कोई गिला तुझसे
शिकायत कुछ नहीं है
तेरी ही तरह मैंने भी
लिखे हैं ऐसे अफ़साने
निहायत पाक-तीनत, बे-ख़ता
मासूम करैक्टर तराशे
फिर उनको दर्द, नाकामी, ग़म व हसरत
सज़ाएँ और रुसवाई अता की है
कभी उनको चढ़ाया
बे-गुनाही की सलीबों पर
कभी तन्हाइयों के
अन्धे ग़ारों में धकेला है
कभी ख़ुद उनके सीने में
उतारे उनके ही हाथों से वह ख़ंजर
ज़ख्म जिनके
मुंदमिल हो ही नहीं सकते
मगर चारा भी क्या था?
हर अफ़साने को
अफ़साना बनाने के लिए यह सब
हमें करना ही पड़ता है
तेरी मजबूरियाँ
गर मैं न समझूँ
कौन समझेगा?
मुझे जिस तरह भी
तूने लिखा है
ख़ूब लिक्खा है!
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nice one , Behad Kachhi panktiyan
We assume, aap ‘achchhi’ kehna chahte the. 🙂