‘अंतिमा’ पर पोषम पा का पॉडकास्ट ‘अक्कड़ बक्कड़’ यहाँ सुनें:
मानव कौल के पहले उपन्यास ‘अंतिमा’ से
बाहर खुला नीला आकाश था
और भीतर एक पिंजरा लटका हुआ था।
बाहर मुक्ति का डर था
और भीतर सुरक्षित जीने की थकान।
उसे उड़ने की भूख थी
और पिंजरे में खाना रखा हुआ था।
मुझे एक बहुत ही अजीब-सा डर सताता रहता था, ख़ुद के ख़र्च हो जाने का डर। नहीं, मैं कंजूस नहीं था कभी भी। मुझे पैसों की भी कभी कोई चिंता नहीं रही। मुझे तो निज के ख़र्च हो जाने का डर सताता रहता। मैं ख़ुद को बचाने में लगा रहता था हमेशा। हमेशा लगता था कि मुझे अपनी चवन्नी हमेशा अपने पास बचाकर रखनी है। यह चवन्नी वाली बात सालों पहले मुझे माँ ने कही थी कि ‘बेटा हम सबके पास सिर्फ़ एक रुपया है ख़र्च करने के लिए। अब पूरी ज़िन्दगी आप उसको कैसे ख़र्च करते हो, इसी बात पर, आप कैसे जियोगे, की ज़मीन तैयार होती है। जैसे चार आने दोस्तों और परिवार में बाँट देना, आठ आने अपने काम और भविष्य की सुरक्षा में गँवा देना, पर वह अंतिम चवन्नी अपनी मुट्ठी में दबाकर रखना। वह किसी पर भी ख़र्च नहीं करना, वह बस अपने लिए ही रखना।’
जब तक मेरी माँ थीं, मुझे यह बात कभी समझ नहीं आयी। मुझे लगा वह अपने बारे में कुछ कहना चाहती थीं। फिर यही बात एक दिन मैंने ‘इंशा-अल्लाह’ नाम के नाटक में देखी। मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ वह नाटक देखने गया था। मुझे लगा काश इस वक़्त मेरी माँ ज़िंदा होतीं तो मैं उन्हें कहता कि आपकी बात किसी ने नाटक में इस्तेमाल की है। मैंने तभी तय कर लिया था कि मैं अपनी चवन्नी कभी ख़र्च नहीं होने दूँगा। मैं अपनी चवन्नी अपने पास हमेशा सम्भालकर रखूँगा।
लेकिन, अब लगने लगा है कि असल में हमें कितना ज़्यादा ख़र्च होना पड़ता है तब कहीं जाकर हम ख़ुद का थोड़ा-सा हिस्सा बचा पाते हैं। एक वक़्त के बाद, ख़र्च हो जाने और बचाने की लड़ाई में हम किस तरफ़ से लड़ रहे थे, यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है। ऐसे युद्ध के बाद, अपने बचे हुए हिस्से की, उस चवन्नी की चौखट पर सिर टिकाकर बैठे रहते हैं, बहुत वक़्त तक समझ नहीं आता कि इस बचे हुए का हम करेंगे क्या? पूरी ज़िन्दगी जिस चीज़ को बचाने में ख़र्च कर दी, वह चवन्नी मुँह बाए हमें ताकती है, किसी स्याह अनंत की तरह।
अगर हमारा बचा हुआ अनंत है तो हम तो अभी तक उस अनंत की चौखट भर पहचानते हैं। क्या हम उसके भीतर घुसकर उन दरवाज़ों को खोल पाएँगे, जिन दरवाज़ों को छुपाए रखना, पूरी ज़िन्दगी चली आ रही लड़ाई का एक अहम हिस्सा था? या थककर उस चौखट पर पड़े-पड़े ही अपना दम तोड़ देंगे? यह अनंत है, इस अनंत के दरवाज़े से जो अभी तक बाहर छलता था, आज तक उसे ही लिखता आया था। आज तय किया था कि शुरुआत ही चौखट लाँघने से करूँगा।
मैं अपनी चवन्नी निकालता हूँ और उसे अपने निज पर ख़र्च करने के लिए उछालता हूँ। एक दरवाज़ा खुलता है। जिन जगहों पर कभी नहीं गया, जिन जगहों को भीतर कहीं दबाए रखा था, उन जगहों के अँधेरों में मैं अपना पहला क़दम रखता हूँ।
