चील ने फिर से झपट्टा मारा है। ऊपर, आकाश में मण्डरा रही थी जब सहसा, अर्द्धवृत्त बनाती हुई तेज़ी से नीचे उतरी और एक ही झपट्टे में, माँस के लोथड़े को पंजों में दबोचकर फिर से वैसा ही अर्द्धवृत्त बनाती हुई ऊपर चली गई। वह क़ब्रगाह के ऊँचे मुनारे पर जा बैठी है और अपनी पीली चोंच, माँस के लोथड़े में बार-बार गाड़ने लगी है।

क़ब्रगाह के इर्द-गिर्द दूर तक फैले पार्क में हल्की-हल्की धुन्ध फैली है। वायुमण्डल में अनिश्चय-सा डोल रहा है। पुरानी क़ब्रगाह के खण्डहर जगह-जगह बिखरे पड़े हैं। इस धुन्धलके में उसका गोल गुम्बद और भी ज़्यादा वृहदाकार नज़र आता है। यह मक़बरा किसका है, मैं जानते हुए भी बार-बार भूल जाता हूँ। वातावरण में फैली धुन्ध के बावजूद, इस गुम्बद का साया घास के पूरे मैदान को ढके हुए है जहाँ मैं बैठा हूँ जिससे वायुमण्डल में सूनापन और भी ज़्यादा बढ़ गया है, और मैं और भी ज़्यादा अकेला महसूस करने लगा हूँ।

चील मुनारे पर से उड़कर फिर से आकाश में मण्डराने लगी है, फिर से न जाने किस शिकार पर निकली है। अपनी चोंच नीची किए, अपनी पैनी आँखें धरती पर लगाए, फिर से चक्कर काटने लगी है— मुझे लगने लगा है जैसे उसके डैने लम्बे होते जा रहे हैं और उसका आकार किसी भयावह जन्तु के आकार की भाँति फूलता जा रहा है। न जाने वह अपना निशाना बाँधती हुई कब उतरे, कहाँ उतरे। उसे देखते हुए मैं त्रस्त-सा महसूस करने लगा हूँ।

किसी जानकार ने एक बार मुझसे कहा था कि हम आकाश में मण्डराती चीलों को तो देख सकते हैं पर इन्हीं की भाँति वायुमण्डल में मण्डराती उन अदृश्य ‘चीलों’ को नहीं देख सकते जो वैसे ही नीचे उतरकर झपट्टा मारती हैं और एक ही झपट्टे में इंसान को लहूलुहान करके या तो वहीं फेंक जाती हैं, या उसके जीवन की दिशा मोड़ देती हैं। उसने यह भी कहा था कि जहाँ चील की आँखें अपने लक्ष्य को देखकर वार करती हैं, वहाँ वे अदृश्य चीलें अन्धी होती हैं, और अन्धाधुन्ध हमला करती हैं। उन्हें झपट्टा मारते हम देख नहीं पाते और हमें लगने लगता है कि जो कुछ भी हुआ है, उसमें हम स्वयं कहीं दोषी रहे होंगे। हम जो हर घटना को कारण की कसौटी पर परखते रहे हैं, हम समझने लगते हैं कि अपने सर्वनाश में हम स्वयं कहीं ज़िम्मेदार रहे होंगे।

उसकी बातें सुनते हुए मैं और भी ज़्यादा विचलित महसूस करने लगा था। उसने कहा था, ‘जिस दिन मेरी पत्नी का देहान्त हुआ, मैं अपने मित्रों के साथ, बग़ल वाले कमरे में बैठा बतिया रहा था। मैं समझे बैठा था कि वह अन्दर सो रही है। मैं एक बार उसे बुलाने भी गया था कि आओ, बाहर आकर हमारे पास बैठो। मुझे क्या मालूम था कि मुझसे पहले ही कोई अदृश्य जन्तु अन्दर घुस आया है और उसने मेरी पत्नी को अपनी जकड़ में ले रखा है। हम सारा वक़्त इन अदृश्य जन्तुओं में घिरे रहते हैं।’

