और, वह कडे की आगी में कोई चीज़ भून रहा है।

सामने तीन बकरियाँ, जिनमें से एक के मोटे थन से एक पठेरू लटक रही, थोड़ी दूर पर एक गाय चर रही और एक बछवा गर्दन को पेट में घुसेड़े सो रहा; दाहिनी ओर एक बुढ़िया घास छील रही, और, वह कडे की आगी में कोई चीज़ भून रहा है।

पुरवा हवा आग की धधक को रह रह कर बढ़ा देती है, वह लकड़ी से कडे पर रखी चीज़ को उलट पुलट देता है, आग की दहक से चेहरा झुलस रहा है उसका, लेकिन उस पर उल्लास-ही-उल्लास नाच उठता है रह-रह! वह बड़े प्रेम से कडे की आगी में कोई चीज़ भून रहा है जो।

दूर पर कई खेतों में हल चलाये जा रहे हैं और ढोरों का एक बड़ा झुण्ड, ऊपरली परती में चर रहा है। नदी कछार के झौए के वन में, हिलोर है, ह्हास है। अभी एक बटेर फुर से उड़ गई है हवा को तेज पंखों की आरी से चीरती-सी, गाँव की धुंधली छाया की पृष्ठभूमि में दो ताड़ के पेड़ गर्वोन्नत मस्तक उठाये झूम रहे हैं, और वह बड़े जतन से कडे की आगी में कोई चीज़ भून रहा है।

सूखे हुए नाले में एकाकी बगुला उदास खड़ा है। कटे हुए गेहूं के खेत में शून्यता ही शून्यता है, और, वह बड़े आनन्द से कडे की आगी में कोई चीज़ भून रहा है।

यही दस साल का होगा वह। प्रकृति ने कैसा क्रूर मज़ाक किया है उसके चेहरे से –  न रंग न रूप, काला भूत! निकला हुआ पेट मानो उसकी शाश्वत बुभुक्षा का डंका पीट रहा है। सूखी टाँगो को फैलाये, मोटे होठों से लार टपकाता, भद्दी उँगलियो से वह कडे की आगी पर कोई चीज़ भून रहा है।

अभी सड़क से बस गुज़री है – खचाखच भरी हुई। एक भारी भरकम सेठ-दम्पति, कम उम्र रिक्शेवाले का कचूमर निकालते, वह चले जा रहे हैं। बैलगाड़ी पर ऊँघते गाडीवान के मुंह से बिरहा की कड़ी टूट-टूट कर रह जाती है। सड़क पर इतने लोग क्यो चलते हैं और सबके पैर इतनी तेजी से क्यों उठा करते हैं? क्या शहर में लड्डू बँटते हैं? बँटा करे – वह तो कडे की आगी पर कोई चीज़ भूनने में ही मगन है?

चीज़ शायद भुन गई। लार पतली होकर चू-चू पड़ती है। कडे से निकली चीज़ को वह तलहथी पर लेता है- तलहथी जल रही है, किन्तु इस नायाब चीज़ को फेंके कैसे? चट मुंह में रख लेता है। किन्तु, इतनी गर्मी जीभ को भी बर्दास्त नहीं। दो-एक बार मुंह खोल कर, हवा लेने की कोशिश करता है, किन्तु कडे की आगी में भुनी हुई चीज़ की आग कम नहीं हो रही। क्या थूक दे? नहीं, नहीं— यह भूल उससे नहीं होगी। वह निगलने की कोशिश कर रहा है।

काली पेशानी पर पमीना-पसीना है, सांस फूल रही है, कंठ झुलस रहा है, नाक में सोंधी गन्ध है, कान में सांय-साँय आवाज़। जीभ का पानी कहाँ सूख गया कमबख्त? वह निगले तो कैसे—उगले तो कैसे? आँखों में अब पानी-पानी है—यह पानी जीभ पर क्यों नहीं जाता?

अभी-अभी एक चील सर के ऊपर मँडराकर चली गई है। और दो कौवे उसके सामने काँव-काँव करते, अपनी हिस्सेदारी की याद उसे दिला रहे हैं, और वह कडे की आगी में भुनी हुई उस नायाब चीज़ को जैसे-तैसे निगलकर कैसी तृप्ति की साँस ले रहा है।

रामवृक्ष बेनीपुरी
रामवृक्ष बेनीपुरी (२३ दिसंबर, 1900 - ९ सितंबर, १९६८) भारत के एक महान विचारक, चिन्तक, मनन करने वाले क्रान्तिकारी साहित्यकार, पत्रकार, संपादक थे। वे हिन्दी साहित्य के शुक्लोत्तर युग के प्रसिद्ध साहित्यकार थे।