* * *
भीतर दोपहर का वक़्त है। बाहर चिड़िया चहक रही है। भीतर पुराने गाने भूली-सी बातों को लिए टहल रहे हैं और बाहर एक चिड़िया दिख रही है। वह बाहर नहीं थी, वह भीतर और बाहर के बीच की मुँडेर पर बैठी थी। कभी बाहर देखती, कभी भीतर।
बाहर खुला नीला आकाश था और भीतर एक पिंजरा लटका हुआ था। बाहर मुक्ति का डर था और भीतर सुरक्षित जीने की थकान। उसे उड़ने की भूख थी और भीतर पिंजरे में खाना रखा हुआ था।
मैं रोज़ सुबह उठता हूँ और पता चलता है कि यह सपना नहीं है, पूरी मनुष्य जाति लॉकडाउन में है, यह सच में हमारे साथ घट रहा है। हमारी सारी भविष्य की बातें धीरे-धीरे हमारी आँखों के सामने झड़ती जा रही हैं।
बहुत वक़्त तक तो एक उत्साह था कि हम पहली बार किसी ऐसी ऐतिहासिक घटना का हिस्सा हैं जिससे पहली बार पूरा-का-पूरा विश्व जुड़ा है। किसी एलियन के हमले वाली घटिया विदेशी फ़िल्म जैसा। पर अब वह उत्साह भी जाता रहा है। अब सिर्फ़ ख़बरें हैं और बोरियत भरी बातचीत जिसमें सबके पास ढेरों अनुमान हैं कि क्या होने वाला है। इस अनिश्चितता में ख़ुद के भीतर से उभर रहे विचारों पर भी विश्वास करना मुश्किल हो जाता है। फिर एक प्रलोभन घर कर गया कि इस तरह के ख़ाली वक़्त की तलाश मुझे कब से थी, ऐसे ही वक़्त में लिखने की कल्पना किया करता था। पर बहुत कोशिशों के बाद भी इस अविश्वसनीय से समय में उस विश्वास को कैसे जमा करूँ जिसमें लिखना सम्भव हो सके। बिना विश्वास के सारा लिखा खोखला-सा लगने लगता है। शब्द हैं… ढेरों, जो लैपटॉप पर छपने पर ठीक भी लगते हैं। एक कहानी का माहौल भी बन जाता है, पर एक झूठ इस सारे लिखे में इतना ज़्यादा आवाज़ कर रहा होता है कि जब तक मिटा न दो, डिलीट न कर दो तब तक आप सो नहीं सकते। फिर तय किया था कि ये सारे कठिन दिन पड़े-पड़े गुज़ार दूँगा। जब सब वापस अपनी सामान्य स्थिति में आएगा तो किसी यात्रा पर जाऊँगा और वहाँ लिखना शुरू करूँगा। पर अब लगता है कि वे दिन अभी बहुत दूर हैं।
मेरा नाम रोहित है और मैं मुम्बई में क़रीब बीस सालों से रह रहा हूँ। स्क्रिप्ट कंसल्टेंट हूँ और कभी-कभी डॉयलाग राइटिंग करके अपनी जीविका चला लेता हूँ। अपने गाँव से जब निकला था तो बहुत कुछ करने का उत्साह था। अपने सारे उत्साह को मैंने साल-दर-साल अपने घर से जाते हुए देखा था। एक दिन अपने लिए लिखूँगा मैं, इंतज़ार ने सारे तारों को बादलों की तरह ढाँक रखा था। पर अपनी हार को गरियाते हुए, मैंने कुछ ही दिनों पहले अपनी पहली कहानियों की किताब को अंतिम रूप देकर उसे अपने सम्पादक को भेज दिया था। मेरी इससे पहले (क़रीब बीस साल हो चुके हैं इस बात को) कविताओं की दो किताबें प्रकाशित हो चुकी थीं— ‘त्रासदी’ और ‘कोरे दिन’। कविताओं की इन किताबों के छपते ही मुझे कविताओं से घृणा हो चुकी थी, जिसके इतने सारे कारण थे कि मैं उन पर पूरी एक किताब लिख सकता हूँ। एक विचार आया भी कि क्यों न अभी जो कहानी