वो बचने लगे हैं अब बहसों को लम्बा खींचने से
कन्नी काट लेते हैं बहुधा विवादों से
कभी हमारा बचपन सुनाने लगते हैं
तो कभी अपनी पहली नौकरी के क़िस्से
हमारी ज़िंदगी की हर बात जाननी है उनको
हम जवाब ना भी दें पर
वो सवाल करते हैं बहुत से
इसी बहाने शायद वो हमारे साथ
कुछ पल जी रहे होते हैं।

हिसाब में कमज़ोर माँ
बन्द आँखों से भी हमारा फ़ोन नम्बर लगा सकती है
पापा, जो मोबाइल को बीमारी का नाम दिया करते थे
अब चौबीसों घण्टे साथ रखते हैं उसे
हमारी आवाज़ सुनने के मोह में
दवाइयों के सहारे चलने वाले वो
हमें हर बात पर दवा न खाने की
सलाह देते रहते हैं
असल में वो हमें उनकी ग़लतियाँ दोहराने से
बचा रहे होते हैं

“बेटा, तेरे साथ जाना है कहीं तो…
तुझे जब समय हो, बस मिल जा हमसे…”
बूढ़े होते माँ-पापा
ये सब अब हक़ से नहीं कहते
ध्यान से सुनोगे तो कुछ गिड़गिड़ाहट-सी
सुनायी देगी उनके शब्दों में
ऐसे तो हमने उस महँगी दुकान का वो
सबसे महँगा खिलौना भी नहीं माँगा होगा उनसे
जिस हिचकिचाहट से वो हमारा समय माँगते हैं
फिर ‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्ज़ी’ कहकर
वो अवसाद की चादर ओढ़ लेते हैं
माँ-पापा तब थोड़े और बूढ़े होने लगते हैं

इस बार जब माँ-पापा के साथ रहने जाओ
तो देखना ग़ौर से उन थकी आँखों की चमक
स्नेह का जरा-सा विटामिन लेकर
वो कैसे जवान हो जाते हैं
तुम थोड़ा-सा प्यार छलकाओगे
वो भर-भर ममता लुटा देंगे
तुम्हारे साथ के रंग से
बूढ़े होते घर पर भी यौवन की पुताई हो जाएगी
उन चंद लम्हों की आस में
वो अपनी उमर से होड़ लगा लेते हैं
हर पल संजो लेना चाहते हैं
बच्चों के प्यार में
माँ-पापा तब शायद थोड़ा और जीने लगते हैं…

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