वो दुबकी हुई एक कोने में बैठी थी, लेकिन ज़किया को बराबर यह एहसास हो रहा था की वह कुछ कहना चाह रही है। वैसे महिलाओं का जमघट हो और सभी एक साथ बात न कर रही हों, ऐसा कहाँ संभव है। सभी लगातार कैएं कैएं कर रही थीं और दो तीन बार ज़किया को उन्हें डांट कर, स्कूल के क्लास के बच्चों की तरह एक-एक करके बुलवाना पड़ा था। लेकिन जब भी उसपर नज़र जाती वो हलके से मुस्कुरा कर नीचे देखने लगती। उसके दोनों तरफ बैठी औरतें कोहनी मार कर “बोलो न! बोलती क्यों नहीं हो? तो फिर आई क्यों हो?” कहकर उसे उकसा चुकी थीं, लेकिन वह चुप रही थी।
तीन घंटे से ज़्यादा हो चुके थे। ज़किया ने यह दिखाते हुए कि मीटिंग खत्म हो गई है, अपने काग़ज़ात, डायरी, कलम समेटना शुरू किया। मजमा भी उठा और अपने चारों तरफ, चौकीदार बने, कील, खूँटी, दरवाज़ों पर टंगे बुर्क़े उतर-उतर कर, शरीर और चेहरों को ढंकने लगे। ज़किया बरामदे में लगी चाय की मेज़ की तरफ बढ़ चली थी कि पीछे से आवाज़ आई- “बाजी!” ज़किया ने अपनी उकताहट को पीछे धकेल, होठों पर मुस्कुराहट चिपकाई और पलटी। ये हर मीटिंग में होता था; जमघट में से एक या दो पूरी सभा भर तो चुप रहती और जब सब उठ जाते तो अकेले में एक निजी बातचीत की उम्मीद करती। ऐसा होना लाज़मी भी था क्यूंकि महिलाओं की सभा में भी औरतें खुलकर बोलने से हिचकिचाती, आखिर औरतों ने कुछ पहले ही तो ज़बान खोली है।
“बाजी आपसे कुछ पूछना था। आपने तीन घंटे से ज़्यादा शरीयत और भारतीय संविधान पर बात की लेकिन आपने एक लफ्ज़ भी हलाला पर नहीं कहा।” इतना सब वो एक झोंक में बोल गई जैसे उसने कुछ बेहूदा कह दिया हो जिसकी चर्चा इज़्ज़तदार लोगों के बीच नहीं करनी चाहिए।
ज़किया रुक कर पूरे एक मिनट तक उसका चेहरा निहारती रही। कितनी बार उसने चाह था कि कुरआन के ‘सूरा-इ-निस्सा’ के इस हिस्से पर बात चीत हो, लेकिन उसके काम का दायरा शरिया कानून और भारतीय संविधान में समानता और अलगाव तक सीमित था। बहुत कोशिश के बावजूद वह इससे मिलती जुलती कोई धारा संविधान में ढूंढ नहीं पाई थी।
“क्या नाम है तुम्हारा?”
“सकीना”
“बताओ, तुम्हें हलाला के बारे में क्या जानना है?”
वो चुप रही। ज़किया ने कुरेदा “क्या शौहर ने तलाक़ दिया है?”
“जी”
“और अब पछता रहे हैं और अब तुमसे दुबारा निकाह करना चाहते हैं?”
