े फाड़ने की उसकी आदत जाती रही। अब तो उसने बंगला भाषा के कुछ शब्द भी याद कर लिए हैं। किसी के आने पर अब वह हाथ जोड़कर ‘नमस्कार’ कहने लग गई है। उसे चुपचाप रहना अधिक पसंद है। घंटों वह मौन बनी बेकार बैठी रहती है। नाम उसका रक्खा गया है- कमला। वह यद्यपि अब भेड़ियों के सदृश भूँकती नहीं, तथापि हँसना या रोना वह अब तक नहीं जानती। पकड़े जाने के बहुत दिन बाद तक वह भेड़ियों ही की तरह मुँह से चीज़ उठाकर खाती और उसी तरह पानी पीती थी। पर अब उसने हाथ से खाना सीख लिया है। खेलना-कूदना उसे पसंद नहीं। उसे खिलौने या गुड़ियाँ यदि दी जाती हैं तो उन्हें काटकूटकर फेंक देती है। उसकी यह आदत धीरे-धीरे छूट रही है। पर अब तक वह नहाना नहीं चाहती। सिंह महाशय की स्त्री ही से वह विशेष प्रेम करती है, और किसी से नहीं। मिस्टर सिंह कहते हैं कि कुछ ही दिनों में उसकी असभ्यता जाती रहेगी और उसमें स्वाभाविक स्त्रीत्व पूरे तौर पर आ जाएगा।

महावीर प्रसाद द्विवेदी
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864–1938) हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक थे। उन्होने हिंदी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की और अपने युग की साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। उनके इस अतुलनीय योगदान के कारण आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा युग 'द्विवेदी युग' (1900–1920) के नाम से जाना जाता है।