अरे, यह क्या! शोभा? शोभा पार्क में आयी है! हाँ, हाँ, शोभा ही तो है। झाड़ियों के बीचों-बीच वह धीरे-धीरे एक ओर बढ़ती आ रही है। वह कब यहाँ आयी है और किस ओर से, इसका मुझे पता ही नहीं चला। मेरे अन्दर ज्वार-सा उठा। मैं बहुत दिन बाद उसे देख रहा था।

शोभा दुबली हो गई है, तनिक झुककर चलने लगी है, पर उसकी चाल में अभी भी पहले-सी कमनीयता है, वही धीमी चाल, वही बाँकापन, जिसमें उसके समूचे व्यक्तित्व की छवि झलकती है। धीरे-धीरे चलती हुई वह घास का मैदान लाँघ रही है। आज भी बालों में लाल रंग का फूल ढँके हुए है।

शोभा, अब भी तुम्हारे होंठों पर वही स्निग्ध-सी मुस्कान खेल रही होगी जिसे देखते मैं थकता नहीं था, होंठों के कोनों में दबी-सिमटी मुस्कान। ऐसी मुस्कान तो तभी होंठों पर खेल सकती है जब तुम्हारे मन में किन्हीं अलौकिक भावनाओं के फूल खिल रहे हों।

मन चाहा, भागकर तुम्हारे पास पहुँच जाऊँ और पूछूँ, शोभा, अब तुम कैसी हो?

बीते दिन क्यों कभी लौटकर नहीं आते? पूरा कालखण्ड न भी आए, एक दिन ही आ जाए, एक घड़ी ही, जब मैं तुम्हें अपने निकट पा सकूँ, तुम्हारे समूचे व्यक्तित्व की महक से सराबोर हो सकूँ।

मैं उठ खड़ा हुआ और उसकी ओर जाने लगा। मैं झाड़ियों, पेड़ों के बीच छिपकर आगे बढ़ूँगा ताकि उसकी नज़र मुझ पर न पड़े। मुझे डर था कि यदि उसने मुझे देख लिया तो वह जैसे-तैसे क़दम बढ़ाती, लम्बे-लम्बे डग भरती पार्क से बाहर निकल जाएगी।

जीवन की यह विडम्बना ही है कि जहाँ स्त्री से बढ़कर कोई जीव कोमल नहीं होता, वहाँ स्त्री से बढ़कर कोई जीव निष्ठुर भी नहीं होता। मैं कभी-कभी हमारे सम्बन्धों को लेकर क्षुब्ध भी हो उठता हूँ। कई बार तुम्हारी ओर से मेरे आत्म-सम्मान को धक्का लग चुका है।

हमारे विवाह के कुछ ही समय बाद तुम मुझे इस बात का अहसास कराने लगी थीं कि यह विवाह तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हुआ है और तुम्हारी ओर से हमारे आपसी सम्बन्धों में एक प्रकार का ठण्डापन आने लगा था। पर मैं उन दिनों तुम पर निछावर था, मतवाला बना घूमता था। हमारे बीच किसी बात को लेकर मनमुटाव हो जाता, और तुम रूठ जाती, तो मैं तुम्हें मनाने की भरसक चेष्ठा किया करता, तुम्हें हँसाने की। अपने दोनों कान पकड़ लेता, ‘कहो तो दण्डवत लेटकर ज़मीन पर नाक से लकीरें भी खींच दूँ, जीभ निकालकर बार-बार सिर हिलाऊँ?’ और तुम, पहले तो मुँह फुलाए मेरी ओर देखती रहती, फिर सहसा खिलखिलाकर हँसने लगती, बिल्कुल बच्चों की तरह जैसे तुम हँसा करती थी और कहती, ‘चलो, माफ़ कर दिया।’

