उसे भूलने की लड़ाई
लड़ता रहता हूँ
यह लड़ाई भी
दूसरी कठिन लड़ाइयों जैसी है

दुर्गम पथ जाते हैं उस ओर

उसके साथ गुज़ारे
दिनों के भीतर से
उठती आती है जो प्रतिध्वनि
साथ-साथ जाएगी आजीवन

इस रास्ते पर कोई
बाहरी मदद पहुँच नहीं सकती

उसकी आकस्मिक वापसी की छायाएँ
लम्बी होती जाती हैं
चाँद-तारों के नीचे

अभिशप्‍त और निर्जन हों जैसे
एक भुलायी जा रही स्त्री के प्यार
के सारे प्रसंग

उसके वे सभी रंग
जिनमें वह बेसुध
होती थी मेरे साथ
लगातार बिखरते रहते हैं
जैसे पहली बार
आज भी उसी तरह

मैं नहीं उन लोगों में
जो भुला पाते हैं प्यार की गई स्त्री को
और चैन से रहते हैं

उन दिनों मैं
एक अख़बार में कॉलम लिखता था
देर रात गए लिखता रहता था
मेज़ पर
वह कब की सो चुकी होती
अगर वह अभी अचानक जग जाती
मुझे लिखने नहीं देती
सेहत की बात करते हुए
मुझे खींच लेती बिस्तर में
रोशनी गुल करते हुए

आधी नींद में वह बोलती रहती कुछ
कोई आधा वाक्य
कोई आधा शब्द
उसकी आवाज़ धीमी होती जाती
और हम सो जाते

सुबह जब मैं जगता
तो पाता कि
वह मुझे निहार रही है
मैं कहता
तुम मुझे इस तरह क्या देखती हो
इतनी सुबह
देखा तो है रोज़
वह कहती
तुम मुझसे ज़्यादा सुंदर हो
मैं कहता
यह भी कोई बात हुई

भोर से नम
मेरे छोटे घर में
वह काम करती हुई
किसी ओट में जाती
कभी सामने पड़ जाती

वह जितने दिन मेरे साथ रही
उससे ज़्यादा दिन हो गए
उसे गए!

आलोक धन्वा की कविता 'मुलाक़ातें'

Recommended Book:

Previous articleक्योंकि हवा पढ़ नहीं सकती
Next articleबिचौलियों के बीज
आलोक धन्वा
आलोक धन्वा का जन्म 1948 ई० में मुंगेर (बिहार) में हुआ। वे हिंदी के उन बड़े कवियों में हैं, जिन्होंने 70 के दशक में कविता को एक नई पहचान दी। उनका पहला संग्रह है- दुनिया रोज बनती है। ’जनता का आदमी’, ’गोली दागो पोस्टर’, ’कपड़े के जूते’ और ’ब्रूनों की बेटियाँ’ हिन्दी की प्रसिद्ध कविताएँ हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here