चेहरा कितनी विकट चीज़ है
जैसे-जैसे उम्र गुज़रती है वह या तो
एक दोस्त होता जाता है या तो दुश्मन
देखो, सब चेहरों को देखो
पहली बार जिन्हें देखा है
उन पर नज़र गड़ाकर देखो
तुमको ख़बर मिलेगी उनसे
अख़बारों से नहीं मिलेगी

सब जाने-पहचाने चेहरे
जाने कितनी जल्दी में हैं
कतराते हैं, मुड़ जाते हैं
नौजवान हँसता है कहकर
ठीक सामने ‘तो मेरा क्या’

लोग देखते खड़े रहे सब
पहने सुन्दर-सुथरे चेहरे
हँस करके पूछने लगे फिर
अगर वही हो तुम जिससे तुम
लड़ते हो तो लड़ते क्यों हो

बोले थे अभी आप जाने क्या
सबको सुनायी दिया हा हा हा
आपके विचार में तर्क है, धमकी है
आप जासूस हैं, आप हैं डरावने
आप विश्वास से देख रहे सामने

झुर्रियाँ डरा हुआ दुबला-साँवला चेहरा
बस से उतरी हुई भीड़ में एक-एक कर देखा वह नहीं था
पिछली बार बहुत देर पहले उसे अच्छी तरह देखा था
रोज़ आते-जाते हैं बस में लोग एक दिन ख़त्म हो जाते हैं
या कि ख़त्म नहीं होते चुपचाप
मरने के लिए कहीं दुबक जाते हैं

एकाएक चौंककर डूबे किताब में आदमी ने फ़ोन किया
गणतन्त्र दिवस को परेड का मेरा पास कहाँ है
वह पढ़ा-लिखा पुरुष पुलिस को देखने
जाएगा जिससे उसे राजपुरुष देख लें
दफ़्तर में दल के गया, वे जमे बैठे थे
तने हुए जितना वे तन सकते थे, मोटे शरीर
उनके तले शक्ति थी दबी हुई जनता की
उस शक्ति की पीड़ा चेहरे पर थी
जब वे एक लम्बी पाद पादे, राहत मिली

खेत में सजी हुई क्यारियाँ थीं
उनमें पानी भरा था
मैंने हाथ से उन्हें पटीला
अँखुए झाँकते दिखायी दिए
सपना था यह
धीरे से बदल गया
अब मुझे याद नहीं, शायद मेरी बीवी थी
खुले बाल दूर देखती हुई दौड़ी आती थी
दौड़ता आया लड़का हाँफता हाथ में आप इसे
पीछे भूल गए थे मुझसे कहा
दौड़ने में उसका चेहरा सफ़ेद पड़ गया था
आँखें फट रही थीं क्योंकि उसके तन में
काफ़ी ख़ून नहीं था
जो शरीर सूखे मरे पाए गए
उनमें जाने कितने कलाकारों के थे
उनकी कोई रचना छपी नहीं थी बल्कि
उनकी कोई रचना हुई नहीं थी क्योंकि
अभी उन्हें करनी थी
दो हज़ार वर्ष के अत्याचार के नीचे से उठकर
उन्हें एक दिन करनी थी रचना
इसके पहले ही वे मारे गए
इस वर्ष पिछले वर्ष की तरह
सभा में बैठा था हिन्दी का लेखक
राजा ने कहा कि मेरे भाषण के बाद
इसका कोई हिन्दी में उल्था कर देगा
लेखक अपनी जगह बैठा डरने लगा
अनुवाद करने को उसे कहा जाएगा
क्योंकि वह हिन्दी का लेखक है
लेकिन अध्यक्ष हिन्दीवाले थे
कहा कोई बात नहीं
बाक़ी भाषण हिन्दी में होंगे
अब पचास मिनट बचे और पन्द्रह वक्ता हैं
बोल लें हिन्दी पाँच-पाँच मिनट

लोगों को जब मारो तो वे हँसते हैं
कि वाह कितना मेरा दर्द पहचाना
बहुत दिन हो गए जिनसे मिले हुए
उनमें से बहुत से अब मिलने के क़ाबिल नहीं रहे
वे इतने बूढ़े हो चुके हैं कि उन्हें अब भविष्य के
किसी मसले पर मुझसे कोई बात करने को
नहीं रह गई है
वे क्रोध में कहते हैं कुछ अनर्गल जो
मैं समझ पाता नहीं सत्य या असत्य है
जब मैंने कहा कि यह फ़िल्म घातक है
इसमें मनुष्य को झूठा दिखाया है
तो प्रधानमन्त्री नाराज़ हुए—यह व्यक्ति मेरे विरुद्ध है

