बोलचाल की भाषा के बारे में कुछ लिखना टेढ़ी खीर है। जितने मुँह उतनी बात सुनी जाती है। यदि यह बात सत्य न हो तो भी इसमें सन्देह नहीं कि इस विषय में एक मत नहीं है। बोलचाल की भाषा की परिभाषा भिन्न-भिन्न है। अथवा यों कहिये कि इस विषय में मान्य लोगों के सिद्धान्त एक-से नहीं हैं। बोलचाल की भाषा से वह भाषा अभिप्रेत है, जो बोली जाती है, अथवा जिसे सर्वसाधारण बोलते हैं। यदि इस कसौटी पर कसे तो वर्तमान हिन्दी गद्य पद्य की अधिकांश रचना ऐसी भाषा में की गयी मिलेगी जिसे बोलचाल की भाषा नहीं कह सकते; उर्दू के विषय में भी यही कहा जा सकता है। यह विचार आधुनिक नहीं चिरकाल से चला आता है। जिस समय हिन्दी और उर्दू का नामकरण हुआ, और इन दोनों ने लिखित गद्य भाषा का रूप धारण किया, उसके कुछ समय उपरान्त ही इस विचार का भी सूत्रपात हुआ। कविवर लल्लूलाल, पण्डितप्रवर सूरत मिश्र, राजा लक्ष्मणसिंह, राजा शिवप्रसाद और बाबू हरिश्चन्द्र की हिन्दी की शैली भिन्न-भिन्न है। प्रत्येक ने हिन्दी के स्वरूप की कल्पना अपनी-अपनी रुचि के अनुसार की है, किन्तु प्रत्येक का आदर्श बोलचाल ही था। आज दिन पश्चिमोत्तर-प्रान्त, राजस्थान, बिहार और मध्यदेश में हिन्दी की विजयवैजयन्ती फहरा रही है, फिर भी वह ‘अनेक रूप रूपाय’ है। जो लिखता है वह बोलचाल की ही भाषा लिखता है परन्तु फिर भी प्रणाली में भिन्नता है। श्रीमान् पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सितम्बर सन् 1924 की ‘सरस्वती’ में एक लेख लिखा है उसमें एक स्थान पर आप लिखते हैं-

“यह कविता बोलचाल की हिन्दी में है-

“यदपि सतत मैंने युक्तियाँ कीं अनेक।
तदपि अहह तूने शान्ति पाई न नेक।।
उड़कर तुझको मैं ले कहाँ चित्त जाऊँ।
दुखद जलन तेरी हाय कैसे मिटाऊँ।।”

किन्तु क्या यह बोलचाल की हिन्दी है? मेरा विचार है कि किसी प्रान्त में अब तक सर्वसाधारण यदपि, सतत, युक्तियाँ, अहह, दुखद नहीं बोलते। ऐसी अवस्था में जिस पद्य में ये शब्द आये हैं उसको बोलचाल की भाषा का पद्य नहीं कह सकते, सरल हिन्दी का पद्य भले ही कह लें। बोलचाल की हिन्दी, सरल हिन्दी और ठेठ हिन्दी में अन्तर है। क्या अन्तर है इसका मैं निरूपण करूँगा। सरल हिन्दी और ठेठ हिन्दी का मतलब समझ लेने से ही बोलचाल की हिन्दी का स्वरूप अवगत होगा। संभव है कि जो विचार मैं प्रकट करना चाहता हूँ वह सर्वसम्मत न हो, उसमें भी मीन-मेख हो, परन्तु इससे क्या? अपना विचार प्रकट करके ही मैं दूसरे सज्जनों को मीमांसा का अवसर दे सकता हूँ। मीमांसा होने पर ही तथ्य बात ज्ञात होगी।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (15 अप्रैल, 1865-16 मार्च, 1947) हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। वे दो बार हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रह चुके हैं और सम्मेलन द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किये जा चुके हैं। 'प्रिय प्रवास' हरिऔध जी का सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह हिंदी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है और इसे मंगला प्रसाद पारितोषित पुरस्कार प्राप्त हो चुका है।