Book Excerpt from ‘Kalam Ka Sipahi’, a biography of Premchand by Amrit Rai

किताब अंश: ‘कलम का सिपाही’ – अमृत राय द्वारा लिखी गयी प्रेमचंद की जीवनी

आँखों के आगे से रहे-सहे पर्दे भी गिरते जा रहे हैं। समष्टि का आदर्श जो अब तक केवल एक भावना थी, अब उसे बुद्धि का पक्का आधार मिल रहा है। ‘राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता’ के शीर्षक से मुंशीजी ने लिखा :

“राष्ट्रीयता वर्तमान का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी।… लेकिन प्रश्न यह है कि उससे मुक्ति कैसे हो?

…अर्थ के प्रश्न को हल कर देना ही राष्ट्रीयता के क़िले को ध्वंस कर सकता है।

वेदांत ने एकात्मवाद का प्रचार करके एक दूसरे ही मार्ग से इस लक्ष्य पर पहुंचने की चेष्टा की। उसने समझा, समाज के मनोभाव को बदल देने से ही यह प्रश्न आप ही आप हल हो जायगा, लेकिन इसमें उसे सफलता नहीं मिली। उसने कारण का निश्चय किये बिना ही कार्य का निर्णय कर लिया, जिसका परिणाम असफलता के सिवा और क्या हो सकता था।… उसकी असफलता का मुख्य कारण यही था कि उसने अर्थ को नगण्य समझा।…

जब तक सम्पत्ति मानव समाज के संगठन का आधार है, संसार में अंतर्राष्ट्रीयता का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। राष्ट्रों-राष्ट्रों की, भाई-भाई की, स्त्री-पुरुष की लड़ाई का कारण यही सम्पत्ति है, जितनी मूर्खता और अज्ञानता है, उसका मूल रहस्य यही विष की गाँठ है। जब तक सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार रहेगा, तब तक मानव समाज का उद्धार नहीं हो सकता। मज़दूरों के काम का समय घटाइए, बेकारों को गुज़ारा दीजिए, ज़मींदारों
और पूंजीपतियों के अधिकारों को घटाइए, मज़दूरों और किसानों के स्वत्वों को बढ़ाइए, सिक्के का मूल्य घटाइए, इस तरह के चाहे जितने सुधार आप करें, लेकिन यह जीर्ण दीवार इस तरह के टीपटाप से नहीं खड़ी रह सकती। इसे नये सिरे से गिराकर उठाना होगा।…

संसार आदि काल से लक्ष्मी की पूजा करता चला आता है।… लेकिन संसार का जितना अकल्याण लक्ष्मी ने किया है, उतना शैतान ने नहीं किया। यह देवी नहीं डायन है।

सम्पत्ति ने मनुष्य को क्रीतदास बना लिया है। उसकी सारी मानसिक, आत्मिक और दैहिक शक्ति केवल संपत्ति के संचय में बीत जाती है। मरते-दम भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय इस सम्पत्ति का क्या हाल होगा। हम सम्पत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं। हम विद्वान् बनते हैं सम्पत्ति के लिए, गेरुए वस्त्र धारण करते हैं सम्पत्ति के लिए। घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भाँति-भाँति के वैज्ञानिक हिंसा-यंत्र क्यों बनाते हैं? वेश्याएँ क्यों बनती हैं, और डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एकमात्र कारण सम्पत्ति है। जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन न होगा, जब तक सम्पत्ति-व्यक्तिवाद का अंत न होगा, संसार को शांति न मिलेगी।

(आज यह कैसा भूत मुंशीजी पर सवार है!)