लिखने बैठा हूँ, वह इस बारे में लिखी जाए, जब कविता पहली बार भीतर फूटी थी; पर उन दिनों के बारे में सोचते ही एक सिहरन मेरी रीढ़ की हड्डी में हरकत करने लगती है। मैंने चौखट पार की है, पर कुछ दरवाज़े खोलने की हिम्मत मेरे भीतर अभी भी नहीं है। मेरे सम्पादक चाह रहे थे कि मैं एक और कविताओं की किताब लिखूँ, पर मैंने इस बार उन्हें कहानियाँ भेजी थीं। इस लॉकडाउन की वजह से उसकी छपाई में थोड़ा विलम्ब हो रहा था। मेरे सम्पादक नयी किताब छापने के लिए बेक़रार थे, क्योंकि उन्हें लगता है कि इस कठिन वक़्त में लोगों के पास पढ़ने के लिए किताबों का होना ज़रूरी है और नयी किताबों को उन तक पहुँचाना उनकी ज़िम्मेदारी है।
क्या कहानी और कहानी लिखने की जद्दोजहद, उसकी लिखने की प्रक्रिया, एक साथ किसी कहानी में नहीं पिरोयी जा सकती? बिना काँट-छाँट के सारा का सारा लेखा-जोखा। मुझे हमेशा से लगता रहा है कि किसी कहानी को लिखने की जो प्रक्रिया है, उस प्रक्रिया का एक बहुत ही खुला हुआ संसार है, जिसमें पात्र अपनी मर्ज़ी से विचर सकते हैं। मेरे लिए यह प्रक्रिया, कहानी लिखने के बराबर ही दिलचस्प होती है। मैं कहानी लिखने में, हर बार उस कहानी की प्रक्रिया भी साथ लिखता चलता हूँ, पर सम्पादक को कहानी भेजने से पहले उस प्रक्रिया को कहानी से अलग कर देता हूँ। ठीक भी है, इस प्रक्रिया में किसकी दिलचस्पी हो सकती है! कभी लगता है कि प्रकृति ने हम सबको सज़ा दी है कि अब हम सबको अपनी स्मृतियों की जेल में ही रहना है। अपनों के साथ या अकेले अपने घरों में। इसके असर बहुत अजीब हैं। क्या इनके असर को लिखा जा सकता है? हम सब आपस की बातों में अपने इन जेल के दुःखों को छुपा ले जाते हैं। क्योंकि यह ठीक दुःख भी नहीं है, क्योंकि यह ठीक जेल भी नहीं है। हम सब अपने घरों में हैं और पूरी दुनिया अपनी ख़ूबसूरती में बाहर फैली पड़ी है, पर हम उसे छू नहीं सकते, अपनी मर्ज़ी से विचर नहीं सकते। हमने अपनी पूरी आज़ादी को समेटकर अपने घर के कपड़ों की तरह अपने शरीर से लपेट रखा है। तभी हमें पता चला कि हमारे पास घर के कपड़े बहुत कम हैं। हमने कभी सोचा नहीं था कि हमें घर के कपड़ों की इतनी ज़रूरत होगी। हम तो बाहर के कपड़े पहने हुए ही सोते थे। उन्हीं में अपने घरों में भटकते थे। हम अपने घरों में रहते हुए भी कभी घर में थे ही नहीं। हम हमेशा बाहर जाने या बाहर से आने के बीच की तैयारी में सुस्ताने के लिए यहाँ रुकते थे। उस सुस्ताने में हम बार-बार घड़ी देखते थे, कैलेंडर की तारीख़ों में अपने भविष्य को टटोलते थे। अब यह आदत ही हमें खाए जाती है। क्या वक़्त है? क्या तारीख़ है? कौन-सा वार है? यह सब बेमानी हो चला है।
