चले कू-ए-यार से हम, अरसे हुए ठिकाना नहीं मिला
भटकते हुए दरिया को समंदर का साहिल नहीं मिला

अरमां था हमारा मिलकर करेंगे सफर पूरा ज़िंदगी का
हमनफस था मैं उसका, उसे मुझ-सा राहिल नहीं मिला

सोचते रहे हम कि कोई पैगाम लेकर आये मंजिल का
इंकार कर दिया मैंने, उसे मुझ-सा काहिल नहीं मिला

एक तरफा थी मेरी मोहब्बत और वस्ल की चाहत भी
तू मुझे मिला तो पर तुझे मुझ-सा ज़ाहिल नहीं मिला

आजमाएं थे ज़िंदगी के नाटक-रंगमंच ‘शाद’ मैंने भी
सब मिल गया मुझे पर मोहब्बत का मराहिल नहीं मिला

– उमा शंकर (शाद)

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