कुछ लोग समाज के इस आदर्श को वर्गवाद या ‘क्लास वार’ कहकर उसका अपने मन में भीषण रूप खड़ा कर लिया करते हैं। जिनके पास धन है, जो लक्ष्मी-पुत्र हैं, जो बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिक हैं, वे इसे हौआ समझकर आँखें बंद करके गला फाड़कर चिल्ला पड़ते हैं। लेकिन शांत मन से देखा जाय तो असपंत्तिवाद के शरण में आकर उन्हें भी वह शांति और विश्राम प्राप्त होगा, जिसके लिए वे संतों और संन्यासियों की सेवा किया करते हैं, और फिर भी वह उनके हाथ नहीं आती।…

क्या वे अपने ही भाइयों से, अपनी ही स्त्री से सशंक नहीं रहते? क्या वे अपनी ही छाया से चौंक नहीं पड़ते? यह करोड़ों का ढेर उनके किस काम आता है? वे कुंभकर्ण का पेट लेकर भी उसे अंदर नहीं भर सकते। ऐन्द्रिक भोग की भी सीमा है। इसके सिवा कि उनके अहंकार को यह संतोष हो कि उनके पास एक करोड़ जमा है, और तो उन्हें कोई सुख नहीं है। क्या ऐसे समाज में रहना उनके लिए असह्य होगा, जहाँ उनका कोई शत्रु न होगा, जहाँ उन्हें किसी के सामने नाक रगड़ने की ज़रूरत न होगी, जहाँ उन्हें छल-कपट के व्यवहार से मुक्ति होगी, जहाँ उनके कुटुम्बवाले उनके मरने की राह न देखते होंगे, जहाँ वे विष के भय के बग़ैर भोजन कर सकेंगे? क्या यह अवस्था उनके लिए असह्य होगी?…

बेशक उनके पास बड़े-बड़े महल और नौकर-चाकर और हाथी-घोड़े न होंगे, लेकिन यह चिन्ता, संदेह और संघर्ष भी तो न होगा।”

सम्पत्तिहीन, श्रेणीहीन, समष्टिमूलक समाज के विरुद्ध कोई युक्ति, कोई तर्क सुनने के लिए मुंशीजी तैयार नहीं है, सब झूठे तर्क हैं, सम्पत्ति को बनाये रखने के :

“कुछ लोगों को संदेह होता है कि व्यक्तिगत स्वार्थ के बिना मनुष्य में प्रेरक शक्ति कहाँ से आये। फिर विद्या, कला और विज्ञान की उन्नति कैसे होगी? क्या गोसाई तुलसीदास ने रामायण इसलिए लिखा था कि उस पर उन्हें रायल्टी मिलेगी? आज भी हम हज़ारों आदमियों को देखते हैं जो उपदेशक हैं, लेखक हैं, कवि हैं, शिक्षक हैं, केवल इसलिए कि इससे उन्हें मानसिक संतोष मिलता है। अभी हम व्यक्ति की परिस्थिति से अपने को अलग नहीं कर सकते, इसलिए ऐसी शंकाएँ हमारे मन में उठती हैं। समष्टि कल्पना के उदय होते ही यह स्वार्थ चेतना स्वयं संस्कृत हो जायगी।”

कहीं कोई दुविधा नहीं, झिझक नहीं है। विचारों की बड़ी लंबी और टेढ़ी-मेढ़ी यात्रा करके मुंशीजी इस जगह पहुंचे हैं, जो कि एक ठहरने का मुक़ाम है।

अब तो एक दूरबीन आँख उन्हें मिल गयी है, एक समग्र विराट् दृष्टि एक पक्की कसौटी जिसमें कोई धोखा नहीं है। ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’ के उलझे हुए, संघर्षपूर्ण प्रश्न पर विचार करते हुए उन्होंने 15 जनवरी 1934 के ‘जागरण’ में लिखा –

“साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल चढ़ाकर आती है। हिंदू अपनी संस्कृति को क़यामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गए हैं कि अब न कहीं मुसलिम संस्कृति है न कहीं हिंदू संस्कृति, न कोई अन्य संस्कृति, अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति, मगर हम आज भी हिंदू और मुसलिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं, हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है लेकिन ईसाई संस्कृति और मुसलिम या हिंदू संस्कृति नाम की कोई चीज़ नहीं है।…”