और मैं तुम्हें बाँहों में भर लेता था। मैं तुम्हारी टुनटुनाती आवाज़ सुनते नहीं थकता था, मेरी आँखें तुम्हारे चेहरे पर, तुम्हारी खिली पेशानी पर लगी रहतीं और मैं तुम्हारे मन के भाव पढ़ता रहता।

स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में कुछ भी तो स्पष्ट नहीं होता, कुछ भी तो तर्क-संगत नहीं होता। भावनाओं के संसार के अपने नियम हैं, या शायद कोई भी नियम नहीं।

हमारे बीच सम्बन्धों की खाई चौड़ी होती गई, फैलती गई। तुम अक्सर कहने लगी थीं, ‘मुझे इस शादी में क्या मिला?’ और मैं जवाब में तुनककर कहता, ‘मैंने कौन से ऐसे अपराध किए हैं कि तुम सारा वक़्त मुँह फुलाए रहो और मैं सारा वक़्त तुम्हारी दिलजोई करता रहूँ? अगर एक साथ रहना तुम्हें फल नहीं रहा था तो पहले ही मुझे छोड़ जातीं। तुम मुझे क्यों नहीं छोड़ कर चली गईं? तब न तो हर आए दिन तुम्हें उलाहनें देने पड़ते और न ही मुझे सुनने पड़ते। अगर गृहस्थी में तुम मेरे साथ घिसटती रही हो, तो इसका दोषी मैं नहीं हूँ, स्वयं तुम हो। तुम्हारी बेरुख़ी मुझे सालती रहती है, फिर भी अपनी जगह अपने को पीड़ित दुखियारी समझती रहती हो।’

मन हुआ, मैं उसके पीछे न जाऊँ। लौट आऊँ, और बेंच पर बैठकर अपने मन को शान्त करूँ। कैसी मेरी मनःस्थिति बन गई है। अपने को कोसता हूँ तो भी व्याकुल, और जो तुम्हें कोसता हूँ तो भी व्याकुल। मेरा साँस फूल रहा था, फिर भी मैं तुम्हारी ओर देखता खड़ा रहा।

सारा वक़्त तुम्हारा मुँह ताकते रहना, सारा वक़्त लीपा-पोती करते रहना, अपने को हर बात के लिए दोषी ठहराते रहना, मेरी बहुत बड़ी भूल थी।

पटरी पर से उतर जाने के बाद हमारा गृहस्थ जीवन घिसटने लगा था। पर जहाँ शिकवे-शिकायत, खीझ, खिंचाव, असहिष्णुता, नुकीले कंकड़-पत्थरों की तरह हमारी भावनाओं को छीलने-काटने लगे थे, वहीं कभी-कभी विवाहित जीवन के आरम्भिक दिनों जैसी सहज-सद्भावना भी हरहराते सागर के बीच किसी झिलमिलाते द्वीप की भाँति हमारे जीवन में सुख के कुछ क्षण भी भर देती।

पर कुल मिलाकर हमारे आपसी सम्बन्धों में ठण्डापन आ गया था। तुम्हारी मुस्कान अपना जादू खो बैठी थी, तुम्हारी खुली पेशानी कभी-कभी सँकरी लगने लगी थी, और जिस तरह बात सुनते हुए तुम सामने की ओर देखती रहतीं, लगता तुम्हारे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा है। नाक-नक़्श वही थे, अदाएँ भी वही थीं, पर उनका जादू ग़ायब हो गया था। जब शोभा आँखें मिचमिचाती है, मैं मन ही मन कहता— तू बड़ी मूर्ख लगती है।

