मैं हूँ इस नदिया का बूढ़ा पुल
मुझ में से हहराता
गुज़र गया कितना जल!
लेकिन मैं माथे पर यात्राएँ बोहे इस
रेती में गड़ा रहा।
मुझ पर से घर-घर-घर
गुज़र गये कितने रथ।
लेकिन मैं पानी के पहियों की
ध्वनि सुनता खड़ा रहा।
डूब गयीं संध्याएँ, अस्त हुआ इन्द्रधनुष!
लेकिन मैं
पत्थर का शप्त धनुष!
मुझ में से जल अहरह, अनचाहे, अनजाने
तीरों-सा छूट रहा।
आह! जब कभी आधी रातों में
भीगे सन्नाटे में
मैं चीखा अथवा सीटी मारी
आवाजें… रुग्ण और परनुचे पखेरू-सी
उड़ीं
और पास किसी झाड़ी में अरझ गयीं।
इस जल के अन्दर भी कोई बूढ़ा पुल है
हिलता है, कँपता है और छटपटाता है।
आह! वही मेरी
व्यथा जानता है।
आह! यह अकेलापन!
सह्य नहीं नदियों का सन्नाटा,
मिलनोन्मुख यात्राएँ
संगम की ओर
दौड़ रही नदी!
सह्य नहीं क्षितिजों तक जाते वे पक्षी-दल!
दूर कहीं डूब रही पगध्वनियाँ
अस्त हो रही नावें
गुज़र रहे वे बादल
सह्य नहीं।
आह! मुझे ढहा दो
ताकि
इन प्रवाहों में मैं अनन्त बहता जाऊँ
और अगर अटकूँ तो
पानी में डूबे मन्दिर की शोभा बनूँ।
अब मुझे ढहा दो
और नये पुल रचो,
जो बूढ़े होने तक
स्थिरता की होड़ करें, पानी से खेलें,
भाग रही नदियों से
कहें –
नदी रुक जाओ,
वापिस आ जाओ,
और अट्टहास करें; रातों को चौंकें।
आह! मुझे ढहा दो।
मैं हूँ इस नदिया का बूढ़ा पुल।
कब तक अपनी जड़ता बोहूँ।
मुझको भी यात्रा में परिणत कर दो।