आयु नीना की दस वर्ष की भी नहीं थी, लेकिन बुद्धि काफ़ी प्रौढ़ हो गयी थी। जैसा कि अकसर मातृहीन बालिकाओं के साथ होता है, बुज़ुर्गी ने उसके लिए आयु का बन्धन ढीला कर दिया था। इसलिए जब उसने सुना कि कुछ दूर पर सोया हुआ उसका छोटा भाई सुबक रहा है, तो वह चुपचाप उठी। एक क्षण भयातुर दृष्टि से चारों ओर देखा, फिर उसके पास आकर बैठ गयी। तब रात आधी बीत चुकी थी और चाँद कभी का अस्त हो चुका था, फिर भी कुछ दूर पर सोते हुए उसके मौसा के परिवार के दूध-से धुले कपड़े अन्धकार की कालस में चमक रहे थे, जैसे तमसावृत श्मशान में अग्नि के स्फुल्लिंग। वही चमक नीना के नन्हे-से दिल में कसक उठी। किसी तरह रुलाई रोककर उसने धीरे से पुकारा, “कमल… ओ कमल…।”

कमल आठवें वर्ष में चल रहा था। उसके छोटे-से खटोले पर एक फटी-सी दरी बिछी थी। उस पर वह लेटा था गुड़मुड़, पैर उसने पेट से सटा रखे थे और मुंह को हाथों से ढक रखा था। रह-रहकर उसका पेट सिकुड़ता और सुबकियां निकल जातीं। उसने बहिन की पुकार का कोई जवाब नहीं दिया। नीना भी इतनी सहमी हुई थी कि दूसरी बार पुकारने का साहस न बटोर पायी। चुपचाप कमर सहलाती रही, देखती रही।

कई क्षण बीत गये, तो उसे सीधा करके उसका मुंह अपने दोनों हाथों में ले लिया। तब उसकी आंखें डबडबा आयीं और आंसू ढुलककर कमल के मुख पर जा गिरे। कमल कुनमुनाया, फिर आंखें बन्द किये-किये बोला, “जीजी!”

नीना ने चौंककर कहा, “तू जाग रहा था रे?”

“नींद नहीं आती… जीजी, पिताजी कब आयेंगे? जीजी, पिताजी के पास चलो।”

“पिताजी…!”

“हां जीजी!… पिताजी के पास चलो। आज मुझे मौसाजी ने मारा था। जीजी, गिलास तोड़ा तो प्रदीप ने और मारा हमें… जीजी, यहां से चलो।”

नीना ने अनुभव किया कि कमल अब रोया, अब रोया। वह विह्वल हो उठी। उसने अपना मुंह उसके मुंह पर रख दिया और दोनों हाथों से उसे अपने वक्ष में समेटकर वह ‘शिशु-मां’ वहीं लेट गयी। बोली वह कुछ नहीं। बस, उस स्तब्ध वातावरण में उसे ज़ोर-ज़ोर से थपथपाती रही और वह सुबकता रहा, बोलता रहा-

“जीजी! आज मौसी ने हमें बासी रोटी दी। सारा हलुआ प्रदीप और रंजन को दे दिया और हमें बस खुरचन दी; और जीजी, जब दोपहर को हम मौसाजी के कमरे में गये, तो हमें घुड़ककर निकाल दिया। जीजी, वहां हमें क्यों नहीं जाने देते? जीजी, तुम स्कूल से जल्दी आ जाया करो। जीजी, पिताजी को जेल में क्यों बन्द कर दिया? वहां पिताजी को रोटी कौन खिलाता है? हम वहां क्यों नहीं रहते? प्रदीप कहता था, तेरे पिताजी चोर हैं।”

तब एकबारगी अपने को धोखा देती हुई नीना ज़ोर से बोल उठी, “प्रदीप झूठा है।” और कहकर अपनी ही आवाज़ पर वह भय से थर-थर कांप गयी। उसने कमल को ज़ोर से भींच लिया। कमल को लगा, जैसे जीजी बड़े ज़ोर से हिल रही है, हिलती जा रही है, हिलती चली जा रही है। हालन आ गया क्या? उसने घबराकर कहा, “जीजी, जीजी, क्या है? तुम्हें बुखार आ गया है?”

