‘स्वाँग’ ज्ञान चतुर्वेदी का नया उपन्यास है, एक गाँव के बहाने समूचे भारतीय समाज के विडम्बनापूर्ण बदलाव की कथा इस उपन्यास में दिलचस्प ढंग से कही गयी है। यह बुंदेलखंड पर आधारित उनकी उपन्यास त्रयी की अंतिम कृति है। त्रयी के पहले दो उपन्यास ‘बारामासी’ और ‘हम न मरब’ राजकमल प्रकाशन से पहले ही प्रकाशित हो चुके हैं।

‘स्वाँग’ में ज्ञान चतुर्वेदी ने कोटरा गाँव के जनजीवन के ज़रिए दिखलाया है कि किसी समय मनोरंजन के लिए किया जाने वाला स्वाँग अर्थात अभिनय अब लोगों के जीवन का ऐसा यथार्थ बन चुका है जहाँ पूरा समाज एक विद्रूप हो गया है। सामाजिक, राजनीतिक, न्याय और क़ानून, इनकी व्यवस्था का सारा तंत्र ही एक विराट स्वाँग में बदल गया है। एक नक़लीपना हर तरफ़ हावी है, इस रूप में यह उपन्यास न केवल बुंदेलखंड के बल्कि हिंदुस्तान के समूचे तंत्र के एक विराट स्वाँग में तब्दील हो जाने की कहानी है। परिवेश का तटस्थ अवलोकन, मूल्यहीन सामाजिकता का सूक्ष्म विश्लेषण और करुणा से पगा निर्मम व्यंग्य जिस तरह इस उपन्यास में मौजूद है, वह ज्ञान चतुर्वेदी की असाधारण लेखकीय क्षमता और उनके हमारे समय का प्रतिनिधि व्यंग्यकार होने का प्रमाण है। प्रस्तुत है उपन्यास का एक अंश—

कहीं मारपीट हो रही हो तो बीच-बचाव कराने वाले लोग भी प्रकट हो ही जाते हैं। मानव जाति का स्वभाव है यह। ऐसे शान्तिदूत कोटरा में भी बहुत थे। वैसे उनके रहते हुए भी डण्डे चल ही जाते थे। इस चक्कर में वे स्वयं भी डण्डा खा जाते थे। परन्तु शान्तिदूत चैन से नहीं बैठते थे। वे कोटरा में यहाँ-वहाँ घूमते ही रहते । विवाद को दूर से सूँघ लेते। खट से वहाँ पहुँच जाते। अच्छी-भली गुत्थमगुत्था होने की तैयारी को ख़ामख़ाँ बिलोरने की कोशिश करते।

कोटरा में दो तरह के शान्तिदूत थे। एक तो वे जो लड़ाई के बीच उतरकर डायरेक्ट एक्शन में विश्वास करते थे—इनकी चर्चा अभी हमने ऊपर की परन्तु ज़्यादातर दूसरी तरह के शान्तिदूत थे। ये कहीं दूर, सुरक्षित दूरी पर खड़े होकर, शान्ति की बातें करने वाले शान्तिदूत थे। कभी, कहीं लोगों के बीच किसी विवाद, फ़ौजदारी या गाली-गुफ्ता की घटना की चर्चा हो रही हो तो ये उसमें ऐसे उत्साह से भाग लेते कि बोलते-बोलते मुँह से झाग फेंकने लगते। हाँ, चर्चा करते हुए वे तीन बातों का ख़याल जरूर रखते : (एक) वे दोनों पार्टियों को बराबर का दोषी मानकर बात शुरू करते। किसी ने किसी को पीटा है तो यह ग़लत काम किया है पर पिटने वाले ने भी अवश्य कोई पिटने वाला काम ही किया होगा—वे उसी तारतम्य में यह भी जोड़ देते। अपनी बात में वे यह आप्त-वाक्य भी जोड़ देते कि भाई साब, मारपीट किसी भी चीज का हल नहीं है। (दो) वे सबके मन की बात कहते हैं; किसी भी बात पर वे किसी से असहमत नहीं होते हैं। चर्चा कर रहे हर व्यक्ति से वे सहमत होते चले जाते हैं और साथ-साथ अपनी बात भी कहते जाते हैं। कोई इनकी बात काट दे तो हँसकर मान भी जाते हैं। कहते हैं कि भाई साहब, आपने भी भौत सही पॉइंट से काटी है हमारी बात। सही कहा आपने, असल में अभी हमने बात ही बड़े चूतियापे की कह डाली थी। कभी-कभी हमसे भी ग़लती हो जाती है।… वे ख़ुद की बात काटने वाले शख़्स की ख़ूब तारीफ़ करते। कहते कि आपकी यही बात हमें भौत बढ़िया लगती है कि आप फालतू की मुरव्वत में नहीं पड़ते हैं। चूतियापे की बात कही जा रही हो तो आप उस बात को वहीं काट देते हैं, वो भी फटाक से। (तीन) वे बार-बार, और बीच-बीच में कहते जाते हैं कि कोटरा में शान्ति की बड़ी आवश्यकता है। वे यह भी बताते जाते हैं कि शान्ति तथा सद्भाव से ही समाज का विकास होता है और नई पीढ़ी को दिशा मिलती है। उनके इस विमर्श से कोटरा में कितनी शान्ति पैदा होती थी, इसे कभी मापा नहीं गया परन्तु यह तय था कि इनकी बातों से मनोरंजन तो सबका होता था।

मानव कौल के उपन्यास 'अंतिमा' का अंश

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