मई के इस महीने में शरीर पूरा पसीने में नहा चुका है। नहाना स्थगित रखा, क्योंकि अभी खाना भी बनाना है। आलस हमेशा खिचड़ी बनवाता है। मैंने फ़्रिज खोलकर बाक़ी सारी सब्ज़ियों को देर तक देखा, इसलिए नहीं कि मैं कोई सब्ज़ी बनाना चाहता हूँ; मैं उन्हें देखता रहा था क्योंकि फ़्रिज की ठण्डक बहुत अच्छी लग रही थी। कुछ देर में फ़्रिज को बंद करके मैंने खिचड़ी बना डाली, पर खिचड़ी खाने का मन नहीं था सो एक कप चाय बनायी और कुछ टोस्ट लेकर मैं खिड़की के पास आकर बैठ गया। गर्मी… पसीना… और बाहर चिड़ियों का कलरव। सारी चीज़ें अपना सेंस खो चुकी-सी लगती हैं। कल रात मेरी नींद तीन बजकर दस मिनट पर खुली थी। मुझे विश्वास नहीं हुआ। जब से मैंने अपनी कहानियाँ अपने सम्पादक को भेजी हैं, रोज़ मेरी नींद तीन बजकर दस मिनट पर खुलती है। मैं उठता हूँ, घड़ी देखता हूँ, पानी पीता हूँ और फिर सो जाता हूँ। पर कल रात मुझे वापस सोने में बहुत वक़्त लगा।
शुरू में दोस्तों के बहुत फ़ोन आया करते थे। हम ग्रुप वीडियोज़ में इन दिनों पर बहुत हँसते थे। फिर कहने को कहे जाने वाले सारे लतीफ़े ख़त्म हो गए और धीरे-धीरे सब ने इस अजीब स्थिति को स्वीकार लिया। अब बात कभी-कभार होती है और वह भी अपने भारीपन में मनोरंजन को आगे धकेलने का श्रम लगने लगती है। यूँ भी किसी के पास ज़्यादा कुछ कहने को नहीं है। अब जो ख़बरें आती हैं, वो मज़दूरों की हैं जो अपने गाँव वापस लौट रहे हैं—हज़ारों किलोमीटर पैदल, साइकिल पर, अपने बच्चों को कंधे पर लादे चले जा रहे हैं। इन तस्वीरों और समाचारों ने भीतर तक झँझोड़ दिया है। इन बातों पर जब भी अपने दोस्तों से बात की है तो हम अंत में एक खलनायक चुनकर अपना पलड़ा झाड़ते पाए गए हैं। पर क्या किया जा सकता है? अपने आस-पास जितनी सहायता हम कर सकते हैं कर रहे हैं, पर एक असहायता और उस असहायता का ग़ुस्सा हमारी बातों में लगातार बना रहता है। सारी बातों को कह लेने के बाद एक चुप्पी में हम खिसियाकर अपनी बातचीत बदल लेते हैं।
पूरा दिन अलग-अलग वक़्त पर लिखने की कोशिश की, पर मज़दूरों की पीड़ा के सामने कुछ भी लिखा नहीं जा रहा था। सो लिखना कुछ वक़्त के लिए स्थगित कर दिया।
कामू की किताब में
बोर्खेज़ की कविता का सुनायी देना
ख़ुद को व्यस्त रखने में एक अजीब-सा भारीपन है। दिन गुज़रता हुआ दिखता है और हम उसे किसी भी तरह बचा नहीं पाते हैं। किसी एक किताब को पढ़ते हुए बार-बार ध्यान उचट जाता है। पिछले कुछ दिनों से तीन-चार किताबों को लिए कभी ड्रॉइंग रूम में जाता हूँ तो कभी बेडरूम में चला आता हूँ। अधिकतर किताबें पुरानी, पढ़ी हुई हैं। नयी कहानियाँ भीतर के भटकने में गुम जा रही हैं। यह बिलकुल वैसा ही है कि किसी भी नये व्यक्ति का जब फ़ोन आता है, जिससे मैंने पहले कभी बात नहीं की है, उससे मैं बहुत देर तक बात नहीं कर पाता हूँ। लगता है जल्दी से वह अपनी पूरी बात कहे और मैं फ़ोन काट दूँ। फ़ोन काटने के बाद बहुत देर तक ख़ुद को कोसता हूँ कि ऐसा क्या ज़रूरी काम था कि उससे बात भी नहीं की ठीक से। मैं इन बंद दिनों में एक छलाँग लगाना चाहता हूँ। छलाँग उन बातों की जिन्हें हम अपनी कहानियों से दूर रखते हैं। जिन्हें हम अंत में किताब छपने के ठीक पहले एडिट करके निकाल देते हैं। क्या वह लिखा जा सकता है?
