कल रात मेरे कॉलेज के छात्रों ने मुझे पीट दिया। यों मेरी पिटाई तो ज़्यादा नहीं हुई, लेकिन ज़्यादा हो जाती, शौहरत तब भी इतनी ही होती। मेरा पिटना आजकल मेरे नगर की आम चर्चा का विषय है। यह नहीं कि मैं पहली ही बार पिटा हूँ अथवा दुनिया में मैं ही ऐसा आदमी हूँ जिसे पिटने का मौक़ा हासिल हुआ है। लेकिन एक शिक्षक का पिटना और लोगों के पिटने से ज़रा भिन्न होता है। हर व्यवसाय के अपने-अपने रिस्क होते हैं—रिश्वत लेते पकड़े जाना कुछ महकमों का ख़ास रिस्क है जबकि छात्रों से पिट जाना मेरे व्यवसाय का आम रिस्क है। नगर के लोग बड़े बेचारे हैं, तभी मुझसे कहते हैं, अजी भारद्वाज जी, आज आप पिटे हैं, कल और प्रोफ़ेसर, परसों अफ़सर…। मगर मैं अच्छी तरह जानता हूँ, शीघ्र ही कोई पिटने वाला नहीं है।
मैं क्यों पिटा? मैं जानता हूँ। जब मैं छात्र था, तब भी अक्सर पिट जाया करता था। (उस समय पीटने का हक़ केवल शिक्षकों को ही होता था।) एक दिन की घटना अब भी याद है—हमारे हिन्दी के शिक्षक कक्षा में आए। उन्होंने धीरे से रजिस्टर खोला, माथे पर हाथ रखकर मंद स्वर में हाज़िरी ली, आलस्य के साथ रजिस्टर बंद किया, फिर अंगड़ाई लेकर जम्हाई ली। साफ़ ज़ाहिर हो गया कि आज वे पढ़ाने के मूड में नही हैं। मैंने चुटकी ली, सर, आज आपका मूड ठीक नहीं है क्या? जानता हूँ वे मन-ही-मन प्रसन्न हुए पर ज़ाहिरा तौर पर मुझ पर टूट पड़े—खड़े हो जाओ, उल्लू कहीं के। मैं खड़ा हो गया। वे कुछ नरम हुए। बोले—कोई कविता सुनाओ जो तुम्हें अच्छी लगती हो। यो घण्टा काटने का सिलसिला उन्होंने जारी कर दिया था। मेरी दिक़्क़त यह है कि पूरी कविता मुझे कभी याद नहीं हुई। इसलिए डरते-डरते बच्चनजी की यह पंक्ति सुना दी—
जो छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता।
मैंने यह पंक्ति पूर्ण विनम्रता के साथ और सहज भाव से सुनायी थी लेकिन शिक्षक महोदय को इसमें से व्यंग्य की बू आ गयी। बस, इसी बात पर उन्होंने मुझे पीटा और जी भरकर पीटने के बाद उन्होंने मुझे उपदेश दिया—सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम प्रियम्। मगर मैं ठहरा ज़िद्दी। मैंने उसी दिन सौगंध खायी थी कि मैं सदा सच बोलूँगा, चाहे वह कितना ही अप्रिय हो। और सच मानिए, जब-जब भी पिटा हूँ इसीलिए पिटा हूँ। जानता हूँ न ज़िद छोड़ूँगा, न पिटना बंद होगा। जब भी पिटता हूँ, ये पंक्तियाँ दिमाग़ पर छा जाती हैं—
टूट गये सभी वहम और ग़लतफ़हमियाँ, केवल ज़िद बाक़ी है…
कल भी अपनी ज़िद के कारण पिटा—बच्चनजी की कविता-पंक्ति आज भी बहुत प्रिय लगती है, लेकिन मेरा पिटना इस बात का प्रमाण है कि मैं साधू नही हूँ। कल जो सच बोला था, वह मुझे पीटने वाले छात्रों के हक़ में नहीं था। मानता हूँ कि मेरी बेइज़्ज़ती हुई है और बक़ौल लोगों के छात्र अपने शिक्षक पर हाथ उठा दे, इससे बड़ा अपमान टीचर का हो ही नहीं सकता। हरिशंकर परसाई भी शिक्षक हैं, उन्हें भी दो छात्रों ने पीटा, लेकिन उनकी पिटाई शिक्षक के रूप में न होकर व्यंग्यकार के रूप में हुई। (उन्होंने भी तो अप्रिय सत्य बोला था) मेरे पास ‘पी जा हर अपमान और कुछ चारा भी तो नहीं।’ झूठ बोलना होता तो कह देता गिरने से चोट लगी है अथवा छात्र परस्पर लड़ रहे थे, उनका बीच-बचाव करते समय मुझे चोट आ गयी। कई लोग ऐसा कर लेते हैं और अपमानित होने से बच जाते हैं।
पर व्यापक दृष्टि वाला आदमी हूँ। मैंने तुरन्त घोषणा कर दी, मुझे छात्रों ने पीटा है। वैसे भी मेरी धारणा है कि पिटना-पिटाना मानव की सहजात वृत्ति है। दुनिया में कौन ऐसा है जो पिटने से बचा हो? लोगों की कमअक़्ली ही कहूँगा कि वे केवल शारीरिक पिटाई को पिटाई मानते हैं। ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’ लिखने वाला शायर भला पिटा कैसे नहीं? बड़े-बड़े लोग पिटते रहते हैं। मैं तो किस खेत की मूली हूँ। अमेरिका के तो कितने ही राष्ट्रपतियों को जान से मार डाला गया है। क्या उनका अपमान नहीं हुआ? हुआ, मगर वे अपमान की पीड़ा भोगने से बच गये और लोगों की नज़रों में मैं पीड़ा भोग रहा हूँ। क्यों न भोगूँ? आख़िर सच बोलता हूँ। सच बोलने वाले को कष्ट झेलना ही पड़ता है। सत्य के कारण राजा हरिश्चन्द्र को क्या नहीं सहन करना पड़ा? ईसा को सलीब पर लटका दिया गया। सुकरात को ज़हर पीना पड़ा। बुद्ध को मारने की क्या कम चेष्टाएँ हुईं? गांधीजी को गोली मार दी गयी। इन सभी का अपराध सत्य-पालन ही था। फिर मैं पिट गया तो कौन बड़ी बात हो गयी।