“जी। पांचवी बार!” वो बुदबुदाई।
इस बीच कोई ज़किया के हाथ में चाय का कप पकड़ा गया था। वो हाथ से छूटते-छूटते बचा। खुद पर काबू पाते हुए ज़किया ने उसका हाथ पकड़ा और उसे एक कोने में ले गई। लेकिन बात शुरू करवाने के लिए अब उसे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी। सकीना जैसे इसी तन्हाई का इंतज़ार कर रही थी। हकलाते-हिचकिचाते उसकी ज़िन्दगी की दास्तां उसके लबों से फूट पड़ी जैसे कोई फैलता हुआ नासूर फटकर सड़ते बदबूदार पस और मवाद से मुक्ति पाना चाहे।
“बाजी, मैं चौदह वर्ष की थी जब मेरा निकाह अब्दुल रशीद के साथ हुआ। मेरे शौहर मुझसे ग्यारह साल बढ़े थे, शराब के शौक़ीन थे और अफीम की लत भी थी। सभी को, मेरे अम्मी अब्बा को भी उनकी इन आदतों का पता था, मगर पांच बेटियों के माँ बाप भला क्या मीन-मेख निकालते और क्या देखते-भालते? वैसे मैं शादी से खुश थी। ससुराल खाते पीते लोगों का था। सास-ससुर के अलावा बस एक देवर था जो मुझसे चार साल छोटा था। हर कोई यही कहता शादी हो जाएगी तो ये अपनी बुरी आदतें छोड़ देंगे, बीवी सब सम्भाल लेगी।”
सकीना अजीब तरह हंसी, कुछ खुद पर, कुछ इस समाज पर जो औरत से मर्द सँभालने, सुधारने की उम्मीद तो इतनी करता है मगर उसे हक़ कुछ भी नहीं देता। औरत को अकेले यह जंग लड़नी भी है और जीतनी भी है और जीतनी है किसी शस्त्र या हथियार बगैर। वो अपनी तनहा हंसी के बाद खामोश हो गई। ज़किया ने उसे मुद्दे पर लौटने के लिए पूछा- “तो तलाक कब हुआ?”
“पहली बार शादी के छह साल बाद। मेरे तब तक दो बच्चे हो चुके थे। वो रात देर से लौटे, नशे में धुत और खाना मांगने लगे। जहाँ वो आकर बैठे थे, वहीं मैंने एक छोटी सी मेज़ रख दी और खाने की थाली रख दी। वो कुर्सी पर गिरे पड़े थे, खा ना देखकर उठने लगे, पैर टकराया और मेज़ उलट गई। मैं भी पूरे दिन के काम से थकी थी और घर में वो आखरी बना हुआ खाना था। चिढ़कर मैंने भी कह दिया “इतना क्यों पीते हो कि हाथ पाँव पर काबू नहीं रहता?”
बस इतना कहना था कि हमपर चीखना, गलियाना शुरू कर दिया और फिर तीन बार तलाक कहकर हमें तलाक दे दिया।”
“लेकिन नशे में दिया तलाक़ तो माना नहीं जाना चाहिए।”
“ये तो हमें मालूम नहीं था, न मौलवी साहब ने ही हमें बताया। क्या जाने शायद उन्हें भी मालूम नहीं होगा। खैर हम अपने मैके आ गए। शुक्र है कि बच्चे छोटे थे और सास अक्सर बीमार रहती थी, इसलिए बच्चे हमारे साथ ही आये। जब नशा उतरा तो बहुत रोये, माफ़ी मांगी और मौलवी साहब के पास गए कि निकाह दुबारा पढ़वा दीजिये, हम सकीना से बहुत प्यार करते हैं, उसके बिना हम ज़िंदा नहीं रह सकते। मौलवी साहब ने बताया कि ये नामुमकिन है- पहले सौ दिन इद्दत के गुजरेंगे फिर हमारा किसी और से निकाह होगा, वो हमें तलाक देगा फिर सौ दिन इद्दत के बाद हमारी अब्दुल रशीद से शादी हो सकेगी। हमारे शौहर भला ये कैसे बर्दाश्त करते कि हम किसी और के साथ हमबिस्तर हों? वो हमारे मायके आये और बोले ‘कुछ दिन इंतज़ार करो सकीना, हम कोई रास्ता निकालते हैं।’ डेढ़ साल रास्ता निकालने में लग गया। एक दिन आये बड़े खुश-खुश और बोले ‘तैयार हो जाओ सकीना, मैंने रास्ता निकाल लिया है। तुम्हारी शादी अपने छोटे भाई तारिक़ रशीद से कर देंगे। उसने वादा किया है पहली रात के बाद वह तुम्हें तलाक दे देगा और फिर तलाक के बाद हम तुमसे शादी कर लेंगे।’..”
