भारत के महान साहित्यकार, हिन्दी लेखक और उर्दू उपन्यासकार प्रेमचंद किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। प्रेमचंद ने अपने जीवन काल में कई रचनाएँ लिखी हैं। अपने पूरे जीवन काल में 12 से अधिक उपन्यास और 250 कहानियाँ समेत कई निबंध लिखे। इसके अलावा उन्होंने कई विदेशी साहित्य का हिन्दी में अनुवाद भी किया। प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश में वाराणसी के लम्ही गाँव में हुआ था। प्रेमचंद ने अपने जीवन के कई वर्ष ग़रीबी और आर्थिक तंगी में गुज़ारे। लेकिन इन सबके बाद भी प्रेमचंद ने अपनी मेहनत और लगन के बल पर अनेक रचनाओं को सूचीबद्ध किया। देश के महान साहित्यकार की जयंती पर उनकी जीवनी से यह अंश पढ़िए। मुंशी प्रेमचंद की जीवनी को उनके पुत्र और लेखक अमृत राय ने लिखा है। उन्होंने लिखा है कि अपने समय को खुली आँखों देखने और निर्भय होकर अपनी राय रखने वाले प्रेमचंद इस जीवनी में हर कोण से प्रकाशित हैं।

पुस्तक अंश: प्रेमचंद : कलम का सिपाही

अमृतराय

अगस्त की अठारह तारीख़, शाम के पाँच बजे, बीमारी से टूटे हुए लाग़र प्रेमचन्द, अपनी खटिया-मचिया, बर्तन-भाँड़े समेत, अपनी तीन बरस की बेटी कमला और पत्नी के साथ बस्ती से गोरखपुर पहुँचे।

क्वार्टर एक रोज़ बाद ख़ाली होने वाला था। लिहाज़ा उनका अपना इरादा अगले रोज़ ही रवाना होने का था। सफ़र के नाम से यों भी उनकी जान पर बनती थी और फिर इस वक़्त तो बाल-बच्चों के साथ पूरी गिरस्ती समेत सफ़र था।

लेकिन बीवी सब तैयारी कर चुकी थी और उन्हें उसी रोज़ रवाना हो जाना पड़ा। पर दिल में बराबर डर लगा हुआ था कि रात को कहीं कोई बात न हो।

और वही हुआ जिसका डर था। वहीं, उसी बरामदे में, जहाँ उस रात उन्हें ठहराया गया था, उनके बड़े लड़के धुन्नू (श्रीपत) के आगमन की तैयारी हो गई। रात का वक़्त, नई जगह, न किसी से जान न पहचान, न दाई का पता न डाक्टर का। ख़ासी मुसीबत का सामना था—लेकिन जिस अपनपौ से दूसरे मास्टर लोग पेश आए, उसके कारण कोई तकलीफ़ नहीं हुई और सब कुछ बहुत आसानी से हो गया। एक साहब ने बड़ी मुहब्बत से उन्हें ले जाकर ख़ुद अपने घर में ठहरा दिया था। नई जगह के इस पहले ही परिचय से मुंशीजी का मन कृतज्ञता से भर उठा। धीरे-धीरे मुंशीजी पर यह बात खुली कि इस अपनपौ के पीछे जहाँ सब लोगों का एक साथ रहना-सहना था, वहाँ हेडमास्टर बेचनलाल का व्यक्तित्व भी था।

बेचनलाल उतने ही स्नेही थे जितने बस्ती के भीखनलाल रूखे। बेचनलाल को सबके साथ घुल-मिलकर रहना अच्छा लगता था, भीखनलाल अपने और मातहतों के बीच एक दीवार खड़ी रखते। दिल जैसा भी हो, अफ़सरियत उनमें कूट-कूटकर भरी थी। एक ही मंत्र उन्होंने सीखा था जीवन में—कठोर अनुशासन। हरदम उसी का डंडा घुमाया करते। बेचनलाल दिल के नेक भी थे और मुँह के मीठे भी। अनुशासन का हाल उन्हें बस इतना पता था कि सबको जी लगाकर काम करना चाहिए, ड्यूटी में कोताही न करनी चाहिए—और विश्वास करते थे कि ऐसा ही होता होगा। अगर और किसी कारण से नहीं तो उनके इसी सरल विश्वास के कारण लोग काफ़ी जी लगाकर काम करते थे।