“चुप, चुप। मौसी आ रही हैं।”

सचमुच कोई उठकर जल्दी-जल्दी उनके पास आया और कड़ककर पूछा, “क्या है, क्या है नीना; कमल, क्या है रे?… ओहो! भाई से लाड़ लड़ाया जा रहा है! मैं कहती हूँ नीना! तू यहां क्यों आयी? अरी बोलती क्यों नहीं?… ओहो, बड़े बेचारे गहरी नींद में सोये हैं। अभी तो बड़ी गटर-गटर मेरी शिकायत हो रही थी। जैसे मैं जानती ही नहीं… हाय रे मेरी क़िस्मत!… ओ बहिन! तू ख़ुद तो मर गयी, पर मुझे इस नरक में छोड़ गयी…”

सहसा मौसा हड़बड़ाकर उठ बैठे, पूछा, “क्या बात है? क्या हुआ?”

“हुआ मेरा सिर। दोनों भागने की सलाह कर रहे हैं।”

“कौन भागने की सलाह कर रहा है? नीना-कमल? अरे, कुछ लिया तो नहीं? अलमारी की चाबी तो है? रात ही तो पांच सौ रुपये लाकर रखे हैं। अरे, तुम बोलती क्यों नहीं? क्यों री नीना! कहां है रुपया?” बोलते-बोलते मौसा उठकर वहीं आ गये, जहां दोनों बच्चे एक-दूसरे में सिमटे, सकपकाये, कबूतर की तरह आंखें बन्द किये पड़े थे।

मौसी ने तुनककर कहा, “क्या पता, क्या-क्या निकालते, वह तो मेरी आंख खुल गयी।” और फिर झपटकर नीना को उठाते हुए कहा, “चल अपनी खाट पर! खबरदार, जो पास सोये! बाप तो आराम से जेल में जा बैठा, मुसीबत डाल गया मुझ पर। न लाती, तो दुनिया मुंह पर थूकती, बहिन के बच्चे थे। शहर की शहर में, आंखों में लिहाज़ न आयी। लेकिन कहने वाले यह नहीं देखते कि हमारे घर में क्या सोने-चांदी की खान है? क्या खर्च नहीं होता? पढ़ाई कितनी महंगी हो गयी है और फिर बच्चों की खुराक बड़ों से ज्यादा ही है।”

रुपये नहीं निकाले, इस बात से मौसा को परम सन्तोष हुआ। उन्होंने खाट पर बैठते हुए कहा, “मैं कहता हूँ तुम तो…”

“अब चुप रहो। भले ही चचेरी बहिन हो, हैं तो मेरी बहिन के बच्चे।”

“हां, तुम्हारी बहिन के बच्चे हैं, तभी तो बहनोई साहब को रिश्वत लेने की सूझी और रिश्वत भी क्या ली, बीस रुपये की। वह भी लेनी नहीं आयी। रंगे हाथों पकड़े गये। हूँ, मैं रात पांच सौ लाया हूँ। कोई कह दे, साबित कर दे।”

“इतनी बुद्धि होती, तो क्या अब तक तीसरे दरजे का क्लर्क बना रहता!”

“और मज़ा यह कि जब मैंने कहा कि तीन सौ, चार सौ रुपये का प्रबन्ध कर दे, तुझे छुड़ाने का ज़िम्मा मेरा, तो सत्यवादी बन गये — मैं रिश्वत नहीं दूँगा। नहीं दूँगा, तो ली क्यों थी? अरे लेते हो, तो दो भी। मैं तो …”

मौसी ने सहसा धीमे पड़ते हुए कहा, “चुप भी करो, रात का वक़्त है। आवाज़ बहुत दूर तक जाती है…।”

काफ़ी देर बड़बड़ाने के बाद जब वे फिर सो गये, तो दोनों बालक तब भी जागते पड़े थे। आंखों की नींद आंसू बनकर उनके गालों पर जमती जा रही थी और उसके धुंधले परदे पर बहुत-से चित्र अनायास ही उभरते आ रहे थे। एक चित्र मौसी का था, जो उन्हें रोते-रोते घर लायी थी और वह प्रेम दर्शाया था कि वे भी रो-रोकर पागल हो गये थे। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गये, प्यार घटता गया और दया बढ़ती गयी। दया, जो ऊंच-नीच की जननी है। उसने उन्हें आज पशु से भी तिरस्कृत बना दिया… एक चित्र मौसा का था, जो तीसरे-चौथे दिन बहुत-से नोट लेकर आते और उन्हें लक्ष्य करके कहते, “मैं कहता हूँ कि उसने रिश्वत ली, तो दी क्यों नहीं? अरे तीन सौ देने पड़ते, तो पांच सौ बटोरने का मार्ग भी तो खुलता…”

एक चित्र पिता का था। पिता, जो प्यार करता था, पिता, जिसने रिश्वत ली थी, पिता, जिसे जेल में बन्द हुए दो महीने बीत चुके थे और अभी सात महीने शेष थे…

