Book Review: ‘Dharti Dhan Na Apna’ – Jagdish Chandra

‘धरती धन न अपना’ पंजाब के दोआबा क्षेत्र के दलितों की कहानी है जिसे लेखक ने मुख्य पात्रों काली व ज्ञानो की कहानी के ज़रिये हमारे सामने रखा है। दलित समाज से संबंध रखने वाला काली छः साल बाद कानपुर से अपने गाँव घोड़ेवाहा लौटकर आता है जहाँ उसकी चाची प्रतापी अकेले रहती है। उसके गाँव लौटने का कारण तो शायद चाची से उसका प्यार अथवा मोह ही था लेकिन गाँव लौटने के बाद जब वह वहीं रहकर अपना घर बनवाने और बसाने का फैसला करता है तो गाँव के ही उच्च-वर्ग के लोगों को काली एक आँख नहीं सुहाता। चूँकि काली शहर रह कर आया है तो उसमें अपनी जाति या अपने आप को लेकर कोई हीन भावना नहीं है और यही उसकी सबसे बड़ी कमी और अपराध बन जाता है।

घोड़ेवाहा में ठाकुर, जमींदारों और साहूकारों को छोड़कर किसी के भी मकान पक्के नहीं हैं, खास तौर से चमादड़ी, जहाँ काली और उसकी जाति के सभी लोग रहते हैं, जीवन का स्तर बहुत ही नीचा है। काली अपने मकान को पक्का बनाने की कोशिश करता है तो गाँव के सभी सवर्ण लोग उसके इस काम में जो संभव अड़चन डाल पाएं, डालते हैं। काली शहर से आया है और अपने हक़ की बात करना जानता है इसलिए कुछ लोग उससे थोड़ा ध्यान देकर बात करते हैं लेकिन उसके व्यक्तित्व और बातों के आगे, उसकी जाति को भूल जाना किसी को गंवारा नहीं। मिस्त्री हो या साहूकार सब उससे छूआ-छूत का व्यवहार रखते हैं।

गाँव में अकेला काली ही नहीं, उसका पूरा वर्ग इस भेद-भाव को झेलता है। ठाकुरों का जब मन आया, चमार के किसी लड़के को पीट दिया, हाथ-पाँव तुड़वा दिए और गाली बिना तो चमारों को सम्बोधित ही नहीं किया जाता। चमारों की स्त्रियों के साथ बदतमीज़ी और यौन शोषण एक आम बात है जिसके खिलाफ बेचारे बोल भी नहीं सकते क्योंकि आर्थिक रूप से चमार, ठाकुरों पर निर्भर करते हैं। उनके घर में एक-एक वक़्त की रोटी ठाकुरों की दया से आती है। यहाँ तक कि जब बाढ़ आती है और चमादड़ी के कुँए का पानी पीने लायक नहीं रहता, तब भी ठाकुरों को दया नहीं आती और काली और उसके मोहल्ले वाले पीने के पानी तक के लिए मोहताज़ हो जाते हैं।

ऐसी ही जाने कितनी घटनाएँ इस किताब में हैं जो पढ़ने वाले को सोचने पर मज़बूर कर देती हैं कि क्या कभी ऐसा भी हमारे इस समाज में हुआ करता था? क्या ऐसे समाज का एक रूप आज भी जीवित है और अगर है तो इससे बड़ी शर्म की बात पढ़े-लिखे उच्च कहे जाने वाले वर्ग के लिए है या नहीं। उपन्यास का शीर्षक भी इस तरह की एक और अनीति की तरफ इशारा करता है। दलित समाज को ‘धरती’ या ‘सम्पति’ का सामान्य मानव अधिकार भी नहीं दिया जाता था। किसी दलित का घर/मकान केवल तब तक उनके पास है जब तक वो या उसकी संतान उस घर में रह रहे हैं, दलितों को यह अधिकार नहीं था कि वो उस मकान को बेच पाएं।

मुझ पर इस किताब का वही असर हुआ, जो ‘गोदान’ का हुआ था। इस किताब को पढ़ते हुए मैं कई बार बीच में रुकता और सोचने लगता कि- ‘ऐसा भी होता था?! ”गोदान’ और ‘धरती धन न अपना’ जैसी किताबें आज के पाठकों के लिए इसलिए ज़रूरी नहीं हैं कि इन किताबों से उन्हें आज के समाज के ढके हुए रूप दिखते हैं, बल्कि इसलिए ज़रूरी हैं कि यह याद रखा जा सके कि हम आज जिस परिवेश में, जिन सामाजिक स्थितियों में अपनी ज़िन्दगी बिताते हैं, वो स्थितियाँ किन रास्तों से होकर यहाँ आयी हैं। जिससे यह याद रखा जा सके कि आज के समय की भी हर वो बात जो उन्हीं रास्तों की तरफ इशारा करती हों, उन्हें सिरे से नकारना कितना ज़रूरी है।

जगदीश चंद्र ने जब यह किताब लिखी थी तो शायद उनका सामना इन्हीं मनोस्थितियों से हुआ होगा, तभी इतने जीवंत और पाठकों को सोचने पर मज़बूर कर देने वाले प्रसंग इस किताब में भरे पड़े हैं। उन्हीं के शब्दों में-