“हम घबराये। चार साल छोटे देवर को, एक रात के लिए शौहर कैसे माने? लेकिन हमारे शौहर ने समझाया, खुशामद की और मेरे हर ऐतराज़ को ये कहकर खारिज कर दिया कि मैं कौन होती हूँ इस सुझाव को न मानने वाली जब मौलवी साहब इसे ठीक बता रहे हैं। आखिर वह हमारे दीन के रखवाले हैं। मैंने भी सोचा कि जब मौलवी साहब को मंज़ूर है तो फिर ये रास्ता अल्लाह और दीन की नज़र में ठीक होगा।”
“मेरे देवर से मेरा निकाह हो गया। देर रात वह मेरे कमरे में आया। मैं दीवार की तरफ मुंह किये बैठी थी; किसी ग़ैर मर्द को अपना शरीर दिखाने से भी शर्मसार। कुंडी लगाने की आवाज़ तो आई लेकिन उसके करीब आने की आहट मेरे कानो में नहीं पड़ी। जब बहुत देर वह पास नहीं आया तो मैं पलटी; देखा वह हाथ जोड़े सर झुकाए गुनहगार सा खड़ा है जैसे दुनिया से आँखे मिलाने का साहस न कर पा रहा हो।
‘क्या बात है?’ मैंने पूछा।
उसने नज़रे उठाई और बोला- ‘भाभी पलंग पर सो जाओ। मैं ज़मीन पर दरी पर लेट जाऊंगा। मैं इस पूरे मामले में राज़ी इसीलिए हुआ कि तुमको घर वापस लौटा सकूं। तुम्हें हाथ लगाने के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकता। बस एक रात की बात है।’
आपको सच बताऊँ बाजी वो आखरी रात थी जब मैं चैन की नींद सोई। अगली सुबह मेरा फिर तलाक हो गया और फिर सौ दिन पूरे हुए तो अब्दुल रशीद से मेरा निकाह हो गया।”
“लेकिन क्या इंसान की फितरत बदलती है? कहते हैं कोयला धोकर सफ़ेद हो सकता है मगर इंसान का स्वभाव नहीं बदल सकता। उनके दोस्त वही थे, शराब और अफीम की लत वही थी। घर देर से लौटना, बेवजह झगड़ा करना और फिर मुझे मारना पीटना। वही पुरानी ज़िन्दगी जिसमें बस एक बात नई थी। बीच-बीच में कहते जाते ‘तू तो एक रात मेरे भाई के साथ रही है, वह मुझसे सत्रह साल छोटा है। मैं बुढ़ा रहा हूँ और वह गबरु जवान है, तुझे तो उसके साथ ज़्यादा मज़ा आया होगा न? मेरे साथ जब होती है तब उसकी याद सताती है तुझे? क्या दोपहर में उसके पास जाती है, मौके से, जब अम्मी और बच्चे सोते हैं?’..”