नीना ने सहसा दोनों हाथों से अपना मुंह भींच लिया। उसकी सुबकी निकलने वाली थी। उसने मन-ही-मन विह्वल-विकल होकर कहा, “पिताजी! अब नहीं सहा जाता। अब नहीं सहा जाता। मौसा तुम्हारे कमल को पीटते हैं। पिताजी, तुम आ जाओ। अब हम उस स्कूल में नहीं पढ़ेंगे। अब हम बढ़िया कपड़े नहीं पहनेंगे। पिताजी, तुमने रिश्वत ली थी, तो देते क्यों नहीं… क्यों… क्यों…”

इस प्रकार सोचते-सोचते उसकी बन्द आंखों के अन्धकार में पिता की मूर्ति और भी विशाल हो उठी… एक अधेड़ व्यक्ति की मूर्ति, जिसकी आंखों में प्यार था, जिसकी वाणी में मिठास थी, जिसने दोनों बच्चों को नये स्कूल में भर्ती करवा रखा था, जहां उन्हें कोई मारता-झिड़कता नहीं था, जहां नाश्ता मिलता था, जहां वे तस्वीरें काटते थे, खिलौने बनाते थे… और घर में पिता उनके लिए खाना बनाता था, अच्छी-अच्छी किताबें लाता था, फल लाता था। उनकी मां के मरने पर उसने शादी तक नहीं की थी… नीना ने ये सब बातें पड़ोसियों के मुंह से सुनीं। वे सब उसके पिता की बड़ी तारीफ़ करते। उसने अपने कानों से पिता को यह कहते सुना था कि रिश्वत लेना पाप है। लेकिन फिर उन्होंने रिश्वत ली… क्यों ली… आख़िर क्यों….?

पड़ोसिन कहती, “उसका खर्च बहुत था और आमदनी कम। वह बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहता था और तुम जानो अच्छी शिक्षा बहुत महंगी है…”

महंगी… महंगी थी, तो उसने रिश्वत ली। महंगी होना क्या होता है… और अब पिता कैसे छूटेंगे? मौसा कहते थे, “जज को रिश्वत देते, तो छूट जाते। एक जज ने तीन हज़ार लेकर एक डाकू को छोड़ दिया था। एक आदमी, जिसने एक औरत को मार डाला था, उसे भी जज ने छोड़ दिया था। पांच हज़ार लिये थे…”

पांच हज़ार कितने होते हैं? सौ… हज़ार… दस हज़ार… लाख… ये कितने होते हैं… मौसा कहते थे, “रिश्वत और तरह की भी होती है। एक प्रोफेसर ने एक लड़की को एम. ए. में अव्वल कर दिया था, क्योंकि वह ख़ूबसूरत थी…”

नीना ने सहसा दृष्टि उठाकर आसमान में देखा। तारे जगमगा रहे थे और आकाश-गंगा का स्रोत धवल ज्योत्स्ना में लिपटा पड़ा था। उसने सोचा, यह सब कितना सुन्दर है! क्या यहां भी रिश्वत चलती है? उसकी सुबकियां अब बिलकुल बन्द हो चुकी थीं और वह बड़ी गम्भीरता से सुनी-सुनायी बातों को याद कर रही थी, पर समझ में उसकी कुछ नहीं आ रहा था…

ख़ूबसूरत होना भी क्या रिश्वत है? मौसा कहते थे कि गंजे हाकिम के पास ख़ूबसूरत लड़की भेज दो और कुछ भी करवा लो… ख़ूबसूरत लड़की और रुपया, रुपया और ख़ूबसूरत लड़की – इन्हें लेकर जज और हाकिम काम क्यों कर देते हैं? क्यों… क्यों और ख़ूबसूरत लड़की का वे क्या करते हैं? काम करवाते होंगे, पर काम तो सभी करते हैं… फिर ख़ूबसूरत लड़की ही क्या?… और उसके मौसा बहुत-से रुपये लाते हैं, पर लड़की कभी नहीं लाते… उसकी समझ में कुछ नहीं आया।

लेकिन इसी उधेड़-बुन में रात न जाने कहां चली गयी, यह जाना न जा सका। एकाएक मौसी की पुकार ने उसकी तन्द्रा को तोड़ दिया। हड़बड़ाकर आंखें खोलीं, तो मौसी कह रही थी, “नीना, ओ नीना! अरी नहीं उठेगी? पांच बजे हैं।”

