‘Devtaaon Ka Chhal’, a poem by Kanishk Vashishth

सुप्त अवस्था में होगी जब पुत्री आत्मा,
स्वपनों की निर्झरणी बहती होगी।

बालपन संचित है जिस सन्दूक सी मृदुल काया में,
स्वर्ग के देवता आकर उसमें एक छल रख जाएँगे।

मिथ्या के पुष्पों पर पतझड़ आ जाएगा,
बसंत की भाँति हर ओर नव सत्य खिल जाएगा।

दर्पण के भीतर प्रतिबिम्ब वस्त्र बदल लेगा,
किन्तु पुत्री यह छल नहीं, छल इतना सुन्दर नहीं होगा।

अकस्मात साक्षत्कार होगा उससे तुम्हारा,
स्वयं के अतिरिक्त सकल जगत के लिए मलिन हो जाएगा स्पर्श तुम्हारा।

प्रपंच रुधिर का तन से बहना भी नहीं, वेदना भी नहीं,
किन्तु यह क्या अस्पर्श की छाया से मुक्त छलने वाला देवता भी नहीं।

स्वयं के पास स्वयं भी नहीं, लज्जा के पास देखने को नयन भी नहीं,
और ज्ञान के स्तन में अज्ञान को मिटाने को दुग्ध भी नहीं।

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