यही सब तो बातें हैं बग़ावत से भरी हुई जो बाहर आने के लिए तड़प रही हैं और तड़पती रहती हैं वर्ना क्या पड़ी थी किसी को कि यह सब आफ़त मोल लेता – हाँ मोल लेता, अपनी किताबों की आमदनी फूंककर, अपनी ज़िन्दगी का आराम-चैन गँवाकर। कभी मुंशीजी इश्तहारों के लिए जैनेन्द्र को लिखते हैं कि बिड़ला से मिलो, मेरी ख़ातिर मिलो और उनको बात समझाओ, कभी दयानरायन निगम को लिखते हैं कि कानपुर में फ़्लेक्स और लाल इमली के इश्तहार हासिल कीजिए, कभी बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखते हैं कि बंगाल केमिकल बहुत इश्तहार करता है, क्या हमको भी उसका इश्तहार नहीं मिल सकता? छटपटाते हैं, हर तरफ़ हाथ-पैर मारते हैं। सब इसलिए कि कुछ कहना है, जिसे कहना ज़रूरी है।

लेकिन है पूरी फाँसी। 18 अगस्त 1933 के ख़त में चतुर्वेदी जी को उन्होंने लिखा था –

“बड़े दुःख की बात है कि मेरा कोई पत्र अभी तक अपने पैरों पर नहीं खड़ा हुआ। हंस तो मुझे बहुत महँगा नहीं पड़ रहा है लेकिन जागरण असह्य हो रहा है। मेरी अक़ल चकरा रही है कि कैसे इस स्थिति से बाहर निकलूँ। मुझे हर महीने क़रीब 200 का घाटा हो रहा है। आख़िर कब तक यह हालत चल सकती है? एक बार उसको शुरू करने की ग़लती करने के बाद अब अहंकार उसे बंद करने की राह में आड़े आता है। लोग मुँह ही मुँह में कैसे हँसेंगे, खिल्ली उड़ायेंगे!”

मगर वाह रे हिम्मत, अभी कुछ ही महीने पहले तो उन्होंने निगम साहब को लिखा था –

“हाँ, रोज़ाना जागरण लखनऊ से निकालने का इंतज़ाम हो रहा है।… हफ़्तेवार के नुक़सान ने रोज़ाना पर आमादा किया है।”

ख़ैरियत हुई कि वह बात आयी-गयी हो गयी।… लेकिन इन छ:-सात महीनों में अक़ल शायद कुछ ठिकाने आ गयी है। पहली सितंबर को उन्होंने जैनेंद्र को लिखा :

“आजकल इतनी मंदी है कि समझ में नहीं आता, काम कैसे चलेगा। मज़दूरों को वेतन चुकाने में कठिनाई पड़ रही है।”

फिर इसी ख़त में आगे चलकर :

“…समाचारपत्रों की आमदनी का दारोमदार विज्ञापनों पर है। मैंने बिड़ला से मिलने को कहा था। अपनी ग़रज़ से मत मिलो, मेरी ग़रज़ से मिलो, पत्र दिखाओ, उसकी चर्चा करो।… उनके पास कई मिलें हैं, एकाध पृष्ठ का विज्ञापन उनके लिए तो कुछ नहीं है लेकिन मेरे और तुम्हारे लिए वह पचास रुपये महीने का सहारा है। भाई, यह संसार चुपके से रामभरोसे बैठने वालों के लिए नहीं है।… यहाँ झेंपू और मेरे जैसे शर्मीले आदमियों का गुज़ारा नहीं। तुम अपने में यह ऐब न आने दो। है भी नहीं। मैं तो कौड़ी दाम का नहीं हूँ।…”

अगले महीने और भी हताश होकर लिखा :

“…जो कुछ आमदनी होती है वह ऊपर-ऊपर उड़ जाती है। वेतन तक को पूरी नहीं पड़ती। काग़ज़ के कई सौ रुपये बाकी पड़े हैं।… मैं अपनी ख़ामियों को समझ रहा हूँ, अपनी ग़लतियों को देख रहा हूँ। पर यह आशा है कि शायद कुछ हो जाय। हिम्मत बाँधे हुए हूँ। इधर एक महाशय फिर एक लिमिटेड प्रकाशक संघ खोलने का विचार कर रहे हैं। मैं भी शरीक़ हो गया। कुछ लोगों ने हिस्से लेने का वचन भी दिया। मगर वह ऐसे ग़ायब हुए कि कुछ पता ही नहीं कहाँ है।…

