शाम को महाराज से मिलने के लिए वीरेंद्रसिंह गए। महाराज उन्हें अपनी बगल में बैठाकर बातचीत करने लगे। इतने में हरदयालसिंह और तेजसिंह भी आ पहुँचे। महाराज ने हाल पूछा। उन्होंने अर्ज किया कि फौज मुकाबले में भेज दी गई है। लड़ाई के बारे में राय और तरकीबें होने लगीं। सब सोचते-विचारते आधी रात गुजर गई। यकायक कई चोबदारों ने आकर अर्ज किया – “महाराज, चोर-महल में से कुछ आदमी निकल भागे जिनको दुश्मन समझ पहरे वालों ने तीर छोड़े, मगर वे जख्मी होकर भी निकल गए।”

यह खबर सुन महाराज सोच में पड़ गए। कुमार और तेजसिंह भी हैरान थे। इतने में ही महल से रोने की आवाज आने लगी। सभी का ख्याल उस रोने पर चला गया। पल में रोने और चिल्लाने की आवाज बढ़ने लगी, यहाँ तक कि तमाम महल में हाहाकार मच गया। महाराज और कुमार वगैरह सभी के मुँह पर उदासी छा गई। उसी समय लौंडियाँ दौड़ती हुई आईं और रोते-रोते बड़ी मुश्किल से बोलीं – “चंद्रकांता और चपला का सिर काटकर कोई ले गया।”

यह खबर तीर के समान सभी को छेद गई। महाराज तो एक दफे हाय कह के गिर ही पड़े, कुमार की भी अजब हालत हो गई, चेहरे पर मुर्दनी छा गई। हरदयालसिंह की आँखों से आँसू जारी हो गए, तेजसिंह काठ की मूरत बन गए। महाराज ने अपने को सँभाला और कुमार की अजब हालत देखकर गले लगा लिया। इसके बाद रोते हुए कुमार का हाथ पकड़े महल में दौड़े चले गए। देखा कि हाहाकार मचा हुआ है, महारानी चंद्रकांता की लाश पर पछाड़ें खा रही हैं, सिर फट गया, खून जारी है। महाराज भी जाकर उसी लाश पर गिर पड़े। कुमार में तो इतनी भी ताकत न रही कि अंदर जाते। दरवाजे पर ही गिर पड़े, दाँत बैठ गया चेहरा जर्द और मुर्दे की-सी सूरत हो गई।

चंद्रकांता और चपला की लाशें पड़ी थीं, सिर नहीं थे, कमरे में चारों तरफ खून-ही-खून दिखाई देता था। सभी की अजब हालत थी, महारानी रो-रोकर कहती थीं – “हाय बेटी। तू कहाँ गई। उसका कैसा कलेजा था जिसने तेरे गले पर छुरी चलाई। हाय-हाय। अब मैं जी कर क्या करूँगी। तेरे ही वास्ते इतना बखेड़ा हुआ और तू ही न रही तो अब यह राज्य क्या हो?”

महाराज कहते थे – “अब क्रूर की छाती ठंडी हुई, शिवदत्त को मुराद मिल गई। कह दो, अब आए विजयगढ़ का राज्य करे, हम तो लड़की का साथ देंगे।”

यकायक महाराज की निगाह दरवाजे पर गई। देखा वीरेंद्रसिंह पड़े हुए हैं, सिर से खून जारी है। दौड़े और कुमार के पास आए, देखा तो बदन में दम नहीं, नब्ज का पता नहीं, नाक पर हाथ रखा तो साँस ठंडी चल रही है। अब तो और भी जोर से महाराज चिल्ला उठे, बोले – “गजब हो गया। हमारे चलते नौगढ़ का राज्य भी गारत हुआ। हम तो समझे थे कि वीरेंद्रसिंह को राज्य दे जंगल में चले जाएँगे, मगर हाय। विधाता को यह भी अच्छा न लगा। अरे कोई जाओ, जल्दी तेजसिंह को लिवा लाओ, कुमार को देखें। हाय-हाय। अब तो इसी मकान में मुझको भी मरना पड़ा। मैं समझता हूँ राजा सुरेंद्रसिंह की जान भी इसी मकान में जाएगी। हाय, अभी क्या सोच रहे थे, क्या हो गया। विधाता तूने क्या किया?”

इतने में तेजसिंह आए। देखा कि वीरेंद्रसिंह पड़े हैं और महाराज उनके ऊपर हाथ रखें रो रहे हैं। तेजसिंह की जो कुछ जान बची थी वह भी निकल गई। वीरेंद्रसिंह की लाश के पास बैठ गए और जोर से बोले – “कुमार, मेरा जी तो रोने को भी नहीं चाहता क्योंकि मुझको अब इस दुनिया में नहीं रहना है, मैं तो खुशी-खुशी तुम्हारा साथ दूँगा।” यह कह कर कमर से खंजर निकाला और पेट में मारना ही चाहते थे कि दीवार फाँदकर एक आदमी ने आकर हाथ पकड़ लिया।

तेजसिंह ने उस आदमी को देखा जो सिर से पैर तक सिंदूर से रंगा हुआ था। उसने कहा –

“काहे को देते हौ जान, मेरी बात सुनो दे कान।
यह सब खेल ठगी कौ मान, लाश देखकर लो पहिचान।
उठो!! देखो-भालो, खोजो खोज निकालो।”

यह कह वह दाँत दिखलाता, उछलता, कूदता भाग गया।

– पहला भाग समाप्त –

Previous articleबुद्ध ही मरा पड़ा है
Next articleक़स्बाई लड़की
देवकी नन्दन खत्री
बाबू देवकीनन्दन खत्री (29 जून 1861 - 1 अगस्त 1913) हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोदना, कटोरा भर, भूतनाथ जैसी रचनाएं की।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here