चिरैया नहीं जानती
क्यों हैं वो चिरैया
मैं उसके, केवल उसके
पंखों में सिमटकर
सो जाना चाहता हूँ
खो जाना चाहता हूँ
उस नन्ही चिरैया से भी
अधिक निःस्व हूँ मैं
उससे भी अधिक आहत, धीमा
है स्वर मेरा
जानती है वह उन पर्वतों को
जिनके पास जाता हूँ मैं
पहचानती है उन वनों को
पुकारते हैं जो मुझे
मेरे नाम से…
देखा है उसने अनिद्रा
के जाल में
उस पानी की बूँदों को
जिसमें कभी तिरी थी
जलकन्या अकेली
जिसकी नमकीन गन्ध
नहीं भूला आज भी मैं
वही जिसके संस्पर्श से
आँका था आकार नैशब्द्य का
जिसके आगे गुनगुना
पाया था रहस्य का सुर
कह पाया था ओस से
निकसे उजियारे की बातें
चमचमाती अस्थियों और
ख़ाली बोतल में भरे
शून्य की बातें…
और जिसे कह पाया था
छोटी-छोटी और लम्बी बातें
दुःखों की
यातनाओं की
वही चिरैया जो
जानती थी सब कुछ
बस नहीं जानती
वो क्यों है चिरैया
सूँघती है जो मुझे
मेरी साँसों में
गर्दन में, रोयें-रोयें में
गुंजित होता है स्वर आपका
मेरे अन्तर में
अस्थि-मज्जा में
मैं उसके, केवल उसके
पंखों में सिमटकर
सो जाना चाहता हूँ
खो जाना चाहता हूँ
पर…
वह तो उड़ जाएगी
नन्हे-नन्हे पंख मारती
भारी-भारी बादलों पर
खुली हवा में तिरती-सी।