मुंशीजी की नियुक्ति बेचनलाल के नीचे, सेकेंड मास्टर के रूप में साठ रुपए पर हुई थी। खुली तबीयत के एक आदमी को अपने ही जैसा दूसरा मिल गया। और दोनों की चूल शुरू से ही अच्छी बैठ गई। उन्हीं की कृपा से छः महीने के अन्दर ही दस रुपए की तरक़्क़ी भी हो गई—इलाहाबाद से एक महीने की फर्स्ट एड की ट्रेनिंग लेकर लौटने पर, जिसके लिए बेचनलाल साहब ने मुंशीजी को चुना और उनकी बीवी की बीमारी के बावजूद, ज़िद करके भेजा। इसके बाद साल-डेढ़ साल और बीतने पर मुंशीजी को बोर्डिंग हाउस का सुपरिंटेंडेंट बना दिया गया। उससे और भी पन्द्रह रुपए महीने की तरक़्क़ी मिल गई।

मुंशीजी ख़ुश थे, काफ़ी ख़ुश। हेडमास्टर नेक। साथी मास्टरों में भाईचारा। लड़के स्नेही, आज्ञाकारी। और फिर जगह भी कितनी अच्छी थी। आने के साथ जी को भा गई थी। छः महीने पहले जब एक बार एक दिन के लिए आए थे तब भी मन ललचा उठा था।

पुरानी बस्ती के उस गुंजान मुहल्ले के बाद पच्चीसों एकड़ ज़मीन में फैला हुआ यह नार्मल स्कूल चीज़ ही और थी। एक तरफ़ ईदगाह का बड़ा-सा मैदान, दूसरी तरफ़ कलक्टर साहब का बँगला। मगर सब दूर-दूर। स्कूल का अपना अहाता पच्चीसों एकड़ का था। स्कूल, बोर्डिंग सब कुछ उसी के अन्दर। कहाँ मिलती है ऐसी जगह। साँस लेते दम घुटता था वहाँ—सँकरी-सँकरी सी गलियाँ, गिरते-पड़ते पुराने मकान, एक पर एक चढ़े हुए। और अब? पूरी बादशाहत समझो। जितनी चाहो खुली हवा, मस्त धूप। वाक़ई बड़ी सेहतमन्द जगह है। बच्चों को खेलने-कूदने का भी बड़ा आराम है। किसी बात का डर नहीं। चोर-चहरी से भी नजात मिली। अलग ही एक छोटी-सी दुनिया है। शहर के पास भी और दूर भी। जाना हो तो उर्दू बाज़ार मुश्किल से दो फर्लांग और न जाना हो तो कभी न जाइए, हमें मतलब ही क्या बाक़ी दुनिया से।

