‘Dastaan E Ghareeb’, a poem by Kanchan Jharkhande

मुझे गर्व है कि मुफ़लिस ने मुझे जन्मा
मुझे परवाह नहीं संसार मुझे किस नज़र से देखे
इस धरती पर मेरा अधिकार सिद्ध है
मैंने जिया है इस माटी की ख़ुशबू को
मेरी रग-रग में बसी है इसकी ताक़त
मुझे प्रिय है मेरी अनुवर्ता
मैंने महसूस किए हैं लाचारी के पल
मुझे स्मरण है मेरी माँ का माथे
पर मिट्टी का गट्ठा लाना
मैंने गुज़ारे हैं दिन किलपान के
मैंने सही है कुटुम्ब की भुखमरी
चूल्हे की फूँक और ठण्डी लकड़ी का धुआँ
आधी पकी आधी कच्ची रोटी का स्वाद
मिर्ची संग नमक का आपन्न और
मैंने झेला है उच्च जातीय द्वारा
किया गया भेदभाव, पक्षकोम।
निर्जल आँखों में थी फिर भी रही प्रेम भावनाएँ
क्योंकि माँ ने नहीं सिखाया कभी पक्षपात
माँ ने पढ़ाया तो केवल उभरने का अध्याय
माँ ने बतायी मेहनत की पगडण्डी
कच्ची माटी का वो घर आज भी आँखों के सामने है
जो अब पक्की सीमेंट की दीवारें बन गयी हैं
माटी का आँगन भी अब मिंटो हाल बन गया
चूल्हे की जगह गैस पर उबलता है दूध का भगोना
वस्त्रों की वेशभूषा भी तो बदल गयी है
और बदल चुका उन चिड़ियों का रास्ता
जो उन दिनों एक झुण्ड बनाकर घर के ऊपर से गुज़रती थीं
सूरज का ढलना तो जारी है पर
ऊँची इमारतों के पीछे छिप जाता है अब
मन्दिर का पीपल का पेड़ भी कट चुका
जिनमें झूले थे हमने मित्रों संग झोंकें
सच कहूँ तो…
उन उत्पीड़न के पलों ने दी मुझे आज़ादी
मज़बूत रखा मेरे होंसलों को
मुझे सहारा दिया ग़रीबी कि विपत्तियों ने
आख़िर उसका शुक्रिया अदा कैसे ना करूँ
मेरी ग़रीबी ने मुझे आसमान छूने के ज़रिए सिखाए
आज मैं हूँ जो भी हूँ
तह ऐ दिल से आभार
मेरी गुज़री हुई ग़रीबी को
मुझे फ़क्र है कि मैं मुफ़लिस हूँ…

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