हंस में दम नहीं है, पर फिर भी शहीदों में शामिल होना चाहता है। मैंने सोच लिया है, जनवरी तक और देखूँगा। अगर उस वक़्त तक जागरण कुछ ढंग पर न आया तो इसे बंद कर दूँगा।… शायद मेरी कामनाएँ सब यों ही रह जायेंगी। मुश्किल तो यह है कि व्यवसाय में जितना मैं कच्चा हूँ, उतने ही तुम भी कच्चे हो। वर्ना क्या बात है कि ऋषभचरण तो सफल हों और हम लोग असफल रहें। उपन्यास लिखता था, वह भी बंद है लेकिन अब ज़्यादा प्रतीक्षा न करूँगा। जनवरी तक और देखता हूँ। तुम्हारी सलाह न मानी, वर्ना इतना घाटा क्यों उठाता। लेकिन कोई काम बंद करते बदनामी होती है और यही लाज ढो रहा हूँ।…

मैं तुमसे सच कहता हूँ, प्रेस और पत्रों पर मैं मरा जा रहा हूँ। कुछ लेखों से, कुछ रायल्टियों से, कुछ उर्दू पुस्तकों से अपनी गुज़र कर रहा हूँ। लेकिन बहुत देख चुका, अब यह तमाम बंद कर दूंगा।”

अगले महीने लिखा :

“जागरण का भार मेरे सिर से उतरा जा रहा है। यहाँ से बाबू संपूर्णानन्दजी उसे अर्द्ध-साप्ताहिक रूप में निकालने जा रहे हैं। आशा है दो-तीन दिन में सब बात तय हो जाएगी।”

काश! मगर वह अभी नहीं होना था।

अगले महीने 16 सितंबर 1933 को मुंशीजी ने लिखा –

“जागरण साबिक़ दस्तूर चल रहा है। बाबू सम्पूर्णानन्दजी को शायद उनके मित्रों ने मदद नहीं दी। अब मैं उसको बंद करने की फ़िक्र में हूँ।”

12 जनवरी 1934 को बनारसीदासजी को लिखा :

“मेरी आर्थिक दशा ठीक नहीं है। इस साल 2000 का घाटा रहा। इसने मेरी कमर तोड़ दी। मैं प्रेस और प्रकाशन और पत्र सभी कछ लीडर प्रेस के हवाले कर देने के लिए बातचीत कर रहा हूँ। देखूँ कैसा क्या होता है।”

हालत बराबर संगीन होती जा रही है।

आखिर 14 फरवरी 1934 को उन्होंने जैनेन्द्र को लिखा :

“काशी अंक निकला। चार सौ वी.पी. गए, 175 वसूल हुए, 225 वापस आये। बस, बधिया बैठ गयी।… इस वापसी का नतीजा यह कि काग़ज़वाले को 1300 में कुल 300 दे सका। एक हज़ार पूरे उसके सर पर सवार है। जागरण के काग़ज़वाले का भी 1000 से कुछ ऊपर ही चढ़ा हुआ है। जो-जो बातें सोची थीं, सब ग़ायब हो गयीं। ऐसी माली हालत में क्या कोई प्रोग्राम बाँधूं क्या करूँ। तुम्हें मालूम होगा कुछ दिनों से लीडर प्रेस वालों से इस सारे संकट को मिटा देने का प्रस्ताव था। बीच में वह प्रस्ताव स्थगित कर दिया था। पर जब ऐसी परिस्थिति आ पड़ी है तो अब इसके सिवा कोई राह नहीं है कि किसी तरह इस झगड़े से गला छुड़ाकर भाग निकलूँ।