गोरखपुर उसके लिए नई जगह नहीं है। यहाँ के एक-एक गली-कूचे से वह परिचित है। बचपन के कई बरस उसने यहाँ बिताए हैं। आवारागर्दी भी ख़ूब की है। ‘तलिस्मे-होशरुबा’ और ‘हरमसरा’ के क़िस्से भी यहीं पढ़े और सुने हैं। बाले मियाँ के मैदान में पतंगों का लड़ना भी घंटों यहीं देखा है और तरस-तरसकर रह गया क्योंकि ख़ुद पतंग उड़ाने के लिए पास में पैसे नहीं थे। ज़िन्दगी की पहली सिगरेट भी तेरह साल की उम्र में उसने यहीं पी है। बाज़ारू लड़कों के साथ गन्दी बातचीत के मज़े भी उसने शायद यहीं पहली बार उठाए हों। अंग्रेज़ी पढ़ाई भी उसकी यहीं शुरू हुई थी—रावत पाठशाला में। रावत पाठशाला नार्मल स्कूल से लगा हुआ है। लेकिन तब यह नार्मल स्कूल नहीं था। तब तो यहाँ बस एक बीहड़ मैदान था। रात को इधर से निकलते डर लगता था। किसी पेड़ पर कोई भूत रहता था किसी पर कोई ब्रह्मपिशाच—और किसी पर कोई चुड़ैल। रात को इधर से कोई निकलता थोड़े ही था। हाँ, दिन की धमाचौकड़ी के लिए यह मैदान अच्छा था।

गोरखपुर के साथ उसकी न जाने कितनी कड़वी-मीठी स्मृतियाँ जुड़ी हैं। यहीं से आठवीं पास करके वह अपने पिता के साथ बनारस गया था। फिर नवीं में उसका नाम लिखाया गया। फिर उसकी शादी कर दी गई। फिर पिता जी नहीं रहे। और भी न जाने क्या-क्या हुआ। अब फिर घूम-फिरकर वह इसी गोरखपुर में आ गया है। अच्छी-बुरी बहुत-सी स्मृतियाँ हैं पर उसको अच्छा लग रहा है यहाँ आकर, बहुत अच्छा लग रहा है। शरीर और मन दोनों से कुछ हल्का।

हाँ, घर में ज़रूर आए दिन बीवी की खटपट चाची से हो जाया करती है। कभी चाची मुँह में अपनी गुड़गुड़ी दबाये आकर बहू का रोना रोने लगती हैं कभी बीवी नाराज़ होकर कोपभवन में जा बैठती है। हर रोज़ कुछ-न-कुछ लगा रहता है। बड़ी साँसत में जान फँसी है। सब कुछ तो करके हार गया। कभी एक की बात ठीक मालूम होती है और कभी दूसरे की। अक़्ल चकरा जाती है। इन लोगों को तो वकील होना चाहिए था—कितनी ख़ूबसूरती से अपना मुक़दमा पेश करती हैं! समझ में ही नहीं आता किसका न्याय है और किसका अन्याय। कभी एक को समझाता हूँ कभी दूसरे को मगर कोई जैसे अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं है। आपने समझा बात की सफ़ाई हो गई उधर फिर कोई नया झगड़ा तैयार। क्या करे आदमी ऐसी हालत में। कोई तदबीर काम नहीं करती। बहुत बार वह चाची के पक्ष को ग़लत जानकर भी उन्हीं का साथ देता है, अगर और किसी लिए नहीं तो सिर्फ़ इसलिए कि वह बड़ी हैं, बुड्ढी हैं और बुड्ढों के स्वभाव में हठ की मात्रा अक्सर बढ़ जाया करती है। लेकिन उस सबसे भी बात कुछ बनती नहीं। दिल जब दोनों तरफ़ से फट गया हो।