“मेरी यह उपन्यास मेरी किशोरावस्था की कुछ अविस्मरणीय स्मृतियों और उनके दामन में छिपी एक अदम्य वेदना की उपज है।”

काली के अलावा उपन्यास में एक सशक्त पात्र ज्ञानो है, जिससे काली को प्रेम हो जाता है लेकिन वह प्रेम भी काली के समाज के पिछड़ेपन की बलि चढ़ जाता है। यह पिछड़ापन भी काली के समाज को उच्च वर्ग की ही देन है। चमादड़ी में न कोई पढ़ता, न अपने जीवन को बेहतर करने हेतु प्रयास करता और अगर काली जैसा कोई इंसान इस दिशा में सोचने भी लगे, तो जाति और परंपरा की बेड़ियाँ उसे आ घेरती और तब तक दम नहीं लेती जब तक उस इंसान के सारे हौंसले पस्त न हो जाएँ।

“गाँव में चमार होना ही सबसे बड़ा पाप है। घोर लांछन है। दो कौड़ी का मालिक काश्तकार अपने चमार को छटी का दूध पिला देता है। मुझे ‘चमार’ शब्द से ही नफरत है। मुझे कोई चमार कहे तो गुस्सा आ जाता है।”

ठाकुर, साहूकार, पुरोहित जहाँ वर्ग समुदाय के प्रतिनिधियों के रूप में उपन्यास में हैं तो वहीं नन्द सिंह जो पहले सिख बनता है और फिर ईसाई, जातिवाद से उपजी कुंठा का प्रतीक है। बाकी पात्रों का विकास कहानी के साथ-साथ होता चलता है और पाठक के सामने सभी पात्र एक-एक करके सहज रूप से सामने आते हैं।

भाषा के स्तर पर यह किताब पढ़ना एक लाजवाब अनुभव रहा। गाँव के लोगों की सोच का सादापन और बोली का अक्खड़पन दोनों को संवादों में बेहद खूबसूरत तरीके से उभारा गया है। छूआ-छूत, अंधविश्वास, जातिवाद, स्त्री-यौन शोषण जैसे गंभीर मुद्दों के साथ-साथ उच्च वर्ग के दोगलेपन की कलई भी उपन्यासकार बड़े ही मजेदार ढंग से खोलते चलते हैं-

“‘बड़ा कायाँ आदमी है। उसकी छूत-छात पानी और रोटी तक ही है। एक बार उसके हाथ में दूध की गड़वी थी। मेरा जी चाहा कि दूध मिल जाये तो चाय बनाकर पियूँ। मैंने जान-बूझकर उसे छू दिया। उसने मुझे बहुत गालियाँ दीं। मैं चुपचाप खड़ी सब-कुछ सुनती रही। इस उम्मीद पर कि वह दूध फेंकने लगेगा तो मिन्नत करके कहूँगी कि मुझे दे दे। लेकिन उसने दूध की गड़वी मंदिर के दरवाजे पर रख दी और अंदर से घास का तिनका लाकर उसमें डाल दिया और दूध उठाकर घर चला गया।’ कह प्रसिन्नी फिर बोली, ‘वह घास के तिनके से हर चीज़ शुद्ध कर लेता है। तिनके से शुद्ध न हो तो मंत्र फूँककर शुद्ध कर लेता है।'”

इस उपन्यास की एक ख़ास बात यह भी है कि यह एक अंचल विशेष की कहानी है और लेखक ने उपन्यास में दोआबा क्षेत्र को बखूबी उतारा है। गांव से मिलती ‘चो’ (‘चो’ पहाड़ी नदी को कहते हैं) का वर्णन हो या पात्रों की बातों में आए क्षेत्र विशेष के शब्द और मुहावरे, इस किताब को पढ़ते हुए यही प्रतीत होता है कि हम इस गाँव को अपनी ही आँखों से देख रहे हैं, कहीं भी यह आभास नहीं होता कि हम एक उपन्यास पढ़ रहे हैं।

इस किताब को पढ़ने के विभिन्न लोगों के विभिन्न कारण हो सकते हैं लेकिन उन सब कारणों में से सबसे ज़रूरी यह है कि दलित समाज के संघर्षों को इतने पास और इतनी बारीकी से उकेरने वाली कहानी इतनी आसानी से नहीं मिलती। उपन्यास में प्रत्येक घटना इतने प्रामाणिक रूप से उस समय के सामाजिक ढांचे को प्रस्तुत करती है कि पाठक खुद को उस समाज का एक अंग महसूस करने से रोक नहीं पाता। काली की चाची की अन्धविश्वास की वजह से मृत्यु हो जाना, नन्द सिंह का बार-बार धर्म परिवर्तन, ज्ञानो और काली का प्रेम संघर्ष और उनकी दुखद परिणति, हम इन सब संघर्षों के साक्षी तो नहीं हो सकते लेकिन मानवीय स्तर पर एक दूसरे वर्ग को समझने और उनकी वेदना को अपने ह्रदय में जगह देने का एक मौका यह किताब हमें देती है।

इसे पढ़ा ही जाना चाहिए।

यह भी पढ़ें: प्रेमचंद की कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’

Link to buy ‘Dharti Dhan Na Apna’:

Previous article‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ – अनुराधा बेनीवाल
Next articleहिन्दी मुकरी
पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!

6 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here