मैंने फिर से नज़र उठाकर देखा। शोभा नज़र नहीं आयी। क्या वह फिर से पेड़ों-झाड़ियों के बीच आँखों से ओझल हो गई है? देर तक उस ओर देखते रहने पर भी जब वह नज़र नहीं आयी, तो मैं उठ खड़ा हुआ। मुझे लगा जैसे वह वहाँ पर नहीं है। मुझे झटका-सा लगा। क्या मैं सपना तो नहीं देख रहा था? क्या शोभा वहाँ पर थी भी या मुझे धोखा हुआ है? मैं देर तक आँखें गाड़े उस ओर देखता रहा जिस ओर वह मुझे नज़र आयी थी।

सहसा मुझे फिर से उसकी झलक मिली। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था। पहले भी वह आँखों से ओझल होती रही थी। मुझे फिर से रोमांच-सा हो आया। हर बार जब वह आँखों से ओझल हो जाती, तो मेरे अन्दर उठने वाली तरह-तरह की भावनाओं के बावजूद, पार्क पर सूनापन-सा उतर आता। पर अबकी बार उस पर नज़र पड़ते ही मन विचलित-सा हो उठा। शोभा पार्क में से निकल जाती तो?

एक आवेग मेरे अन्दर फिर से उठा। उसे मिल पाने के लिए दिल में ऐसी छटपटाहट-सी उठी कि सभी शिकवे-शिकायत, कचरे की भाँति उस आवेग में बह से गए। सभी मन-मुटाव भूल गए। यह कैसे हुआ कि शोभा फिर से मुझे विवाहित जीवन के पहले दिनों वाली शोभा नज़र आने लगी थी। उसके व्यक्तित्व का सारा आकर्षण फिर से लौट आया था, और मेरा दिल फिर से भर-भर आया। मन में बार-बार यही आवाज़ उठती, ‘मैं तुम्हें खो नहीं सकता। मैं तुम्हें कभी खो नहीं सकता।’

यह कैसे हुआ कि पहले वाली भावनाएँ मेरे अन्दर पूरे वेग से फिर से उठने लगी थीं।

मैंने फिर से शोभा की ओर क़दम बढ़ा दिए।

हाँ, एक बार मेरे मन में सवाल ज़रूर उठा, कहीं मैं फिर से अपने को धोखा तो नहीं दे रहा हूँ? क्या मालूम वह फिर से मुझे ठुकरा दे?

पर नहीं, मुझे लग रहा था मानो विवाहोपरान्त, क्लेश और कलह का सारा कालखण्ड झूठा था, मानो वह कभी था ही नहीं। मैं वर्षों बाद तुम्हें उन्हीं आँखों से देख रहा था जिन आँखों से तुम्हें पहली बार देखा था। मैं फिर से तुम्हें बाँहों में भर पाने के लिए आतुर और अधीर हो उठा था।

तुम धीरे-धीरे झाड़ियों के बीच आगे बढ़ती जा रही थीं। तुम पहले की तुलना में दुबला गई थीं और मुझे बड़ी निरीह और अकेली-सी लग रही थीं। अबकी बार तुम पर नज़र पड़ते ही मेरे मन का सारा क्षोभ, बालू की भीत की भाँति भुरभुरा कर गिर गया था। तुम इतनी दुबली, इतनी निसहाय-सी लग रही थीं कि मैं बेचैन हो उठा और अपने को धिक्कराने लगा। तुम्हारी सुनक-सी काया कभी एक झाड़ी के पीछे तो कभी दूसरी झाड़ी के पीछे छिप जाती। आज भी तुम बालों में लाल रंग का फूल टाँकना नहीं भूली थीं।