लेकिन वह भी तो अब पुरानी बात हो गई है। इन झगड़ों को झेलते-झेलते अब वह थेथर हो गया है। वह भी एक स्थितप्रज्ञता है अपने ढंग की। जीने का कुछ तो उपाय करना होगा—या डूब मरे इसी दलदल में? चाची जैसी हैं, हैं। अब उन्हें बदला नहीं जा सकता। लेकिन बीवी का मिज़ाज बदलना भी तो खेल नहीं है। वह घमंडी है, ग़ुस्सैल है, मुँहफट है। न होती तो ज़्यादा अच्छा होता लेकिन ऐसा फ़रिश्ता कहाँ मिलता है। ऐब तो सभी में होते हैं। शासनप्रियता ज़रूरत से ज़्यादा है इसके स्वभाव में। उधर चाची अपना एक भी अधिकार छोड़ने को तैयार नहीं हैं। सारे झगड़ों की जड़ यही है। ख़ूब समझता है वह इस बात को, लेकिन करे क्या? बहू अपने घर में अधिकार कैसे न जमाए। जो कुछ वह करती है सब इसीलिए न कि घर की व्यवस्था ठीक हो जाए और हरदम की पैसे की चिन्ता से छुटकारा मिले? अच्छा ही है, नहीं तो आदमी इसी में दफ़न होकर रह जाए। कुछ काम कर सकने के लिए ज़रूरी है कि रोज़-रोज़ के ख़र्चों की चिन्ता से आदमी को मुक्ति मिल जाए। मन ही मन वह बहुत ऋणी है अपनी पत्नी का। लेकिन ख़ूबसूरती सब को साथ लेकर निबाह करने में है। इसीलिए समय बीतने के साथ-साथ वह इन झगड़ों से अब बिलकुल अलग-थलग रहने लगा है। तो भी इनसान ही है। मिज़ाज उसका भी तेज़ है। ग़ुस्सा जल्द आ जाता है। कभी झुँझला भी पड़ता है, बरस भी पड़ता है। और फिर अपने काम में जुट जाता है। वही उसकी असल मुक्ति है, निर्वाण है। कर्म ही जीवन का सच्चा उल्लास है, यह सत्य उसके भीतर बहुत पहले से बैठ चुका है। सुखी रहना चाहते हो तो डटकर काम करो, दिन-रात काम करो। इसलिए सास-बहू के ये झगड़े अब उसको बहुत नहीं छूते।

लेकिन एक रोज़ उन्हें चाची पर सचमुच ग़ुस्सा आया। महताब स्कूल लीविंग के इम्तहान में दूसरी बार फ़ेल होने के बाद टाइपिंग और बुककीपिंग सीखने एक साल के लिए लखनऊ चले गए थे। मुंशीजी हमेशा की तरह वहाँ भी उनको बराबर ख़र्च भेजते रहे।

साल-भर बाद जब वह टाइपिंग सीखकर गोरखपुर लौटे तो एक रोज़ मुंशीजी को चाची की बातचीत में कुछ इस तरह का रुख़-तेवर दिखायी दिया, ऐसी कुछ गन्ध मिली कि जैसे उनके ख़याल में वह अब अपने छोटे भाई की कमाई में हिस्सा बँटाने का इरादा रखते हों। इस पर मुंशीजी ग़ुस्से से पागल हो गए और उनकी ज़ोरदार झड़प चाची से हुई। यह उनके ज़िन्दगी-भर के किए-धरे पर पानी फेरने की बात थी, बड़ा ही क्रूर आघात जिसे वह सह नहीं सके किसी तरह और उन्होंने उसी ग़ुस्से की हालत में आकर अपनी पत्नी से कहा—जिस दिन मुझे दूसरे की कमाई खानी पड़ेगी, मैं ज़हर खा लूँगा!

अक्सर बातों को हँसकर टाल देने की आदत पड़ गई थी—ज़िन्दा रहने की शर्त थी वह—लेकिन यह तो मर्म पर आघात करनेवाली बात थी। आघात हुआ। प्रतिक्रिया हुई। बरस पड़े। शान्त हो गए। गाँठ मन में नहीं पड़ी। भाई के प्रति स्नेह और दायित्वबोध उसी प्रकार बना रहा। और महताब की भी अपनी भावज से भले न बनी हो पर भाई की अवज्ञा उन्होंने भी नहीं की और मन का एक स्तर था जहाँ अन्त तक वह सहज स्नेह बना रहा।

20 मार्च, 1917 के अपने पत्र में मुंशीजी ने निगम साहब को लिखा—

‘बाबू महताब राय लखनऊ से टाइप सीखकर आ गए हैं। आप इन्हें वहाँ किसी मिल या फ़र्म में इंट्रोड्यूस करा सकते हैं? अगर ऐसा हो सके तो मुझ पर ख़ास इनायत होगी।’

