वो आँखें हैं उन ढलती आँखों की
जिनमें रौशनी ज़रा कम सी है,
बुझे हुए दीप की लौ सी हैं
जिनके बगैर किसी प्रिय का भी संदेश पढ़ा न जाये
उस हर लम्हे की राज़दार भी हैं वो
जिनमें ज़रा चुपके से पिरो लिया उन लम्हों को,
जिसमें एक सदी की यादें बसी हुई सी लगती हैं।
सुबह-सुबह की अखबार पर
पहली नज़र जो पड़ जाए,
ढूंढती हैं बुझती हुई आँखें उन्हीं आँखों को
शाम की घुलती हुई सुरमयी को भी
निहारने को अपलक,
आँखों पर बिछ जाती हैं वो आँखें
वो चश्मे जिनमें बसती हैं
रौशनी उन ढलती आँखों की।

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अनुपमा मिश्रा
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