स्त्रियाँ मन से क्षुब्ध और बेचैन रहते हुए भी, बन-सँवरकर रहना नहीं भूलतीं। स्त्री मन से व्याकुल भी होगी तो भी साफ़-सुथरे कपड़े पहने, सँवरे-सम्भले बाल, नख-शिख से दुरुस्त होकर बाहर निकलेगी। जबकि पुरुष, भाग्य का एक ही थपेड़ा खाने पर फूहड़ हो जाता है। बाल उलझे हुए, मुँह पर बढ़ती दाढ़ी, कपड़े मुचड़े हुए और आँखो में वीरानी लिए, भिखमंगों की तरह घर से बाहर निकलेगा। जिन दिनों हमारे बीच मनमुटाव होता और तुम अपने भाग्य को कोसती हुई घर से बाहर निकल जाती थीं, तब भी ढंग के कपड़े पहनना और चुस्त-दुरुस्त बनकर जाना नहीं भूलती थी। ऐसे दिनो में भी तुम बाहर आँगन में लगे गुलाब के पौधे में से छोटा-सा लाल फूल बालों में टाँकना नहीं भूलती थीं। जबकि मैं दिन-भर हाँफता, किसी जानवर की तरह एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर काटता रहता था।

तुम्हारी शॉल, तुम्हारे दाएँ कन्धे पर से खिसक गई थी और उसका सिरा ज़मीन पर तुम्हारे पीछे-घिसटने लगा था, पर तुम्हें इसका भास नहीं हुआ क्योंकि तुम पहले की ही भाँति धीरे-धीरे चलती जा रही थीं, कन्धे तनिक आगे को झुके हुए। कन्धे पर से शॉल खिसक जाने से तुम्हारी सुडौल गर्दन और अधिक स्पष्ट नज़र आने लगी थी। क्या मालूम तुम किन विचारों में खोयी चली जा रही हो। क्या मालूम हमारे बारे में, हमारे सम्बन्ध-विच्छेद के बारे में ही सोच रही हो। कौन जाने किसी अन्तः प्रेरणावश, मुझे ही पार्क में मिल जाने की आशा लेकर तुम यहाँ चली आयी हो। कौन जाने तुम्हारे दिल में भी ऐसी ही कसक ऐसी ही छटपटाहट उठी हो, जैसी मेरे दिल में। क्या मालूम भाग्य हम दोनों पर मेहरबान हो गया हो और नहीं तो मैं तुम्हारी आवाज़ तो सुन पाऊँगा, तुम्हें आँख-भर देख तो पाऊँगा। अगर मैं इतना बेचैन हूँ तो तुम भी तो निपट अकेली हो और न जाने कहाँ भटक रही हो। आख़िरी बार, सम्बन्ध-विच्छेद से पहले, तुम एकटक मेरी ओर देखती रही थीं। तब तुम्हारी आँखें मुझे बड़ी-बड़ी सी लगी थीं, पर मैं उनका भाव नहीं समझ पाया था। तुम क्यों मेरी ओर देख रही थीं और क्या सोच रही थीं, क्यों नहीं तुमने मुँह से कुछ भी कहा? मुझे लगा था तुम्हारी सभी शिकायतें सिमटकर तुम्हारी आँखों के भाव में आ गए थे। तुम मुझे निःस्पन्द मूर्ति जैसी लगी थीं, और उस शाम मानो तुमने मुझे छोड़ जाने का फ़ैसला कर लिया था।

मैं नियमानुसार शाम को घूमने चला गया था। दिल और दिमाग़ पर भले ही कितना ही बोझ हो, मैं अपना नियम नहीं तोड़ता। लगभग डेढ़ घण्टे के बाद जब मैं घर वापस लौटा तो ड्योढ़ी में क़दम रखते ही मुझे अपना घर सूना-सूना लगा था, और अन्दर जाने पर पता चलता कि तुम जा चुकी हो। तभी मुझे तुम्हारी वह एकटक नज़र याद आयी थी, मेरी ओर देखती हुई।

तुम्हें घर में न पाकर पहले तो मेरे आत्म-सम्मान को धक्का-सा लगा था कि तुम जाने से पहले न जाने क्या सोचती रही हो, अपने मन की बात मुँह तक नहीं लायीं। पर शीघ्र ही उस वीराने घर में बैठा मैं मानो अपना सिर धुनने लगा था। घर भाँय-भाँय करने लगा था।