पांच…! अभी तो पहरुआ तीन की आवाज़ लगा रहा था और आकाश-गंगा का मार्ग कैसा चमचम कर रहा था! इसी रास्ते तो स्वर्ग जाते हैं। मौसी फिर चीख़ी, “अरी सुना नहीं नीना? कब से पुकार रही हूँ। दोनों भाई-बहिन कुम्भकर्ण से बाज़ी लगा कर सोते हैं। चल जल्दी। चौका-बासन कर। मैं आती हूँ…”

नीना ने अब अंगड़ाई लेने का नाट्य किया। फिर कुनमुनाती हुई उठी, “जा रही हूँ मौसी।”

ज़ीने तक जाकर न जाने उसे क्या याद आया, वह कमल के पास गयी और बड़े प्यार से कान से मुंह लगाकर उसे पुकारा। फिर उत्तर की प्रतीक्षा न करके उसे कौली में समेटकर नीचे लिये चली गयी। और जब दो घण्टे बाद मौसी नीचे उतरी, तो स्तब्ध रह जाना पड़ा। रसोईघर जैसे दूध में धोया गया हो। लकदक-लकदक, मैल की कहीं छाया तक नहीं। बरतन चांदी-से चमचमा रहे थे। बार-बार अविश्वास से आंखें मलकर ठगी-सी मौसी बोली, “आज क्या बात है नीना?”

“कुछ नहीं मौसी।” नीना ने सकपकाकर उत्तर दिया।

“कुछ नहीं कैसे? ऐसा काम क्या तू रोज़ करती है?”

कमल ने एकदम कहा, “मौसी! आज पिताजी आवेंगे।”

“पिताजी…!”

“हाँ, जीजी कहती थी…।”

मौसी ने अविश्वास और आशंका से देखा कि कमल सहमकर पीछे हट गया। कई क्षण उस स्तब्ध वातावरण में वे प्रस्तर-प्रतिमा बने रहे, फिर जैसे जागकर मौसी बोली, “तो यह बात है! बाप के स्वागत के लिए रसोईघर सजाया गया है!” फिर एकबारगी बड़े ज़ोर से हंसी और बोली, “पर रानी जी, अभी तो पूरे सात महीने बाक़ी हैं, सात महीने। वाह रे, बाप के लिए दिल में कितना दर्द है! इसका पासंग भी हमारे लिए होता, तो…”

नीना की काया एकाएक पीली पड़ गयी। आग्नेय नेत्रों से कमल की ओर देखती हुई वह वहां से चली गयी। उस दृष्टि से कमल सहम गया, पर उसे अपने अपराध का पता तब लगा, जब वह हो चुका था।

स्कूल जाते समय रास्ते में नीना ने इस अपराध के लिए कमल को ख़ूब डांटा। इतना डांटा कि वह रो पड़ा। रो पड़ा, तो उसे छाती से लगाकर ख़ुद भी रोने लगी। इसी समय वहां से बहुत दूर एक सुसज्जित भवन में मुक्त अट्टहास गूंज रहा था।

छोटे न्यायमूर्ति आज विशेष प्रसन्न थे। उनकी छोटी पुत्री मनमोहिनी को कमीशन ने सांस्कृतिक विभाग में डिप्टी डायरेक्टर के पद के लिए चुन लिया था। मित्र बधाई देने आये हुए थे। उसी हर्ष का यह अट्टहास था। यद्यपि बाक़ायदा चाय-पार्टी का कोई प्रबन्ध नहीं था, तो भी मेज़ पर अच्छी भीड़भाड़ थी। अंग्रेज़ लोग चाय पीते समय बोलना पसन्द नहीं करते थे, पर भारतवासी क्या अब भी उनके गुलाम हैं! वे लोग ज़ोर-ज़ोर से बातें करते थे। मनमोहिनी ने चाय पीते हुए कहा, “मुझे तो आशा नहीं थी, पर सचिव साहब की कृपा को क्या कहूँ…।”

सचिव साहब बोले, “मेरी कृपा! आपको कोई ‘न’ तो कर दे? आपकी प्रतिभा…”

डायरेक्टर कह उठे, “हां, इनकी प्रतिभा। सांस्कृतिक विभाग तो है ही नारी की प्रतिभा का क्षेत्र।”

सचिव साहब के नेत्र जैसे विस्फारित हो आये। प्याले को ठक से मेज़ पर रखते हुए उन्होंने कहा, “क्या बात कही है आपने! संस्कृति और नारी दोनों एक ही हैं। नाट्य, नृत्य, संगीत और कविता…”

“और प्रचार?”

“अरे, नारी से अधिक प्रचार कर पाया है कोई!”

