चँद चकोर की चाह करैं, घन आनँद स्वाति पपीहा कौं धावै।
स्यौं असरैनि के एन बसै रबि, मीन पै दीन ह्वै सागर आवै।
मोसौं तुम्हैं सुनौ जान कृपानिधि! नेह निबाहिबो यौं छबि पावै।
ज्यौं अपनी रुचि राचि कुबेर सु रकहि लै निज अंक बसावै॥

इस सवैया में प्रेमी की दीनता और प्रिय की उदारता और महानता प्रदर्शित की गई है। भक्ति के क्षेत्र में अपने (भक्त के) लघुत्व का तथा भगवान् के महत्व का ज्ञान आवश्यक होता है। यही बात इस सवैये में भी है। कवि कहता है कि-

(अन्य प्रियतमों की महानता भी इसी में है कि वे विनम्र होकर, उदारता पूर्वक अपने प्रेमी के प्रति दया-भाव बनाये रहें। चन्द्रमा चकोर से प्रेम करता है, प्रेम करने के लिए ही आकाश में नित्य आता है तथा अत्यन्त आनन्ददायक स्वाँति नक्षत्र की बूँद पपीहा के लिए दौड़ कर, उसकी रक्षा के हेतु, आती है। इसी प्रकार असरेणु जैसे क्षुद्र धूलिकण के घर पर सूर्य उसे सुखी बनाने के लिए निवास करता है अथवा सूर्य अपनी असरेणु नाम की स्त्री को आनन्दित करने के लिए उस के गृह में निवास करता है) और मीन के समीप समुद्र (विनम्र बन कर, उदारतापूर्वक, कोमलता से भर कर) दीन होकर आता है। इसी प्रकार प्रेमी कहता है कि हे (प्रिय) कृपा की (अनन्त) निधि सुजान! सुनो, तुम्हारा मुझसे स्नेह करना ऐसी शोभा पाता है (अर्थात् तुम्हारा मेरे प्रति किये गए स्नेह का उदाहरण इस प्रकार दिया जा सकता है) जैसे कुबेर जैसा धनपति अपनी इच्छा से, अपने आप किसी निर्धन पर अनुरक्त होकर उसे अपनी गोद में बिठाकर निहोल कर दे।

“ज्यौं अपनी रुचि………………बसावै।”

इस पंक्ति का मूल भाव यह है कि सामान्यतः दो भिन्न स्तर के व्यक्तियों में प्रगाढ़ प्रेम नहीं होता है। यदि कहीं ऐसा संयोग बन भी पड़े तो निम्न स्तर के व्यक्ति को अपना परम सौभाग्य समझना चाहिए। जैसे यदि किसी रंक को कुबेर उठा कर अपनी गोद में ले लें तो उस का बहुत बड़ा सौभाग्य ही होगा।

घनानंद
घनानंद (१६७३- १७६०) रीतिकाल की तीन प्रमुख काव्यधाराओं- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त के अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं। ये 'आनंदघन' नाम से भी प्रसिद्ध हैं।