“बाजी मैंने जब तक हो सका राज़ छुपाया। आखिरकार मेरी बर्दाश्त की हद टूट गई और सच मुंह से फूट पड़ा- ‘तू क्यों मुझ बेचारी को और अपने फरिश्ता जैसे भाई को गुनहगार समझता है। उसने तो उस रात मुझे हाथ तक नहीं लगाया। वो तो रात में देर से इसलिए लौटता है ताकि मुझ से सामना न हो।’ उस वक़्त तो मेरे शौहर ने मुझे बाहों में भर लिया और मुझे अपनी ज़िन्दगी अपनी जान कहकर बुलाया। मैं अहसानमंद थी कि उन्होंने मेरी बात का यकीन किया और घर में कुछ महीने शान्ति के गुज़रे। फिर एक शाम दोस्तों के साथ पीने पिलाने में, किसी दोस्त ने छेड़ दिया कि अब्दुल रशीद को, अपनी बीवी और उसके एक रात के शौहर के साथ एक ही घर में रहने से डर नहीं लगता? कौन जाने पीठ पीछे दोनों हम बिस्तर होते हों? अब्दुल रशीद यह कैसे बर्दाश्त कर लेते। ग़ुस्से में कह दिया- ‘मेरी बीवी सिर्फ मेरी है समझे; वो निकाह तो एक धोखा था, मेरी बीवी को तो मेरे भाई ने छुआ तक नहीं।’ बस डींग मार आये। ऐसा दावा, वो भी शराब के ठेके पर किया जाए, भला चारों तरफ कैसे न फैलता? और कसबे भर में फ़ैल कर मौलवी साहब के कान तक कैसे न पहुँचता? और पूरी बात जानकर भला यह कैसे हो सकता था कि वो सच्चे दीन के मुहाफ़िज़ होकर ऐसे कदम न उठाते जिनसे साबित होता कि वह पैरों तले घाँस उगने नहीं देते?”
“अब्दुल रशीद से मेरा निकाह नाजायज़ करार दे दिया गया। मेरे लिए शुरू हुए फिर वही इद्दत के तीन माह दस दिन और साथ ही खोज मची एक ऐसे आदमी की जो मुझसे निकाह करके तलाक दे दे ताकि मैं अपने पहले शौहर से शादी कर सकूं। ज़ाहिर है इस बार तो मेरा देवर नहीं हो सकता था क्यूंकि उसपर ऐतबार करना नामुमकिन था; ब्याहता बीवी को जो अछूता छोड़ दे, वह भला मर्द कहलाने के काबिल है?”
“एक और आदमी तलाश किया गया और उससे मेरा निकाह कर दिया गया। अगले दिन उस आदमी ने मुझे तलाक देने से साफ़ इंकार कर दिया। चौदह महीने मैं उसकी बीवी रही। मैं तो सदा के लिए उसी की हो रहती लेकिन अब्दुल रशीद ने इन बदले हुए हालात से समझौता करने से साफ़ इंकार कर दिया। वह मुझे बाजार में देख लेते, सब्ज़ी खरीदते, बच्चों को स्कूल छोड़ते, बुर्का पहचान लेते और फूट-फूट कर रोने लगते जैसे कोई बच्चा मचलकर बेकाबू हो जाये; सड़क पर लोट जाते, ज़मीन पर सर मारने लगते ‘हाय सकीना, कैसे तेरे बिना ज़िंदा रहूँ? ओ मेरी ज़िन्दगी मेरे पास वापस आ जा।’..”
“आखिर मैंने ही अपने शौहर को समझा बुझाकर राज़ी किया कि वो मुझे तलाक दे दे। छोटे से कस्बाई शहर का मैं एक तमाशा बन गई थी। लोग एक दूसरे को खबर कर देते कि मनोरंजन शुरू हो गया है और भीड़ जमा हो जाती। लोग हँसते, फब्तियां कस्ते और अब्दुल रशीद को ‘मजनू’ कहकर पुकारते। मेरे वजूद को हर तरफ से नोचा खसोटा जा रहा था और मैं टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर रही थी। खैर समझा बुझाकर जब तलाक हो गया तो एक सौ दस दिन की गिनती शुरू हुई, जब उस आदमी से शादी होगी जो मुझसे प्यार का दावा तो करता था लेकिन जो किसी भी तरह खुद को ‘तलाक तलाक’ कहने से रोक नहीं पाता था। निकाह होता, कुछ दिन ख़ुशी के बीतते और फिर वही पुराने ढर्रे की ज़िन्दगी शुरू हो जाती। ऐसा लगता जैसे उन्हें तलाक देने की लत पड़ गई है। पलक झपकते, बगैर किसी कारण के, कभी नशे में, कभी पूरी तरह होश में तलाक दे डालते। फिर एक और आदमी खोजते, शादी की सारी तैयारी खुद करते, उस आदमी को भी नकद रुपये देते। एक बार तो खुद मौलवी साहब ने मुझसे निकाह करके, छह रात मुझे रौंदा। मैं अक्सर इद्दत के दिनों की गिनती भूल जाती, मगर अब्दुल रशीद ठीक एक सौ ग्यारवें दिन मुझसे निकाह करने मौजूद रहते।”
“तुमने कभी ‘खुला’ की कोशिश नहीं की, कभी खुद नहीं चाहा कि तुम तलाक यानि ‘खुला’ ले लो और नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू करो?”