अब तुम धीरे-धीरे घास के मैदान को छोड़कर चौड़ी पगडण्डी पर आ गई थीं जो मक़बरे की प्रदक्षिणा करती हुई-सी पार्क के प्रवेश द्वारा की ओर जाने वाले रास्ते से जा मिलती है। शीघ्र ही तुम चलती हुईं पार्क के फाटक तक जा पहुँचोगी और आँखों से ओझल हो जाओगी।

तुम मक़बरे का कोना काटकर उस चौकोर मैदान की ओर जाने लगी हो जहाँ बहुत से बेंच रखे रहते हैं और बड़ी उम्र के थके-हारे लोग सुस्ताने के लिए बैठ जाते हैं।

कुछ दूर जाने के बाद तुम फिर से ठिठकी थीं, मोड़ आ गया था और मोड़ काटने से पहले तुमने मुड़कर देखा था। क्या तुम मेरी ओर देख रही हो? क्या तुम्हें इस बात की आहट मिल गई है कि मैं पार्क में पहुँचा हुआ हूँ और धीरे-धीरे तुम्हारे पीछे चला आ रहा हूँ?

क्या सचमुच इसी कारण ठिठककर खड़ी हो गई हो, इस अपेक्षा से कि मैं भागकर तुम से जा मिलूँगा? क्या यह मेरा भ्रम ही है या तुम्हारा स्त्री-सुलभ संकोच कि तुम चाहते हुए भी मेरी ओर क़दम नहीं बढ़ाओगी?

पर कुछ क्षण तक ठिठके रहने के बार तुम फिर से पार्क के फाटक की ओर बढ़ने लगी थीं।

मैंने तुम्हारी और क़दम बढ़ा दिए। मुझे लगा जैसे मेरे पास गिने-चुने कुछ क्षण ही रह गए हैं जब मैं तुमसे मिल सकता हूँ। अब नहीं मिल पाया तो कभी नहीं मिल पाऊँगा। और न जाने क्यों, यह सोचकर मेरा गला रुँधने लगा था।

पर मैं अभी भी कुछ ही क़दम आगे की और बढ़ा पाया था कि ज़मीन पर किसी भागते साए ने मेरा रास्ता काट दिया। लम्बा-चौड़ा साया, तैरता हुआ-सा, मेरे रास्ते को काटकर निकल गया था। मैंने नज़र ऊपर उठायी और मेरा दिल बैठ गया। चील हमारे सिर के ऊपर मण्डराए जा रही थी। क्या यह चील ही है? पर उसके डैने कितने बड़े हैं और पीली चोंच लम्बी, आगे को मुड़ी हुई। और उसकी छोटी-छोटी पैनी आँखों में भयावह-सी चमक है।

चील आकाश में हमारे ऊपर चक्कर काटने लगी थी और उसका साया बार-बार मेरा रास्ता काट रहा था।

हाय, यह कहीं तुम पर न झपट पड़े। मैं बदहवास-सा तुम्हारी ओर दौड़ने लगा, मन चाहा, चिल्लाकर तुम्हें सावधान कर दूँ, पर डैने फैलाए चील को मण्डराता देखकर मैं इतना त्रस्त हो उठा था कि मुँह में से शब्द निकल नहीं पा रहे थे। मेरा गला सूख रहा था और पाँव बोझिल हो रहे थे। मैं जल्दी तुम तक पहुँचना चाहता था, मुझे लगा जैसे मैं साए को लाँघ ही नहीं पा रहा हूँ। चील ज़रूर नीचे आने लगी होगी। उसका साया इतना फैलता जा रहा है कि मैं उसे लाँघ ही नहीं सकता।

मेरे मस्तिष्क में एक ही वाक्य बार-बार घूम रहा था, कि तुम्हें उस मण्डराती चील के बारे में सावधान कर दूँ और तुमसे कहूँ कि जितनी जल्दी पार्क में से निकल सकती हो, निकल जाओ। मेरी साँस धौंकनी की तरह चलने लगी थी, और मुँह से एक शब्द भी नहीं फूट पा रहा था।