वह तो नहीं हो सका पर बस्ती में ही बन्दोबस्त के महकमे में उन्हें काम मिल गया। लेकिन साल-भर बाद जब इस काम के ख़त्म होने की सूरत पैदा हुई तो, मियाँ की दौड़ मसजिद तक, मुंशीजी ने फिर निगम साहब को याद किया—

‘छोटक हफ़्ते-अशरे में या ज़्यादा से ज़्यादा एक माह में तख़फ़ीफ में आ जाएँगे। बन्दोबस्त का काम फ़िलहाल बन्द किया जा रहा है। मुझे उनकी फ़िक्र लगी हुई है। अगर आप उनके लिए कोई काम दिलाने में मेरी मदद कर सकें तो ऐन एहसान हो। मेरे और कौन से दोस्त हैं जिनसे इनकी सिफ़ारिश करूँ। बस्ती में टाइपिस्ट थे, पैंतीस रुपए पाते थे। कानपुर के किसी कारख़ाने में अगर आपकी सिफ़ारिश कारगर हो सके तो इन्हें बाद तख़फ़ीफ वहाँ भेज दूँ। या वार के मुताल्लिक़ कोई ऐसा काम हो जिसमें हिन्दोस्तान के बाहर न जाना पड़े तो भी कोई उज्र नहीं है।’

सोलहों आने गृहस्थ, मुंशीजी को घर में एक-एक की फ़िक्र रहती थी।

पत्नी जब गोरखपुर पहुँचने के साथ ही, बच्चे की पैदाइश के बाद बीमार पड़ीं और ऐसी बीमार पड़ीं कि बिस्तर से लग गईं, और बच्चे को दूध पिलाने तक से मजबूर हो गईं, इतनी कि इस काम के लिए एक दाई रखनी पड़ी, उस वक़्त मुंशीजी ने घर के भीतरी काम भी तमाम अपने ऊपर ओढ़ लिए। बच्चों को सुलाना-जगाना, नहलाना-धुलाना, खिलाना-पिलाना, सभी काम उनके थे। और माथे पर शिकन नहीं, न कोई झिझक। बीच में कभी घंटा ख़ाली होता तो घर आकर देख-सुन जाते। कभी बच्चे को लिये हुए स्कूल पहुँच जाते, जहाँ लड़के उनके हाथ से बच्चे को लेकर ख़ुद खेलाने लग जाते। सब कुछ अत्यन्त सहज भाव से।

कहने का मतलब यह कि गृहस्थी की इस सब सटर-पटर, हारी-बीमारी और घरेलू झगड़े-तकरार के होते हुए मुंशीजी को अपने भीतर ज़्यादा ख़ुशी मिल रही है, जैसी कि इधर एक अर्से से नहीं मिली।

उन्हें अपनी ज़िन्दगी का नक्शा कुछ सुधरता हुआ नज़र आता है। एक तो सेहत पहले से कुछ अच्छी है, जो कि एक बड़ी बात है। स्कूल का वातावरण अधिक अनुकूल है। महावीरप्रसाद पोद्दार से मुलाक़ात हो चुकी है और उनके माध्यम से एक नई भाषा, हिन्दी, का दरवाज़ा उनके लिए खुल रहा है। प्रेमचन्द को उससे बड़ी-बड़ी उम्मीदें हैं। उर्दू जैसा हाल यहाँ नहीं है जहाँ किताब ख़ुद अपने पैसे से छपानी पड़ती थी और बिक्री की भयानक सुस्ती को देखकर बार-बार पूछना पड़ता था, किताब कुछ बिक रही या महज़ दीमकों की ख़ुराक बन रही है! साल में दो सौ प्रतियाँ बिक गईं तो समझिए कमाल हो गया। हिन्दी की हालत शायद इतनी ख़राब नहीं है वर्ना प्रकाशक उनके पीछे इतना क्यों पड़ता। शेख़ सादी पर एक छोटी-सी किताब लिखकर वह दे चुके हैं। टालस्टाय की कहानियों का अनुवाद दे चुके हैं। हिन्दी प्रेम पचीसी छप रही है। बिकती होंगी, तभी तो छापता है। अब नए नाविल के लिए जान को पड़ा है!