“की न बाजी। पिछले तीन साल से कोशिश कर रही हूँ। मौलवी साहब कहते हैं कि इतने प्यार करने वाले शौहर से मेरा तलाक चाहना बहुत बड़ा गुनाह है। और बाजी क्या आप नहीं जानती, कि खुला चाहना और मंज़ूर हो जाने के बाद भी तलाक कहना तो मर्द को ही पड़ता है। औरत जितना भी तलाक क्यों न चाहे, अंत में शौहर ही इन लफ़्ज़ों को कहता है और उसे छुटकारा देता है। अब्दुल रशीद भी साफ़ इंकार करते हैं। मेरी मर्ज़ी से मुझे तलाक नहीं देंगे, अपनी मर्ज़ी से जितनी बार घर से बेघर कर दे। इस तरह से बाजी मेरी ज़िन्दगी के सोलह साल निकाह, तलाक, इद्दत और हलाला के बीच चकरघिन्नी बने हुए बीत गए। अरे बाजी! क्या आपकी आँखों में आंसू हैं? ठीक ही है कि मेरे हाल पर अब ग़ैर रोएं। मेरे अपने आंसू तो कब के सूख गए।”
ज़किया क्या कहती, कैसे बताती कि ये आंसू सिर्फ एक सकीना के लिए नहीं थे; ये उन अनगिनत औरतों के लिए थे जिनके सिरों पर तीन बार कहे तलाक की तलवार हमेशा लटकी रहती है, जो परेशान होकर अगर खुद इस जीवन से छुटकारा पाना चाहें तो उनको हज़ारों कारण बताने होंगे। अगर वह कारण उलेमा मान भी ले तो भी तलाक उसे पति ही देगा और इसके लिए अक्सर औरत को अपने बच्चों से मिलने के हक़ को गंवाना होता है, पति को पैसे, मिलकियत देकर ‘तलाक’ कहने के लिए मनाना होता है, मैहर तो खैर कभी मिलती ही नहीं और निर्वाह राशि का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।
ज़किया ने सर को एक झटका दिया; रोने से भला क्या हासिल होगा; यह वक़्त संघर्ष का है और सभी मुद्दों पर खुलकर बात करने का है। उसने फाइल खोल कागज़ निकाला और सकीना की तरफ बढ़ाते हुए बोली- “इसे पढ़ना, समझ में आये तो दस्तखत करना। ये अपील है कि हमें बराबरी के सब हक़ चाहिए जो संविधान हमें देने का वादा करता है। लड़ाई लम्बी भी है और मुश्किल भी लेकिन इस मोर्चे पर उतरना तो पड़ेगा।”
ज़किया बाहर की तरफ चल दी थी जब उसे फिर सकीना की आवाज़ में ‘बाजी’ सुनाई दिया।
सकीना पास आ गई थी, पर्चे को हिलाते हुए बोली, “इसकी हम फोटोकापी करवा लें, दूसरी औरतों से भी बात करेंगे और दस्तखत जमा करेंगे। अरे सुनो सब…”
सकीना तेज़ी से चलती हुई, कुछ औरतों के साथ बाजार की तरफ बढ़ रही थी। ज़किया को बहुत धुंधली सी एक राह दिखाई दे रही थी, मंज़िल का कहीं पता न था। कोई बात नहीं.. रास्ता अगर खुद बनाना है तो मंज़िल भी खुद ढूंढ ही लेंगे।