लीडर को एक प्रस्ताव लिख भेजा है। वे यहाँ 18 को आने वाले हैं। आशा करता हूँ कि उस दिन यह मामला तय हो जायगा। पहले इरादा था कि हंस उन्हें दे दूँगा और प्रेस चलाता रहूँ लेकिन सारी विपत्ति की जड़ तो यह प्रेस है। न जाने किस बुरी साइत में उसकी बुनियाद पड़ी थी। दस हज़ार रुपये और ग्यारह साल की मेहनत और परेशानियाँ अकारथ हो गयीं। इसी प्रेस के पीछे कितने मित्रों से बुरा बना, कितनों से वादाख़िलाफ़ी की, कितना बहुमूल्य समय जो लिखने-पढ़ने में कटता, बेकार प्रूफ़ देखने में कटा। मेरी ज़िन्दगी की यह सबसे बड़ी ग़लती है।”

ग़म की इस तमाम दास्तान में एक ख़ुशख़बरी यही है कि सेवासदन का फ़िल्म हो रहा है। उस पर मुझे साढ़े सात सौ मिले… ‘साढ़े सात सौ! वल्लाह आपने तो लूट लिया बेचारे को!!’… लेकिन तंगी में जब कोई रकम हाथ आ जाती है तो वे सारी ज़रूरतें जो मुँह दबाये पड़ी थीं, यकायक चीख़ मारने लगती हैं। किसी के पास कपड़े नहीं हैं, किसी के पास जूते नहीं हैं, किसी की लड़की की शादी के लिए कुछ देना चाहिए। ग़रज़ वह रुपये दो-चार दिन में हवा हो जाते हैं….

महालक्ष्मी सिनेटोन ने यह शानदार (!) रक़म देकर ‘सेवासदन’ लिया था, और चित्र का निर्देशन किया नानूभाई वकील ने, जो घटिया तरह के एण्टरटेनर्स बनाने के लिए मशहूर थे। उन्होंने किताब के उर्दू नाम को ज़्यादा पसंद किया और उसी ‘बाज़ारे हुस्न’ के नाम से वही घटिया नाच-गानेवाली ठेठ बंबइया तस्वीर बनाकर रख दी। मुंशीजी ने उसको देखा तो अपने लड़के को तार की ज़बान में बस इतना लिख सके – Sevasadan released. Saw. Fair but not satisfactory. (सेवासदन रिलीज हो गया। देखा। अच्छा ही है पर संतोषजनक नहीं)

लेकिन यही सेवासदन, लगभग इन्हीं दिनों, तमिल में बना तो बात ही और थी। के. सुब्रह्मण्यम ने उसका निर्देशन किया और बाद की विख्यात गायिका एम. शुभलक्ष्मी के जीवन में पहली बार रंगमंच पर उतरकर सुमन की भूमिका ग्रहण की। नटेश ऐयर ने गजाधर पाण्डे के रूप में बड़ा कमाल किया। सुब्रह्मण्यम अभी जीवित है और तमिल फ़िल्म-जगत के चोटी के लोगों में गिने जाते हैं।

अगर सफलता की कसौटी पैसा है तो न वह आज सबसे सफल लोगों में हैं और न तब थे, लेकिन अगर सफलता की कसौटी कला के इस अत्यंत सामाजिक माध्यम को वस्तु और शिल्प के नये शिखरों पर ले जाना, अभिव्यक्ति के नये रास्ते खोलना हो तो सुब्रह्मण्यम तमिल फ़िल्म जगत् का एक ऐसा नाम है जो कभी भूला नहीं जा सकता। कथाकार के सामाजिक संदेश और कहानी की आत्मा की पूरी तरह रक्षा करते हुए सुब्रह्मण्यम ने ‘सेवासदन’ बनाया जो कि रुचिसम्पन्न लोगों के बीच बहुत पसंद किया गया।

लीडरवालों से बातचीत चल रही थी – इसी आधार पर कि हंस का और पुस्तकों का मूल्य जोड़ लिया जाय और उतने हिस्से मुंशीजी को लीडर कंपनी में मिल जायें। हंस के लिए मुंशीजी ने दो हज़ार माँगे थे- “हालाँकि इस पर मैं 4000 से ज़्यादा भेंट कर चुका हूँ। पुस्तकों का मामला साफ़ है। पुस्तकों की असली लागत निकाल ली जाए। जागरण को चलाना मंज़ूर हो तो उसे चलाया जाय। अच्छा सोश्लिस्ट पत्र बना दिया जाय। रहा यह प्रेस, यहाँ रहे या कहीं और मुझे इसमें कोई एतराज़ नहीं। हाँ काम ऐसे हाथों में हो जो महज़ ‘ड्रीमर्स’ न हों, जैसा मैं हूँ और तुम (जैनेन्द्र) हो, बल्कि कुछ व्यावसायिक बुद्धि भी रखते हों।…”