अच्छा लगता है मुंशीजी को यह सब, और क्यों न अच्छा लगे। लेखक को इससे ज़्यादा और चाहिए भी क्या—दिल में लिखने की उमंग है, क़लम तेज़ी से चल रहा है, छापनेवाला पैसे लिये दरवाज़े पर बैठा है, कीर्ति एक भाषा की सीमा को लाँघकर दूसरी भाषाओं में पहुँच रही है! हिन्दी तो है ही, मराठी में प्रेम पचीसी छप रही है। पत्रों में कहानियों के अनुवाद गुजराती में भी छपने लगे हैं। कितनी ही तो बातें हैं जिनसे मन में उभार आता है।

और सबसे बड़ी बात तो यह कि राष्ट्रीय जीवन में एक नया उभार आ रहा है। बहुत दिनों की पस्ती और मुर्दनी के बाद। कैसा विचित्र संयोग है यह कि उनके स्वास्थ्य की गिरावट और राष्ट्रीय आन्दोलन की गिरावट का समय लगभग एक ही है और अब फिर एक नई जागृति आ रही है जिसे मुंशीजी फ़ौरन अपने ख़ून की रवानी में महसूस करते हैं। इस वक़्त उनकी तबीयत में जो उभार है उसमें निश्चय ही कुछ हाथ देश की इस जागृति का भी है।

उसकी तबीयत ही कुछ ऐसी बनी है। सबसे अलग-थलग व्यक्ति की अपनी छोटी-सी दुनिया में रहना उसने सीखा ही नहीं। पुराना गृहस्थ आदमी है। गृहस्थी में, गृहस्थी का होकर रहना ही उसे आता है। उसकी सब झंझटें, सब ज़िम्मेदारियाँ, सब परेशानियाँ उसे मंजूर हैं अकेले रहना मंजूर नहीं भले उसमें कितनी ही बेि‍फ़क्री हो। देश भी उसके लिए एक बड़े परिवार जैसा ही है। उसका हर सुख-दुख उसका अपना सुख-दुख है। जो सहज आत्मीयता की डोर उसे अपने परिवार से बाँधती है वही उसे इस बड़े परिवार से बाँधती है।

वह भूगोल का विद्यार्थी है। भूगोल उसने बरसों पढ़ा है, पढ़ाया है। भारत का मानचित्र न जाने कब से उसकी आँखों के सामने घूमता रहा है। नदी, पहाड़ सब उसे पता हैं। मातृभूमि को माँ के रूप में उसने पूजा है जो कि उसके भीतर का गहरा भारतीय संस्कार है, हिन्दू संस्कार है, स्वदेशी और अग्नियुग का संस्कार है, तिलक और बंकिम का संस्कार है। लेकिन अपने जीवन-अनुभव से वह यह भी जानता है कि हवाई देश प्रेम काफ़ी नहीं है। देश का असल मतलब है देश का आदमी, उसका सुख-दुख। वह इतिहास और समाजशास्त्र का भी विद्यार्थी है और उसे पता है कि आज़ादी के बिना कभी कोई देश उन्नति नहीं करता। शायद इसीलिए जब आज़ादी के आन्दोलन में कुछ जान आती है तो उसके भीतर भी जान आ जाती है और जब उसमें मुर्दनी छा जाती है तो जाने-अनजाने उसके मन पर भी वही मुर्दनी छा जाती है।