इसी समय बैरे ने आकर सलाम झुकायी। तार आया था। खोलने पर जाना — छोटे न्यायमूर्ति के बड़े बेटे की नियुक्ति इन्कमटैक्स ऑफ़िसर के पद पर हो गयी है। उसे मद्रास जाना होगा।

“क्या, क्या…” — कहते हुए सब तार पर झपटे। हर्ष और भी मुखर हो उठा।

छोटे जज ने अट्टहास करते हुए अपनी पत्नी से कहा, “देखा निर्मल! मुझे पूरा विश्वास था, शर्मा मेरी बात नहीं टाल सकता और मेरी बात भी क्या! असल में वह तुम्हारा मुरीद है। कहता था, औरत…”

बात काटकर सचिव साहब बोले, “जी नहीं, यह न आप हैं और न श्रीमती निर्मल। यह तो आपकी कौटुम्बिक प्रतिभा है।”

इस पर सबने स्वीकृतिसूचक हर्ष-ध्वनि की। छोटे न्यायमूर्ति इसका प्रतिवाद कर पाते कि बैरे ने आकर फिर सलाम किया। विस्मित-से डायरेक्टर बोले, “इस बार किसकी नियुक्ति होने वाली है?”

बैरे ने कहा, “दो बच्चे हुज़ूर से मिलने आये हैं।”

“हमसे?” न्यायमूर्ति अचकचाकर बोले।

“जी।”

“किसके बच्चे हैं?”

“जी, मालूम नहीं। भाई-बहिन हैं। ग़रीब जान पड़ते हैं।”

“अरे तो बेवकूफ़! कुछ दे-दिवाकर लौटा दिया होता।”

“बहुत कोशिश की, पर वे कुछ मांगते ही नहीं। बस, आपसे मिलना चाहते हैं।”

छोटे न्यायमूर्ति तेज़ी से उठे। मुख उनका विकृत हो आया, पर न जाने क्या सोचकर वह फिर बैठ गये। कहा, “आज ख़ुशी का दिन है। यहीं ले आ।”

दो क्षण बाद, बुरी तरह सहमे-सकपकाये जिन दो बच्चों ने वहां प्रवेश किया, वे नीना और कमल थे। आंसुओं के दाग अभी गालों पर शेष थे। दृष्टि से भय झरा पड़ता था। एकसाथ सबने उनको देखा, जैसे मदिरा के प्याले में मक्खी पड़ गयी हो। छोटे न्यायमूर्ति ने पूछा, “कहां से आये हो?”

“जी…जी…” नीना ने कहना चाहा, पर मुंह से शब्द नहीं निकले और बावजूद सबके आश्वासन के वे कई क्षण हतप्रभ, विमूढ़, अपलक देखते ही रहे, बस, देखते ही रहे।

आखिर मनमोहिनी उठी। पास आकर बोली, “कितने प्यारे, कितने सुन्दर बच्चे हैं…!”

इन शब्दों में न जाने क्या था। नीना को जैसे करंट छू गयी। एकबारगी दृढ़ कण्ठ से बोल उठी, “आपने हमारे पिताजी को जेल भेजा है। आप उन्हें छोड़ दें…”

कमल ने उसी दृढ़ता से कहा, “हमारे पास पचास रुपये हैं। आपने तीन हज़ार लेकर एक डाकू को छोड़ा है…”

नीना बोली, “लेकिन हमारे पिताजी डाकू नहीं हैं। महंगाई बढ़ गयी थी। उन्होंने बीस रुपये की रिश्वत ली थी।”

कमल ने कहा, “रुपये थोड़े हों, तो…”

नीना बोली, “तो मैं एक-दो दिन आपके पास रह सकती हूँ।”

कमल ने कहा, “मेरी जीजी ख़ूबसूरत है और आप ख़ूबसूरत लड़कियों को लेकर काम कर देते हैं…”

रटे हुए पार्ट की तरह एक के बाद एक जब वे दोनों इस प्रकार बोल रहे थे, तो न जाने हमारे कथाकार को क्या हुआ, वह वहां से भाग खड़ा हुआ। उसे ऐसा लगा, जैसे धरती सूर्य की चुम्बक-शक्ति से अलग हो रही है। लेकिन ऐसा होता, तो क्या हम यह ‘पुनश्च’ लिखने को बाक़ी रहते? धरती अब भी उसी तरह घूम रही है।

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विष्णु प्रभाकर
विष्णु प्रभाकर (२१ जून १९१२- ११ अप्रैल २००९) हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक थे जिन्होने अनेकों लघु कथाएँ, उपन्यास, नाटक तथा यात्रा संस्मरण लिखे। उनकी कृतियों में देशप्रेम, राष्ट्रवाद, तथा सामाजिक विकास मुख्य भाव हैं।