कोई भी नहीं मानता कि मेरा पिटना कोई बड़ी बात हो गयी। आम लोगों की सहानुभूति मेरे साथ है। यों वे भी ‘पिटना’ रोज़मर्रा की चीज़ मानते हैं लेकिन दुःख तो इस बात का है कि मुझ-जैसा ‘भला आदमी’ पिट गया। इससे अधिक लोकमत कर भी क्या सकता है। पुलिस में इत्तिला देने गया और पुलिस वालों से निवेदन किया कि मुझे पीटने वालों को सज़ा दो। पुलिस का मत है कि कोई ख़ास मुक़दमा तो बनता नहीं। मार-पिटाई मामूली दफ़ाओं में आती है। पुलिम दफ़ाओं से विवश है। मैं सबक़ सीखता हूँ। आगे कभी पिटने का मौक़ा मिला तो पीटने वालो से साफ़ कह दूँगा—कमबख़्तों, ऐसी दफ़ा के लायक़ पीटना कि पुलिस तुम लोगों के ख़िलाफ़ कुछ कर सके।
इस घटना पर मेरे प्रति सबसे अधिक सहानुभूति मेरे साथी शिक्षकों की है। वे लोग मेरी पिटाई को सारे स्टाफ़ की पिटाई मान रहे हैं। कितने ऊँचे विचार हैं उन लोगों के। उन्होंने पूरे आक्रोश के साथ स्टाफ़ मीटिंग की है। मुझे पीटने वाले छात्रों के ख़िलाफ़ कठोर क़दम उठाने का प्रस्ताव सर्व-सम्मति से पारित किया है कि दोषी छात्रों को (सादर) टी० सी० देकर कॉलेज से विदा कर दिया जाए ताकि वे अन्यत्र प्रवेश ले सकें और पिटाई का कार्यक्रम जारी रख सकें। फ़िलहाल इन छात्रों से न मुझे कोई ख़तरा है, न मेरे साथियों को। मैं अपने साथियों का हृदय से आभारी हूँ।
मुझे लगता है कि आदमी को समय-समय पर पिटते रहना चाहिए। इससे लोकमत अपने पक्ष में होता है। लोगो में उदात्त भावनाओं का उदय होता है। जिस समय मेरे अभिन्न मित्र को मेरे पिटने का समाचार मिला, वे पाँच आदमियों की मण्डली में पचास प्रतिशत की स्टेक पर ‘पपलू’ खेल रहे थे। जब उन्हें समाचार मिला, वे तुरन्त पत्ते फ़ेंककर उठ आये, यद्यपि उस हाथ उनके पास तीन पपलू थे। कृष्ण-सुदामा की मैत्री के पश्चात् सच्ची मित्रता का इससे अनूठा उदाहरण और कोई नहीं मिलता। मेरे मित्र की निश्चय ही वही दशा हुई होगी जो सुदामा नाम सुनते ही कृष्ण की हुई थी। मै धन्य-धन्य कर उठता हूँ और तुलसी की इस चौपाई की सार्थकता मान लेता हूँ—
धीरज धर्म मित्र अरु नारी।
आपत काल परखिए चारी॥
इस अवसर पर मैंने अन्तिम दो को परखा है और दोनों कसौटी पर खरे उतरे हैं। कल से पत्नी ने जो सेवा की है, उससे लगता है कि मेरी पिटाई का मासिक कार्यक्रम होता रहे तो स्वास्थ्यवर्धक रहे।
इस पिटाई ने मुझे अवसर दिया है कि मैं ख़ुद को ईसा, सुकरात, बुद्ध, गांधी की श्रेणी में रखकर देखूँ। उदात्त भावों से भरा मेरा निर्विकार मन मनोमय कोश से भी ऊपर उठ जाता है। इसके अतिरिक्त मैं कर भी क्या सकता हूँ? पुलिस भी मजबूर है। मेरे साथी बोल्ड निर्णय ले ही चुके हैं। लोकमत के पास मेरे लिए अपार सहानुभूति है। इससे अधिक आदमी को क्या चाहिए? हाँ, नुक़सान केवल इतना हुआ कि कई बार सहानुभूति दिखाने आने वालों को चाय पिलानी पड़ी है। पर यह भौतिक हानि है। मेरा दर्शन भौतिकवादी नहीं है। इस घटना ने मेरी भावनाओं का उदात्तीकरण किया है, यह नैट लाभ मुझे हुआ है।
अब तक मेरे पिटने की बात मेरे नगर तक थी लेकिन मैं इस रचना के माध्यम से उसे सर्व-साधारण के लिए सुलभ कर रहा हूँ। इसलिए नहीं कि मुझे और सहानुभूति चाहिए बल्कि मेरी मजबूरी है। अपनी मजबूरी को अँचलजी के शब्दों में यो कह सकता हूँ—
छिपाने को छिपा जाता विकल चीत्कार मैं सारा,
मगर अभिव्यक्ति की मानव-सुलभ तृष्णा नहीं जाती।
हरिशंकर परसाई का व्यंग्य 'एक मध्यमवर्गीय कुत्ता'