साधारणतः ऐसे आदमी को सक्रिय राजनीति में होना चाहिए था। आन्दोलनकर्ता के रूप में, संगठनकर्ता के रूप में। लेकिन मुंशीजी को अपनी कमज़ोरियाँ भी मालूम हैं।

सबसे बड़ी कमज़ोरी है कच्ची गृहस्थी—दो छोटे-छोटे बच्चे, पत्नी, चाची और उनका बेटा, जिन सबका अकेला अवलम्ब वह है। और दूसरी बड़ी कमज़ोरी है उसका अपना स्वभाव। राजनीति के धुरंधरों के बीच वह खप नहीं सकता। बड़े अखाड़ेबाज़ होते हैं सब। वह अलग ही एक दुनिया है। उस ग़रीब की तो उसमें मट्टी पलीद हो जाएगी। उसमें वही जा सकता है जिसे उन सब दाँव-पेंच में रस मिलता हो। आज़ादी की लड़ाई तो कहीं पीछे छूट जाती है, पद की लालसा ही कम हो जाती है। और फिर आए दिन के छोटे-छोटे झगड़े और गुटबन्दी—नहीं उस दलदल से दूर ही रहना ठीक है। दूर रहकर आदमी ज़्यादा अच्छी तरह चीज़ को देख सकता है और ज़्यादा बेलाग ढंग से बात कर सकता है।

यह ठीक है कि घटनाएँ उसको आन्दोलित करती हैं। इसका मतलब है कि वह यत्न करे तो अपनी उसी गहरी अनुभूति से दूसरों को भी आन्दोलित कर सकता है—लेकिन गले के ज़ोर से नहीं, क़लम के ज़ोर से।

मंच पर जाते उसे डर लगता है और भाषण देने के ख़याल से ही उसकी रूह फ़ना हो जाती है। ज़िन्दगी-भर उसकी यह कमज़ोरी बनी रही, और इस कमज़ोरी का एहसास बना रहा और उसने बराबर अपने बेटों को इस ओर से सावधान किया। यह नहीं कि ज़रूरत पड़ने पर वह बोल नहीं सकता था या उसका गला फँस जाता था। पर हाँ, उलझन ज़रूर ख़ासी मालूम होती थी। वह ख़ूब जानता है कि मंच उसके लिए नहीं है। मगर उससे क्या, क़लम तो है उसके हाथ में। उससे बढ़कर क्या चीज़ है। उसकी सबसे बड़ी ताक़त यही क़लम है। इतिहास के पन्ने पलटो तो पता चले क़लम क्या कर सकती है।

इस तरह यह विरोधाभास सामने आता है कि एक तरफ़ समसामयिक राजनीति में उसकी दिलचस्पी और जानकारी तो इतनी है कि अच्छे-अच्छे राजनीतिज्ञों की क्या होगी, लेकिन, दूसरी तरफ़, जिसे सक्रिय राजनीति कहा जाता है उससे दूर का भी सम्बध उसका नहीं है। और अगर सम्बन्ध है तो इतना ही कि वह मीटिंगों में चला जाता है, कभी कांग्रेस के दफ़्तर चला जाता है, लिखने-पढ़ने का कुछ काम हुआ तो उसे कर देता है। इससे ज़्यादा मतलब वह नहीं रखता। पर उसकी दिलचस्पी गहरी है जो उसके साहित्य में बोलती है। अपने साहित्य के माध्यम से वह अपना श्रेष्ठतम अंश देश की स्वाधीनता और उसके भविष्य को देता है।

पुस्तक: प्रेमचंद : कलम का सिपाही
लेखक: अमृतराय
प्रकाशक: हंस प्रकाशन
भाषा: हिन्दी
आईएसबीएन: 978-93-897428-3-1
बाईंडिंग: पेपरबैक
मूल्य: Rs. 499
प्रकाशन वर्ष: जून 2021
पृष्ठ संख्या: 592

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