छत पर खड़ी लड़की
देख रही है अनगिनत घर
जो उसके घर से रंग-ढंग में भिन्न होकर भी
बिलकुल एक-से हैं।
उन सारे घरों में
उसकी ही तरह
कई लड़कियाँ रात को
घर के इकलौते एसी वाले कमरे से
चोरी छुपे किसी दूसरे कमरे में जाती हैं
ताकी वे तेज़ गर्मी में आज़ादी से झुलस सकें
उन कमरों में ये लड़कियाँ भी शायद
हँसती होंगी खुलकर दबी-दबी आवाज़ों में।
इन कमरों की गर्मी
सम्भाल लेती है
उन सारी मुस्कुराहटों को
जो एसी की सख़्त ठण्ड में
ठिठुरते हुए दम तोड़ देती हैं।
या शायद वे भाग निकलती होंगी छतों पर
कविताएँ गढ़ने आसमान के नीचे—
वे कविताएँ जो घर की नीची छत के तले
पूरी नहीं हो पातीं,
वे कविताएँ जिनका प्रवाह
बीच में ही तोड़ देते हैं पिता,
ताकी वह बहते हुए प्रेम के स्त्रोत ना ढूँढ लें।
यह लड़की सोचती है कि
वे सारी कविताएँ जो मर्यादा के भार तले
दम तोड़ देती हैं
वे सारी शायद छतों पर ही लिखी जाती होंगी
या शायद छतों तक भागते-भागते
थक-हारकर
दम तोड़ देती हैं
लड़कियों की कविताएँ भी
वह सोचती है
उन सारे मोहल्लों के बारे में
जहाँ लड़कियों को एसी वाले कमरे मुहैया हैं,
जहाँ घरों की छत इतनी ऊँची होती है
कि वह कविताओं को शरण दे सके,
जहाँ औरतों को कविता लिखने के लिए
घर से भागना नहीं पड़ता।
शिवांगी की कविता 'उसके शब्दकोश से मैं ग़ायब हूँ'