आज पागलों की तरह पूरा घर साफ़ करने में जुट गया। यूँ लग रहा था कि अगर सब कुछ साफ़-सुथरा और ख़ाली होगा तभी तो कुछ नया भीतर प्रवेश कर सकेगा। भले ही वह नयी धूल के रूप में ही क्यों न आए। जब तक कुछ भी नया है, मुझे कोई दिक़्क़त नहीं है। पूरे घर को साफ़ करके मैं अंत में अपनी किताबों की अलमारी पर गया। उसे साफ़ करते हुए कितनी ही पुरानी किताबों पर निगाह गई, जो यहाँ अभी भी मेरे पास हैं, इसका मुझे कोई अंदाज़ा नहीं था। स्तानधाल, तुर्गनेव, मायकोवस्की… ये सारी किताबें मैंने अपने शुरुआती लिखने के दिनों में रादुगा प्रकाशन के छोटे से स्टॉल से ख़रीदी थीं। रशियन साहित्य बहुत सस्ते दामों पर मिलता था। मुझे लगता था कि सस्ता साहित्य है तो ज़रूर अच्छा साहित्य नहीं होगा। पर घर में किताबें मैं रखना चाहता था ताकि लड़कियों और दोस्तों पर मेरा अच्छा प्रभाव पड़े। इन रशियन किताबों को मैं पीछे की तरफ़ रखता जिससे लोगों को ये कम दिखें… आगे की तरफ़ उन लेखकों को रखता जिन्हें सब जानते थे। शुरुआती लेखन के कठिन ख़ाली दिनों में इस रशियन साहित्य ने ही मुझे सहारा दिया था और मैं इसे किसी बदचलन दोस्त की तरह लोगों से छुपाता रहा। बाद में इन लेखकों की महानता का पता चला। बदचलन दोस्त असल में सच्चा दोस्त निकला। इस दोस्ती का गिल्ट अभी तक है मुझे। इसलिए मैं किताबें बाँटने में आज भी इन किताबों को देने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। ये उस भोले वक़्त के साथी थे, जब अकेलापन रेंगता हुआ धर दबोचता था और मेरी समझ में नहीं आता था कि इस अकेलेपन का क्या करूँ? गोर्की की ‘मदर’, पेलाग्या निलोवना… यह नाम मुझे अभी भी झुरझुरी पैदा कर देता है। मैं बहुत देर तक उन किताबों को छूता रहा। हर पुरानी किताब से कोई-न-कोई कहानी जुड़ी हुई है। तभी मेरी निगाह कामू की ‘आउटसाइडर’ पर पड़ी और उसमें से झाँकता हुआ उनका आख़िरी ख़त दिखा। उस ख़त को खोलते ही दालचीनी की महीन ख़ुशबू मेरे भीतर प्रवेश कर गई। इस ख़त में लिखी हौर-हे लुईस बोर्खेज़ (Jorge Luis Borges) की कविता ‘यू लर्न’ दिखी। मैंने डर के मारे उस ख़त को किताब में वापस रखा और उस किताब को बहुत-सी मोटी किताबों के नीचे घुसा दिया। मैंने महसूस किया कि मेरे माथे से पसीने की एक बूँद बहती हुई मेरे गालों तक पहुँच गई थी।
मैंने लैपटॉप खोला और लिखने बैठा। बार-बार हौर-हे लुईस बोर्खेज़ की कविता ‘यू लर्न’ दिमाग़ में हरकत कर रही थी। मैंने सारी स्मृतियों को समेटा और कोरे पन्ने पर कुछ शब्द लिखने की कोशिश की, वक़्त क्या हुआ है? कौन-सा दिन है? कुछ देर में वह वक़्त और दिन भी उन स्मृतियों में घुसकर मुझे चिढ़ाने लगते हैं। मैं किसी जर्जर बंद दरवाज़े के सामने ख़ुद को खड़ा पाता हूँ! खोल दूँ? प्रवेश करूँ? महज़ यह जानने के लिए कि उस दरवाज़े के पार कौन-सा वक़्त है? स्मृति के कौन-से साल वहाँ दुबके बैठे हैं? चर्र-मर्र की आवाज़ से वह दरवाज़ा खुलता है और मैं दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले रोहित को वहाँ बैठा हुआ देखता हूँ।
वह कविता पढ़ रहा है— ‘यू लर्न…’ मैं एक गहरी साँस भीतर लेता हूँ और वह दरवाज़ा बंद हो जाता है। मानो मैं सो चुका हूँ और कहानी ने अपनी आँखें खोल ली हैं।