छोटे क़द के बूढ़े जब अमीर होते हैं
कितने दुष्ट लगत हैं
हँसमुख जब रहते हैं
बूढ़े होने के साथ थकती है बुद्धि
किन्तु देह में बल है
इससे भय लगता है

जीने का अच्छा ढंग बूढ़े होते-होते क्षय होते जाना है
किन्तु लोग देह स्वस्थ रखने पर बहुत ज़ोर देते हैं
काले कुम्हलाए हुए काले रंगवाले नौजवानों की एक
सभा में बैठा है बूढ़ा जिसे राज्यसभा में अच्छे स्वास्थ्य
के बल पर हिस्सा मिलने की उम्मीद है

कुछ चेहरों को हम सुन्दर क्यों कहते हैं
क्योंकि वे ताक़तवर लोगों के चेहरों से दो हज़ार साल से
मिलते-जुलते चले आते हैं
सुन्दर और क्रूर चेहरे मशहूर हैं दूर-दूर तक
देसी इलाक़ों में

चेहरे वाक्य हैं कहानियाँ किताबें कविताएँ आवाज़ें हैं
उन्हें देखो उन्हें सुनो
मसनद लगाए हुए व्यक्ति ने बार-बार कहा है
तुम उनमें से एक हो
पर उसका मतलब है तुम और एक हो
सब चेहरे सुन्दर हैं पर सबसे सुन्दर है वह चेहरा
जिसे मैंने देर तक चुपके से देखा हो
इतनी देर तक कि मैंने उसमें और उसके जैसे
एक और चेहरे में अन्तर पहचाना हो

तू सुन्दर है
इसलिए नहीं कि डरी हुई है
तू अपने में सुन्दर है
यह आकर बैठा धीरे से
घूरने लगा घबराया-सा
मेरे यन्त्रों को मुझसे आँख चुरा
वे अद्भुत चमकीले डब्बे युद्ध के चित्र लेते थे
घाव को असल से बढ़िया रंग देकर के
कैमरे के उधर की बिलखती एक जाति के
और चौदह बरस के लड़के के दरमियान
मैं किसका प्रतिनिधित्व करता था

जादू भरा कैमरा वह छूना चाहता था
चौदह बरस की उम्र में वह जानना ही जानना चाहता था
उसे इतना कौतूहल थी कि वह
अपनी निर्धनता को भूल गया
सहसा उसने जैसे मन्त्रमुग्ध
दोनों हाथों से वह बक्सा उठा लिया
क्षण-भर मैं डरा फिर अभिजात स्नेह से
कहा लो देखो मैं तुम्हें बतलाता हूँ
उसने एक बार कैमरे पर हाथ फेरा
और मुझे इतनी नफ़रत से देखा कि किसी ने
कभी नहीं देखा था

प्राचीन राजधानी अधमरे लोग
वही लोग ढोते उन्हीं लोगों को
रिक्शे में
पन्द्रह लाख आबादी दस लाख शरणार्थी
रिक्शेवाले की पीठ शरणार्थी की पीठ
एक-सी दीखती
बस चेहरे हैं जैसे बलपूर्वक अलग-अलग किए गए
एक बुढ़िया लपकी हुई जाती थी
पीछे-पीछे चुप चलती थी औरत वह बहन थी
आगे-आगे लाश पर पूरा कफ़न नहीं था
वे उसे ले जाते थे जल्दी जला देने को

वह लड़की भीख माँगती थी दबी-ढँकी
एकाएक दूसरी भिखारिन को वहाँ देख
वह उस पर झपटी
इतनी थोड़ी देर को विनय
और इतनी थोड़ी देर को क्रोध
जर्जर कर रहा है उसके शरीर को

अपने बच्चों का मुँह देखो इस साल
और अगले साल के लिए उनके पुराने कपड़े तहाकर रख लो
उनकी कहानी का अन्त आज ही कोई जान नहीं सकता है!

रघुवीर सहाय की कविता 'मुझे कुछ और करना था'

Book by Raghuvir Sahay:

रघुवीर सहाय
रघुवीर सहाय (९ दिसम्बर १९२९ - ३० दिसम्बर १९९०) हिन्दी के साहित्यकार व पत्रकार थे। दूसरा सप्तक, सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हँसो हँसो जल्दी हँसो (कविता संग्रह), रास्ता इधर से है (कहानी संग्रह), दिल्ली मेरा परदेश और लिखने का कारण (निबंध संग्रह) उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।