बोलने में कम से कम बोलूँ
कभी बोलूँ, अधिकतम न बोलूँ
इतना कम कि किसी दिन एक बात
बार-बार बोलूँ
जैसे कोयल की बार-बार की कूक
फिर चुप।

मेरे अधिकतम चुप को सब जान लें
जो कहा नहीं गया, सब कह दिया गया का चुप।
पहाड़, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा के बरक्स
एक छोटा-सा टिमटिमाता
मेरा भी शाश्वत छोटा-सा चुप।

ग़लत पर घात लगाकर हमला करने के सन्नाटे में
मेरा एक चुप—
चलने के पहले
एक बन्दूक़ का चुप।
और बन्दूक़ जो कभी नहीं चली
इतनी शान्ति का
हमेशा की मेरी उम्मीद का चुप।

बरगद के विशाल एकान्त के नीचे
सम्भालकर रखा हुआ
जलते दिये का चुप।

भीड़ के हल्ले में
कुचलने से बचा यह मेरा चुप,
अपनों के जुलूस में बोलूँ
कि बोलने को सम्भालकर रखूँ का चुप

Book by Vinod Kumar Shukla:

विनोद कुमार शुक्ल
विनोद कुमार शुक्ल हिंदी के प्रसिद्ध कवि और उपन्यासकार हैं! 1 जनवरी 1937 को भारत के एक राज्य छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव में जन्मे शुक्ल ने प्राध्यापन को रोज़गार के रूप में चुनकर पूरा ध्यान साहित्य सृजन में लगाया! वे कवि होने के साथ-साथ शीर्षस्थ कथाकार भी हैं। उनके उपन्यासों ने हिंदी में पहली बार एक मौलिक भारतीय उपन्यास की संभावना को राह दी है। उन्होंने एक साथ लोकआख्यान और आधुनिक मनुष्य की अस्तित्वमूलक जटिल आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति को समाविष्ट कर एक नये कथा-ढांचे का आविष्कार किया है।