जब मैं रात में पेशाब करने को उठा था तो लगा था पीछे कोई खड़ा है, मैंने पलटकर लाइट जलायी तो कोई नहीं था। घड़ी देखी, तीन दस हो रहे थे… फिर तीन दस? कॉफ़ी पीते हुए उस आकृति के बारे में सोचता रहा जो लाइट जलाने के ठीक पहले मुझे दिखी थी। लग रहा था कि वह वही है। हमेशा सुबह होते ही रात के सारे डरों पर हँसी आती है, पर रात में वे सारे डर आपके एकदम बग़ल में सो रहे होते हैं। लगता है कि आप एक ग़लत करवट लेंगे और उनसे सामना हो जाएगा।
फ़ोन पर अंतिमा के मैसेज बार-बार पढ़ता रहा। जब वह कुछ दिनों के लिए अपने कम्पनी के काम से मुम्बई आयी थी तो दिल ख़ुश हो गया था। हम डिनर पर मिले थे। इतने सालों बाद उससे मिलना इतनी ज़्यादा ख़ुशी देगा, यह अनुमान नहीं था मुझे। उसका सम्बन्ध दिल्ली में एक लड़के से चल रहा था, जिसकी मुझे बेहद ख़ुशी थी। बहुत सारी पुरानी बातों और हँसी-ठिठोली के बाद मैंने उसको उसके दोस्त के घर छोड़ दिया था, जिसके साथ वह यहाँ रह रही थी। जाते हुए मैंने उसकी और अपनी तस्वीर खींच ली थी, जिस पर उसने कहा था कि इसे प्लीज़ सोशल मीडिया पर मत लगाना; उसे अच्छा नहीं लगेगा कि मैं तुमसे मिली हूँ। हम पहले भी प्रेमी कम और दोस्त कहीं ज़्यादा अच्छे थे। आज भी जो हमारे बीच एक-दूसरे के प्रति अथाह स्नेह था, जो बहुत सुंदर वक़्त साथ में बिताने का गवाह था। मैं देर तक उसे देखता रहा… उसने इस बात के लिए माफ़ी भी माँगी। मैंने उस वक़्त कहा था कि मैं समझता हूँ, पर मैं नहीं समझा था कि उसे उससे झूठ बोलने की क्या ज़रूरत थी? फिर हमारी कोई बातचीत नहीं हुई थी। अभी कुछ दिनों पहले उसका मैसेज आया तो पता लगा कि वह मुम्बई में ही फँस गई है, लॉकडाउन की वजह से, और जिस दोस्त के साथ वह यहाँ रह रही थी, वह अपने बॉयफ़्रेंड के साथ रहने चली गई है इन दिनों। मैंने अपने दोस्त की मदद से उसके घर किराना और ज़रूरी सामान भिजवा दिया था, फिर उसने कहा कि वह मिलना चाहती है। इस पर मैंने उसे जवाब नहीं दिया। उसके कई मैसेज आ चुके हैं, पर मुझे भीतर से कुछ ठीक नहीं लग रहा था सो मैंने जवाब नहीं दिया। मैं उसे लिखना चाहता था कि हम चोरी से नहीं मिलेंगे, पर इतने सालों बाद इस तरह की बातें करने से आप अपने बिताए अच्छे दिनों का स्वाद ही ख़राब करेंगे, सो मैं अपने फ़ोन से दूर ही रहा।
मैं कब सोया था, मुझे पता नहीं चला। जब उठा तो देखा दरवाज़े से एक छिपकली भीतर प्रवेश कर रही है। क्या वक़्त है, कौन-सा दिन है—मैं इस विचार को झटकता हूँ। मैं पसीने में लथपथ हूँ। मैं जाकर नहाता हूँ। फ़ोन पर मैसेज की घंटी बजती है। मैं फ़ोन देखता हूँ। अंतिमा का मैसेज है कि उसके दोस्त ने उसे स्कॉच लाकर दी है और वह आज शाम को मेरे साथ पीना चाहती है। उसे पता था कि मैं मैसेज देख रहा हूँ। अब मैं सिर्फ़ इतना कर सकता था कि अंतिमा को ब्लॉक कर दूँ, पर ब्लॉक करते ही सारा-का-सारा अतीत एक कड़वाहट में बदल जाएगा।
किसी भी सम्बन्ध में, उस सम्बन्ध के सुंदर क्षणों का एक बोझ होता है। हम किसी भी हद तक साथ बिताए उन पलों को सहेजकर रखना चाहते हैं। कई बार इस कोशिश में हम उस व्यक्ति का बोझ सालों तक अपने कंधे पर ढोते रहते हैं, इस डर से कि कहीं वह हमारे जिए हुए पर थूककर न चला जाए।
अंतिमा का मैसेज फिर आया, ‘you don’t want to meet me?’
मुझे अंतिमा के मैसेज में कड़वाहट दिख रही थी। अब इसे और टाला नहीं जा सकता था। मैंने उसे मैसेज किया, ‘Not today, may be tomorrow, not feeling good.’
उसने तुरंत एक स्माइली भेजी और लिखा, ‘okay, take care, see you tomorrow.’
मैंने फ़ोन दूर फेंक दिया।