बंद के उस तरफ़ ख़ुद उगी झाड़ियों में लगी रस भरी बेरियाँ ख़ूब तैयार हैं
पर मेरे वास्ते उनको दामन में भर लेना मुमकिन नहीं
ऐ ख़ुदा! जुगनुओं, क़ुमक़ुमों और सितारों की पाकीज़ा ताबिन्दगी
वो जगह, सो रही है जहाँ पर चिनारों के ऊंचे दरख़्तों से लिथुड़ी हुई
जां-फ़ज़ा चांदनी
ख़ुश्बुएं ख़ेमा-ज़न हैं जहाँ रात दिन
मेरी उन सरहदों तक रसाई नहीं
और पच्छिम की चंचल सुरीली हवा मेरे आँगन से होकर गुज़रती नहीं
मैं कि बारिश के क़तरों से लिथुड़े हुए सब्ज़ पत्तों के बोसों से महरूम हूँ
इन किवाड़ों की परली तरफ़ देर से बंद फाटक पे ठहरे हुए अजनबी
आस और बे-कली
हर्फ़ और अन-कही
कुछ नहीं
मैंने कुछ भी तो देखा नहीं
मेरे कमरे की सीलन, घुटन और ख़स्ता दिवारों के प्यारे ख़ुदा
और कुछ न सही
तो मुझे इक गुनह की इजाज़त मिले..