बाहर जाने वाले फाटक से थोड़ा हटकर, दाएँ हाथ एक ऊँचा-सा मुनारा है जिस पर कभी मक़बरे की रखवाली करनेवाला पहरेदार खड़ा रहता होगा। अब वह मुनार भी टूटी-फूटी हालत में है।

जिस समय मैं साए को लाँघ पाने को भरसक चेष्टा कर रहा था, उस समय मुझे लगा था जैसे तुम चलती हुई उस मुनारे के पीछे जा पहुँची हो, क्षण-भर के लिए मैं आश्वस्त-सा हो गया। तुम्हें अपने सिर के ऊपर मण्डराते ख़तरे का आभास हो गया होगा। न भी हुआ हो तो भी तुमने बाहर निकलने का जो रास्ता अपनाया था, वह अधिक सुरक्षित था।

मैं थक गया था। मेरी साँस बुरी तरह से फूली हुई थी। लाचार, मैं उसी मुनारे के निकट एक पत्थर पर हाँफता हुआ बैठ गया। कुछ भी मेरे बस में नहीं रह गया था। पर मैं सोच रहा था कि ज्यों ही तुम मुनारे के पीछे से निकलकर सामने आओगी, मैं चिल्लाकर तुमसे पार्क में से निकल भागने का आग्रह करूँगा। चील अब भी सिर पर मण्डराए जा रही थी।

तभी मुझे लगा तुम मुनारे के पीछे से बाहर आयी हो। हवा के झोंके से तुम्हारी साड़ी का पल्लू और हवा में अठखेली-सी करती हुई तुम सीधा फाटक की ओर बढ़ने लगी हो।

“‘शोभा!” मैं चिल्लाया।

पर तुम बहुत आगे बढ़ चुकी थीं, लगभग फाटक के पास पहुँच चुकी थीं। तुम्हारी साड़ी का पल्लू अभी भी हवा में फरफरा रहा थ। बालों में लाल फूल बड़ा खिला-खिला लग रहा था।

मैं उठ खड़ा हुआ और जैसे तैसे क़दम बढ़ाता हुआ तुम्हारी ओर जाने लगा। मैं तुमसे कहना चाहता था, ‘अच्छा हुआ जो तुम चील के पंजों से बचकर निकल गई हो, शोभा।’

फाटक के पास तुम रुकी थीं, और मुझे लगा था जैसे मेरी ओर देखकर मुस्करायी थीं और फिर पीठ मोड़ ली थी और आँखों से ओझल हो गई थीं।

मैं भागता हुआ फाटक के पास पहुँचा था। फाटक के पास मैदान में हल्की-हल्की धूल उड़ रही थी और पार्क में आने वाले लोगों के लिए चौड़ा, खुला रास्ता भाँय-भाँय कर रहा था।

तुम पार्क में से सही सलामत निकल गई हो, यह सोचकर मैं आश्वस्त-सा महसूस करने लगा था। मैंने नज़र उठाकर ऊपर की ओर देखा। चील वहाँ पर नहीं थी। चील जा चुकी थी। आसमान साफ़ था और हल्की-हल्की धुन्ध के बावजूद उसकी नीलिमा जैसे लौट आयी थी।

Book by Bhisham Sahni:

भीष्म साहनी
भीष्म साहनी (८ अगस्त १९१५- ११ जुलाई २००३) आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से थे। १९३७ में लाहौर गवर्नमेन्ट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद साहनी ने १९५८ में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। भीष्म साहनी को हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। उन्हें १९७५ में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९७५ में शिरोमणि लेखक अवार्ड (पंजाब सरकार), १९८० में एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन का लोटस अवार्ड, १९८३ में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड तथा १९९८ में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया। उनके उपन्यास तमस पर १९८६ में एक फिल्म का निर्माण भी किया गया था।