चुप रहो चुपचाप सहो

समझ जाओ जो चुप रहेंगे वे बचेंगे
बोलने वालों को सिर में गोली के ज़रिये
सुराख़ बनाकर मार डाला जाएगा
ख़ामोश रहने वालों को
क़रीने से ज़ुल्फ़ें सँवारने के लिए
रत्नजड़ित सोने के कंघे दिए जाएँगे

चुप रहो चुपचाप सहो
अपने-अपने बैडरूम में रहकर
क्रान्ति का ब्लूप्रिंट बनाओ
दिन-रात अपने मन्तव्यों के
कनकौए आसमान में उड़ाओ
ऐसे लोगों को खोज-खोजकर
सुनहरे फ़्रेम वाले बेशक़ीमती चश्मे दिए जाएँगे

चुप रहो चुपचाप रहो
लेकिन बोलने का नाटक लगातार करो
रीढ़ की हड्डी निकालकर रख दो
ड्राइंगरूम के शोकेस में
वह वहीं रखी जँचती है
लचीलेपन की बड़ी ज़रूरत है इस वक़्त
समयानुकूल घड़ियाँ कलाई पर बाँधी जाएँगी

चुप रहो चुपचाप सहो
अपने मौन का भीतर ही भीतर मज़ा लो
तुम्हारी चुप्पी को कोई अन्यथा नहीं लेगा
यह बात एकदम पक्की है
इतिहास सिर्फ़ नादानी में जान गँवाने वालों की
मूर्खता अपने पन्नों में दर्ज करता है
प्रशस्ति तुम्हारी है तुम्हें मिलेगी

चुप रहो चुपचाप सहो
सीने से लगा कर रखो
अपने-अपने इनाम इकराम को
इन्हें सम्भालकर रखो
ये रहेंगे तो तुम सब ज़िन्दा रहोगे
तुम अमरबेल के वंशज हो
मौत तुम्हें किसी भाव न मिलेगी

चुप रहो चुपचाप सहो
और सुनना है तो मेरी सुनो
ख़ामोशी और चालाकी की
कोई पॉलिटिक्स नहीं होती पार्टनर
चुप रह जाने वाले कापुरुष को
कोई दर्द नहीं सताता
वे जीते जी, बेमौत मर जाते हैं!

निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : gupt.nirmal@gmail.com