लेकिन सौदा पटता नहीं दिखायी देता था और उधर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सम्पूर्णानन्दजी और नरेन्द्र देव जी से भी बातें चल रही थीं। हालत रोज़-ब-रोज़ दूभर होती जा रही थी, मगर पर्चा जब तक निकल रहा है उसकी वही आनबान है और मुंशीजी हर हफ़्ते कभी इस पर रद्दे कभी उस पर कोड़े लगाते चले जा रहे हैं।

यह तो ख़ैर मुंशीजी की तबीयत है। जीवट उसका एक खास जुज है, जिसे रोने-झीखने से कुछ वास्ता नहीं। लेकिन इसमें शक नहीं कि हिंदी पत्रों, क्या दैनिक, क्या साप्ताहिक, क्या मासिक, सभी का हाल ख़राब है। पढ़ने वालों में रुचि की दरिद्रता, पत्रों में सामग्री की। और कैसे न हो पत्रों में सामग्री की दरिद्रता, कितने साधनहीन हैं बेचारे। मुंशीजी से ज़्यादा कौन जानता है इस बात को, जिनके पास भरोसे का प्रूफ़रीडर भी नहीं है। ढेरों प्रूफ़ खुद ही पढ़ना पड़ता है। अजब दुष्ट चक्र है। लोग, जो पत्र ख़रीद सकते हैं और ख़रीदना चाहते हैं, हिंदी पत्र नहीं ख़रीदते क्योंकि उनका स्तर बहुत संतोषजनक नहीं है, और स्तर संतोषजनक हो नहीं सकता जब तक लोग उन्हें अपनायें नहीं। इसी झमेले में ग़रीबों की मिट्टी ख़राब हो रही है। उनकी ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है – कुत्ताघसीटी!

तो भी कहीं पर तो इस दुष्ट चक्र को काटना ही होगा। पत्रों को सामग्री की दृष्टि से अधिक सम्पन्न बनाओ। उसके लिए सबसे पहले देशी-विदेशी भाषाओं से अच्छे अनुवाद कराने की व्यवस्था होनी चाहिए। उसके बिना, केवल मौलिक लेखों से, पेट नहीं भर सकता।

और योजनाशूर तो मुंशीजी पुराने हैं, मई 1933 में दिल्ली के ‘अर्जुन ‘ में उन्होंने एक अनुवादक-मंडल के संबंध में अपनी विस्तृत योजना पेश की।

यह हो वह हो, ऐसे हो वैसे हो – सरपट दौड़ चला मुंशीजी का दिमाग़। इलाहाबाद में रामचन्द्र टण्डन को उसमें बहुत दिलचस्पी हुई और चिट्ठियाँ दौड़ने लगीं। अभी तक तो केवल रेखाएँ थीं अब रंग भरा जाने लगा।

मुंशीजी को एक सहृदय समानधर्मा मिला तो रही-सही कसर भी पूरी हो गयी, गो मुंशीजी कहे जाते थे (टण्डन को पत्र- 23.5.33) कि – “मैं तो एक हरकारा मात्र हूँ और सदा ऐसे कामों में हाथ डालने की चेष्टा करता रहता हूँ जिनके लिए मैं नहीं बनाया गया। पत्रकार कला से मेरा स्वभावगत विरोध है पर परिस्थितियों से विवश होने के कारण मैं उसे स्वीकार करने को बाध्य हुआ हूँ। मेरी यह भावना कि मैं किसी क्षेत्र में कोई स्थायी चिह्न अंकित करने में असमर्थ हूँ, मुझे मूर्खतापूर्ण कामों के लिए उकसाती रहती है।…”

