जिस दिन हमने तोड़ी थीं पहली दीवारें,
(तुम्हें याद है?)
छाती में उत्साह
कंठ में जयध्वनियाँ थीं।
उछल-उछलकर गले मिले थे,
फिरे बाँटते बड़ी रात तक हम बधाइयाँ।
काराघर में फैल गई थी यही सनसनी—
लो कौतूहल शांत हो गया।
फिर ये आए—
ये जो दीवारों के बाहर के वासी थे :
उसी तरह इनके भी पैरों में
निशान थे,
उसी तरह इनके हाथों में
रेखाएँ,
उसी तरह इनकी भी आँखों में
तलाश थी।
परिचय स्वागत की जब विधियाँ ख़त्म हो गईं
तब ये बोले—
यहाँ कहीं कुछ नया नहीं है।
और हमें तब ज्ञात हुआ था
(तुम्हें याद है?)
इसके आगे अभी और भी हैं दीवारें।
तबसे हमने तोड़ी हैं कितनी दीवारें,
कितनी बार लगाए हमने जय के नारे,
पुष्ट साहसी हाथों की अंतिम चोटों से
जब जब अरराकर टूटीं ज़िद्दी प्राचीरें,
नभ में उड़कर धूल गई है—
(किलकारी भी!)
लेकिन, हर बार क्षितिज पर,
क्रुद्ध वृषभ के आगे लाल पताका जैसी,
धीरे-धीरे फिर दीवारें उग आयी हैं।
नथुने फुला-फुलाकर हमने घन मारे हैं।
अजब तरह की है यह कारा
जिसमें केवल दीवारें ही
दीवारें हैं,
अजब तरह के कारावासी,
जिनकी क़िस्मत सिर्फ़ तोड़ना
सिर्फ़ तोड़ना।
विजयदेव नारायण साही की कविता 'अभी नहीं'