तय पाया कि कार्यालय इलाहाबाद में होगा। रामचन्द्र टण्डन उसकी देखभाल करेंगे। समिति ने इन्द्र वाचस्पति, बनारसीदास चतुर्वेदी, डॉ. हेमचन्द्र जोशी, श्रीप्रकाश, श्रीकृष्णदत्त पालीवाल होंगे। आमदनी का तखमीना, खर्च का बजट, लेखों की विषयसूची, पत्र-पत्रिकाओं के नाम, क्लर्क, चपरासी, अनुवादक, उनके काम, उनके वेतन आदि सब कुछ तय हो गया। आफ़िस के पोस्टेज ख़र्च तक, छोटी से छोटी चीज़ भी एकएक समझ ली गयी, टाँक ली गयी। अब बस काम शुरू करने की देर थी, लेकिन सवाल था कि म्याऊँ का ठौर कौन पकड़े? वक़्त न मुंशीजी के पास था न टण्डन जी के पास और न शायद ज़माने को अब तक इस चीज़ की ज़रूरत का एहसास ही हुआ था, बस ख़याली पुलाव पककर रह गया।

कुछ-कुछ ऐसी ही चीज़ लेखक-संघ की उनकी स्कीम भी थी जिसे मुंशीजी ने लगभग इन्हीं दिनों इलाहाबाद के अपने एक और दोस्त सत्यजीवन वर्मा के ज़रिये आगे बढ़ाने की, शक्ल देने की कोशिश की। लेकिन उसका भी कुछ वैसा ही हश्र हुआ, क्योंकि जहाँ कथा-कहानी के क्षेत्र में विचारों का बीज छिड़क देना काफ़ी होता है, वहाँ इस मैदान में बीज छिड़कने भर से कुछ नहीं होता। यहाँ तो जो राह दिखाये वह आगे आये वाली बात है – और उसके लिए पहले तो मुंशीजी के पास समय ही न था और समय मान लीजिए किसी जादू से हो भी जाता तो संगठन-क्षमता कहाँ से आती, उसमें तो मुंशीजी कोरे से भी कोरे थे।

मगर ख़ैर, वह जो भी हो, इस लेखक संघ की एक अलग दास्तान है और उसमें सबसे दिलचस्प बात यह है कि रामचन्द्र टण्डन ने ही उसका सबसे डटकर विरोध किया।

निश्चय ही किसी अभागे क्षण में इस विचार की उदभावना हुई थी, क्योंकि जब यह विचार सम्यक रूप से एक प्रस्ताव के रूप में हिंदी संसार के सामने आया तो उसके रूप, विधान, कर्म-सूची आदि को लेकर ऐसा बवंडर उठा कि लेखक-संघ उसमें हवा हो गया। बीज रूप में वह लेखक और प्रकाशक का झगड़ा था। रामचन्द्र टण्डन ने, जो इस संघ को लेखकों के ट्रेड यूनियन के रूप में ही देखते थे, डटकर उसकी गोलमोल कल्पना का विरोध किया और अकेले ही लेखक-संघ के संयोजक और श्री रामनरेश त्रिपाठी और श्री किशोरीदास वाजपेयी आदि से मोर्चा लेते हुए लेखक-संघ को क़रीब-क़रीब दफ़ना दिया। ख़ुद मुंशीजी भी, बावजूद एक भुक्तभोगी लेखक होने के, लेखक-संघ को लेखकों के ट्रेड यूनियन के रूप में, जिसका अकेला काम प्रकाशकों से टक्कर लेना हो, न देख पाते थे।

दिसंबर सन् 34 के ‘हंस’ में लेखक-संघ पर टिप्पणी देते हुए मुंशीजी ने लिखा था:

“…संघ लेखकों के स्वत्व की रक्षा करेगा, लेकिन कैसे? कुछ सज्जनों का विचार है कि लेखक संघ उसी तरह लेखकों के हितों और अधिकारों की रक्षा करे जैसे अन्य मजूर-संघ अपने सदस्यों की रक्षा करते हैं, क्योंकि लेखक भी मजूर ही हैं, यद्यपि वह हथौड़े और बसूले से काम न करके क़लम से काम करते हैं। और लेखक मजूर है तो प्रकाशक पूँजीपति हुए। इस तरह यह संघ लेखकों को प्रकाशकों की लूट से बचाये, और यही उसका मुख्य काम हो। कुछ अन्य सज्जनों का मत है कि लेखक-संघ को पूंजी खड़ी करके एक विशाल सहकारी प्रकाशन-संस्था बनाना चाहिए, जिससे वह लेखक को उसकी मज़दूरी की ज़्यादा उजरत दे सके…”

प्रश्न पर अपनी राय देते हुए मुंशीजी ने लिखा – “मौजूदा हालत ऐसी नहीं है कि प्रकाशकों को लेखकों के साथ ज़्यादा न्यायसंगत व्यवहार करने पर मजबूर किया जा सके। …इस समय एक भी ऐसा साहित्यग्रन्थ-प्रकाशक नहीं है जो नफ़े से काम कर रहा हो। जो प्रकाशक धर्मग्रन्थों या पाठ्य पुस्तकों का व्यापार करते हैं, उनकी दशा इतनी बुरी नहीं है, कुछ तो ख़ासा लाभ उठा रहे हैं, लेकिन जो लोग मुख्यकर साहित्य ग्रन्थ ही निकाल रहे हैं, वे प्रायः बड़ी मुश्किल से अपनी लागत निकाल पाते हैं। कारण है साधारण जनता की साहित्यिक अरुचि। जब प्रकाशक को यही विश्वास नहीं कि किसी पुस्तक के काग़ज़ और छपाई की लागत भी निकलेगी या नहीं, तो वह लेखकों को पुरस्कार या रायल्टी कहाँ से दे सकता है? साहित्यिक रचनाओं का प्रकाशन प्रायः बन्द-सा है… पहले ऐसी परिस्थिति तो पैदा हो कि प्रकाशक को प्रकाशन से नफ़े की आशा हो…”

हिंदी प्रकाशन-व्यवसाय की घोर अविकसित स्थिति को देखते हुए मुंशीजी की बात कुछ ऐसी भयानक न थी, काफ़ी पते की थी, व्यावहारिक, दूरदर्शी, लेकिन टण्डन जी को अपने सैद्धांतिक उत्साहवश उसमें कुछ दूसरी ही गंध मिली और उन्होंने 31 दिसंबर के अपने पत्र में काफ़ी क्षुब्ध होकर लिखा –

“…अभी-अभी पत्र में इस विषय को लेकर पंडित रामनरेश त्रिपाठी के साथ मेरा विवाद समाप्त हुआ है और मैं फिर एक नये विवाद में, और सो भी आपके साथ, नहीं पड़ना चाहता। लेकिन मैं आपके विचारों से अपनी पूर्ण असहमति व्यक्त करने के लिए आपकी अनुज्ञा चाहता हूँ। दुर्भाग्यवश ऐसा लगता है कि वे लेखक, जो प्रकाशक भी बन गए हैं, अपने पुराने सहधर्मियों के प्रति सहानुभूति की क्षमता खो बैठे हैं। आपकी भावधारा ठेठ प्रकाशकों की भावधारा है।…

प्रकाशक व्यापार की मंदी का शोर क्यों मचाते हैं? ख़र्च की दूसरी मदों का भुगतान तो वह बड़े मज़े में करते हैं और जैसे ही लेखक को पैसा देने की बात आयी, बस यही बात, देखो, व्यापार कैसा मंदा जा रहा है! मैं पूछता हूँ, क्या यह ईमानदारी की बात है? क्या आप नहीं मानते कि प्रकाशकों में बड़े बड़े मगरमच्छ पड़े हुए हैं?… मैं आपसे मदद पाने की आस लगाये हूँ, यह नहीं कि आप प्रकाशक के वकील बनकर सामने आये।…”

इसी सूत न कपास कोरियों में लट्ठमलट्ठा के पीछे वह चीज़ ठण्डी हो गयी – हाँ, उसका मुखपत्र ‘लेखक’ कुछ दिनों तक जैसे-तैसे चलता रहा।

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